जीवनचक्र को नियंत्रित करता पर्यावरण संतुलन

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जीवनचक्र को नियंत्रित करता पर्यावरण संतुलन
जीवनचक्र को नियंत्रित करता पर्यावरण संतुलन

पूनम नेगी

समूची सृष्टि पंचमहाभूत अर्थात् अग्नि, जल, पृथ्वी, वायु और आकाश से बनी है। यही पांच तत्व मिलकर समूचे विश्व ब्रह्मांड के जड़,चेतन और जीवों का निर्माण और पोषण करते हैं। यदि यह जीवनदायी तत्त्वों की शुद्ध और संरक्षित रहें तो जीवन भी शुद्ध और सुरक्षित रहता है। इन पांच तत्त्वों का सम्मिलित स्वरूप ही पर्यावरण है। पर्यावरण का संतुलन ही जीवनचक्र को नियंत्रित करता है और इसमें गतिरोध आते ही जीवन संकट में पड़ जाता है। यही कारण है कि इसकी सुरक्षा की चिंता प्राचीनकाल से होती आ रही है। वेदकालीन महर्षिगणों ने इसकी आवश्यकता एवं महत्ता को ध्यान में रखकर इसे शुद्ध एवं संरक्षित रखने हेतु नियम बना लिए थे। वेदों को सृष्टि विज्ञान का मुख्य ग्रंथ माना गया है। इनमें सृष्टि के जीवनदायी तत्वों की विशेषताओं का काफी सूक्ष्म व विस्तृत विवरण है। ऋग्वेद में अग्नि के रूप, रूपांतर और उसके गुणों की व्याख्या की गई है। यजुर्वेद में वायु के गुणों, कार्य और उसके विभिन्न रूपों का आख्यान मिलता है। अथर्ववेद में पृथ्वीतत्व का वर्णन हुआ है। वैदिक महर्षियों ने इन प्राकृतिक शक्तियों को देवता स्वरूप माना। इसीलिए उन दिनों जड़-चेतन , सभी रूपों की उपासना व अभ्यर्थना की जाती थी और इसीलिए वैदिक युग में समस्त सृष्टि में सुख-शांति व समृद्धि का वातावरण था। जीवनचक्र को नियंत्रित करता पर्यावरण संतुलन


यजुर्वेद का अध्ययन इस तथ्य का संकेत करता है कि उसके शांति पाठ में पर्यावरण के सभी तत्त्वों को शांत और संतुलित बनाए रखने का उत्कट भाव है, वहीं इसका तात्पर्य है कि समूचे विश्व का पर्यावरण संतुलित और परिष्कृत हो। इसमें उल्लेख है कि द्युलोक से लेकर पृथ्वी के सभी जैविक -अजैविक घटक संतुलन की अवस्था में रहें। अदृश्य आकाश पृथ्वी एवं उसके सभी घटक, जल, औषधियां, वनस्पतियां व संपूर्ण संसाधन एवं ज्ञान शांत रहें। पर्यावरण के प्रति इतना गहन एवं सूक्ष्म ज्ञान का दिग्दर्शन अन्यत्र दुर्लभ है।


ऋग्वेद में वायु के औषधीय महत्त्व को स्वीकारा गया है। ऋग्वेद की ऋचा कहती है-हे वायु! अपनी औषधि ले आओ और यहां से सब दोष दूर करो, क्योंकि तुम ही सभी औषधियों से भरपूर हो। ऋग्वेद का एक अन्य मंत्र जल की शुद्धता का वर्णन करते हुए कहता है, आओ सभी मिल कर प्रवाहित जल के प्रशंसा के गीत गाएं जो हजारों धाराओं से स्फटिक की तरह बहकर आंखों को आनंद देता है। उपनिषद्कारों ने ऊर्जा के अपरिमित स्रोत सूर्य को जगत् की आत्मा कहकर उसकी अभ्यर्थना की है, सूर्य को प्राण की संज्ञा दी है। यज्ञों के माध्यम से वायुमंडल को शुद्ध करना भी वेदों का विषय रहा है। वैदिककाल में पर्यावरण के परिष्कार के लिए यज्ञ-हवन संपन्न किए जाते थे।


सामवेद में जीवन की मंगलकामना और प्रकृति की अविरल उपासना के भाव वर्णित हैं। इसमें वनस्पतियों और पशुजगत तथा औषधि विज्ञान के सुंदर मंत्रों के उद्धरण हैं। सामवेद कहता है- हे इंद्र, सूर्य रश्मियों और वायु से हमारे लिए औषधि की उत्पत्ति करो। हे सोम, आपने ही औषधियों, जलों और पशुओं को उत्पन्न किया है। अथर्ववेद में भी पर्यावरण संरक्षण और संवद्र्धन संबंधी चिंतन का गौरवगान हुआ है। पृथ्वी सूक्त में अथर्वण ऋषि धरा की महानता, उदारता, सर्वव्यापकता आदि अनंत गुणों पर विस्मित हो कह उठते हैं, हे माता! आपके लिए ईश्वर ने शीत, वर्षा तथा वसंत ऋतुएं बनाई हैं। दिन-रात के चक्र स्थापित किए हैं। इस कृपा के लिए हम ईश्वर के आभारी हैं। वे खनन से पूर्व धरती माता से प्रार्थना करते हैं कि हे मां, जीविकोपार्जन के लिए हम ऐसा करने को बाध्य हैं, किन्तु हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि वह तुम्हें पुन: हरा-भरा कर दे। हम भूमि के जिस स्थान पर खनन करें, वहां शीघ्र ही हरियाली छा जाए। आपसे प्रार्थना है कि ऐसी सद्बुद्धि दें जिससे हम आपके हृदय स्थल को न तो आहत करें, और न ही आपको दु:ख पहुंचाएं। व्यक्ति स्वस्थ, सुखी दीर्घायु रहे, नीति पर चले और पशु वनस्पति एवं जगत् के साथ साहचर्य रखे, यही वैदिक साहित्य की विशेषता है।


वैदिक कर्मकांडों की अनेक विधाओं ने भी पर्यावरण संरक्षण और सुरक्षा का दायित्व निभाया है। अरण्यों में रहकर पर्यावरण के प्रति विशेष जागरुक रहने वाले ऋषियों ने आरण्यक साहित्य का सृजन कर विश्व में पर्यावरण के महत्व को रेखांकित किया है। आरण्यक ब्राह्मण ग्रंथों एवं उपनिषदों के बीच की कड़ी हैं। ‘अरण्ये भवमेति आरण्यकम्Óकहकर आरण्यक का अर्थ स्पष्ट किया गया है। बृहदारण्यक भी ‘अरण्येनूत्यमानत्वात् अरण्यकम् के रूप में इसका समर्थन करता है। इसका विषय प्राणविद्या है। अंतरिक्ष और वायु से प्राण का संबंध अन्योन्याश्रित है। पर्यावरण के जैविक और अजैविक तत्वों में भी वायु और अंतरिक्ष का विशेष योगदान रहता है। सृष्टि के सभी तत्वों में इन दोनों का समावेश है। इन्हीं गुणों के कारण सृष्टि के सभी तत्वों को प्राणशक्ति मिलती है जिससे विकास की गति अग्रसर होती है।

हर कंपनी फेंके गए कार्डबोर्ड और कागज से लेकर जहरीले पदार्थों तक किसी न किसी रूप में अपशिष्ट उत्पन्न करती है जो महंगे और निपटान के लिए जटिल होते हैं। कुछ मामलों में, अनुचित सावधानियां या लापरवाही प्रदूषण का कारण बन सकती है, जिसे मोटे तौर पर तब परिभाषित किया जाता है जब कोई पदार्थ जो लोगों या पर्यावरण को नुकसान पहुंचाता है या नुकसान पहुंचा सकता है वह हवा, पानी या जमीन में मिल जाता है। वायु प्रदूषण विशेष रूप से समस्याग्रस्त है और डब्ल्यूएचओ का अनुमान है कि यह हर साल लगभग सात मिलियन लोगों की जान लेता है।


उपनिषदों में जल, वायु, पृथ्वी और अंतरिक्ष का विशद् वर्णन हुआ है। इसमें प्रकृति की महत्ता को पर्याप्त मान्यता प्रदान की गई है। इनके अनुसार पदार्थ की उत्पत्ति एवं जीव-जगत् की सृष्टि अग्नि जल और पृथ्वी के विनियोग से हुई है। श्वेताश्वेतर उपनिषद् ने इस त्रिगुणात्मक प्रकृति की विवेचना की है। छांदोग्य उपनिषद् स्पष्ट करता है कि सात्विक ओर से परिष्कृत में का सीधा संबंध है। इसमें आगे और स्पष्ट करते हुए उल्लेख है कि पृथ्वी, जल और पुरुष सभी प्रकृति के घटक हैं। पृथ्वी का रस जल है और जल का रस औषध है। औषधियों का रस पुरुष है, पुरुष का रस वाणी, वाणी का ऋचा, ऋचा का साम और साम का रस उद्गीथ हैं, अर्थात् पृथ्वी तत्व में ही सब तत्वों को प्राणवान बनाने के प्रमुख कारण है।


रामायणकाल में भी पर्यावरण चेतना पर्याप्त सक्रिय थी। वाल्मीकि रामायण में राम के वन गमन के समय प्रकृति के मनोरम दृश्य का उल्लेख किया गया है-इस समय पर्वत प्रदेश, घने -जंगल एवं रम्य नदियों के किनारे सारस और चक्रवाक पक्षी आनंद में विचर रहे थे। सुंदर जलाशय में कमल दल खिले हुए थे। जंगलों में झुंड के झुंड हिरन, गैंडे वाराह और हाथी निर्भय घूम रहे थे अर्थात् उन दिनों पर्यावरण अत्यंत समृद्ध था। इस काल का चित्रण करने वाले महाकवि भवभूति ने भी प्रकृति का अत्यंत हृदयग्राही चित्रण करते हुए लिखा है कि वनों में सिद्ध तपस्वियों के आश्रम हरियाली से भरापूर थे। वहां स्वच्छंद विचरण करते हिरण शावक इन प्राकृतिक आवासों की शोभा बहुगुणित कर देते थे। रामायण कालीन ग्रंथों में प्रकृति को सजीव व निर्जीव दोनों ही तत्वों से चेतना संपन्न बताया गया है। रामचरितमानस के उत्तरकांड में वर्णन मिलता है कि चरागाह तालाब, हरित भूमि, वन उपवन के सभी जीव आनंद पूर्वक रहते थे।इसी तरह महाभारतकालीन मनीषियों ने भी पर्यावरण की गौरव गरिमा को महिमा मंडित किया है। इस काल में भगवान् कृष्ण द्वारा गाई गीता में प्रकृति को सृष्टि का उपादान कारण बताया गया है। श्रीकृष्ण कहते हैं , प्रकृति के कण -कण में सृष्टि का रचयिता समाया हुआ है। जीवनचक्र को नियंत्रित करता पर्यावरण संतुलन

प्रकृति के समस्त चमत्कारों को परमेश्वर का स्वरूप बताते हुए श्रीकृष्ण कहते हैं कि मैं ही पृथ्वी में प्रवेश करके सभी भूत-प्राणियों को धारण करता हूँ। चंद्रमा बनकर औषधियों का पोषण करता हूं। महाभारतकाल में प्रत्येक तत्व को देवता सदृश स्वीकार कर उनकी अभ्यर्थना की जाती थी। उन दिनों वृक्षों की पूजा का प्रचलन था। वृक्षों को काटना महापाप समझा जाता था। महाभारत के आदिपर्व में वर्णन है कि गाँव में जो जगह पेड़ फूल और फलों से भरपूर हो वह स्थान हर तरह से अर्चनीय है। इसमें प्रकृति का अनेक उपमाओं से अलंकृत किया गया है। पवित्र और शीतल जलाशय तथा जंगल पहाड़ व पर्वतों आदि को प्रकृति व पर्यावरण के अद्भुत प्रसंगों से महाभारत के सभी पर्व भरे पड़े है। महाकवि कालिदास ने भी अपने नाटकों एवं काव्यों में पशु -पक्षी वृक्षादि से मानवीय जीवन का अपूर्व संबंध स्थापित किया है। अभिज्ञान शाकुंतलम् ने तो इन रिश्तों व संबंधों को सजीव कर दिया है। कण्व आश्रम में पली बढ़ी शकुंतला अपने चारों ओर के परिवेश एवं वातावरण से इतना एकात्म एवं तदाकार हो गई थी कि उसका विछोह सभी को विह्वल कर रहा था। उसकी विदाई के समय पशु पक्षी ही नहीं वनस्पति जगत् भी उदास हो गया था।


वैदिक वांग्मय में दर्शन भी पर्यावरण की चिंतन चेतना से ओतप्रोत रहे हैं। सांख्य दर्शन में प्रकृति और पुरुष के समन्वय को सृष्टि का कारण माना है। प्रकृति जड़ एवं स्थूल होते हुए भी अति सूक्ष्म है। अत: प्रकृति समस्त सृष्टि की उत्पत्ति का प्रमुख कारण है। चूंकि प्रकृति को यहां सूक्ष्मातिसूक्ष्म दर्शाया है, इसलिए इसमें पर्यावरण अनायास ही जीवंत हो उठा है। न्यायदर्शन में ईश्वर एवं जीव के साथ प्रकृति भी महत्वपूर्ण घटक है।\ वैदिक एवं दार्शनिक साहित्य की ही भाँति पुराणों में भी पर्यावरण के घटकों को पूजनीय माना गया है। प्रकृति के इन घटकों में देवत्व का भाव भी दर्शाया गया है । यहां मिट्टी प्रस्तर के पहाड़ को देवात्मा हिमालय बताया है तो नदियों को देवी का पर्याय माना है, जिसमें पुण्यतोया गंगा का स्वरूप तो अवर्णनीय है। पुराणों के अनुसार ईश्वर संसार के कल्याणार्थ कभी मत्स्य का आकार ग्रहण करते हैं तो कभी कछुआ, हंस बनकर इनकी महत्ता प्रतिपादित करते हैं। सिंह और वाराह के रूप में आकर सभी जीवों की श्रेष्ठता घोषित करते हैं। इसी लिए भारतीय संस्कृति में सभी जड़-चेतन का दिव्य माना है। पुराणों की रचना का आधार भी सृष्टि के तत्वों को लेकर बना है। अनेक पुराणों का नामकरण भी इन तत्त्वों के नामों को लेकर हुआ है। अग्निपुराण, वायुपुराण आदि में यही भाव दिखाई देता है। इन सभी पुराणों में दिव्य प्रकृति का सहज वास है।


ब्रह्मपुराण में गंगाजल की विशेषता खासतौर पर परिलक्षित होती है। वृक्ष मानवमात्र के लिए सतत् प्राणदायक वायु का संचार करते हैं। यही वजह है कि भारतीय ऋषियों महर्षियों ने वृक्षों के प्रति अगाध अनुराग भावना प्रदर्शित की है। यहां पर वृक्ष पूजा का प्रचलन अति प्राचीन है। देवदार को देवताओं का प्रिय वृक्ष कहा जाता है। तुलसी को वायु के शोधन एवं पवित्रता के लिए हर आंगन में रोपने की प्रथा है। पौराणिक मान्यता के अनुरूप ही अपने यहां पीपल, पलाश, नीम, अशोक, बरगद, कदंब, आंवला आदि अनेक वृक्षों को देवता के सदृश पूजा जाता है। प्राचीनकाल में तो वृक्षों के साथ वनों की भी पूजा होती थी। इसीलिए मधुवन, वृहदवन, बहुलवन, कुमुदवन, श्रीवन, नंदनवन आदि वनों का वर्णन मिलता है। इन सभी उपक्रमों एवं प्रयासों के पीछे पर्यावरण को संरक्षित करने की विशेषता ही झलकती है।


पुराणों का समय वेदकाल से प्रारम्भ होकर सोलहवीं शताब्दी के अंतिम कालखंड तक माना गया है। इतनी लंबी अवधि में भी पर्यावरण के प्रति पर्याप्त सजगता एवं जागरुकता का रुझान मिलता है। इसके अलावा इतिहास के पृष्ठों में दबे तमाम तथ्यों का उभारने पर पता चलता है कि इन दिनों भी पर्यावरण को कानूनी संरक्षण प्राप्त था। सिंधु सभ्यता के युग में द्रविड़ों की जीवनशैली ने पर्यावरण प्रेम को दर्शाया है। वे विशेष रूप से वृक्ष पूजा करते थे। द्रविड़ों के द्वारा प्रारम्भ की गई यह प्रक्रिया एवं परंपरा बाद में भी जीवित रही। चंद्रगुप्त मौर्य के समय वन की सुरक्षा पर विशेष ध्यान दिया जाता था। कौटिल्य के अर्थशास्त्र में अभ्यारण्यों की पांच श्रेणियां होती थी। सम्राट अशोक के शासनकाल में सर्वप्रथम वन्य जीवों के संरक्षण हेतु नियम बनाए गए थे। इसके पश्चात् भी यह सिलसिला चलता रहा।


पर्यावरण संरक्षण की इस सुदीर्घ एवं अतिप्राचीन परंपरा को आधुनिकता की आग ने भारी नुकसान पहुंचाया है। दोहन और शोषण, वैभव एवं विलास की रीति नीति से पर्यावरण को संकट में डाल दिया है, फलत: जीवन भी संकटग्रस्त है, सब ओर विपन्नता है, प्राकृतिक आपदाओं का क्रूर तांडव है। वैज्ञानिक हो या राजनेता, सभी प्रकृति के क्रोधावेश से डरे-सहमे हैं। समाधान की खोज के इन पलों में सार्थक निदान के लिए जरूरी है कि हम अपनी विरासत को संभालें। पर्यावरण संरक्षण की टूट-बिखर रही कडिय़ों को पुन: जोड़े। हममें से प्रत्येक मन-वाणी-कर्म से इस सत्य का वेदकालीन महर्षियों के स्वर-में-स्वर मिलाकर सस्वर उद्घोष करें-ॐ द्यौ शांति: अंतरिक्ष शांति: पृथ्वी शांति: आप: शांति:। जब हम अपने आचरण व्यवहार से माता प्रकृति के कोप को शांत करेंगे, तभी हमारा अपना जीवन भी शांत और सुखी होगा। जीवनचक्र को नियंत्रित करता पर्यावरण संतुलन

लेखिका स्वतंत्र पत्रकार हैं।