
प्रिया मिश्रा
मैं बारिश में ख़ुद को सुखाने चली हूँ,ठहरकर समय को बिताने चली हूँ !
हुई बावरी प्यार में इस क़दर मैं, जले दीप को फिर जलाने चली हूँ !
धनक में डुबोया सपन का दुपट्टा, पलक के फ़लक पर लहरने लगा है !
समंदर के जैसा तरंगित तरंगित, ये मन झील जैसा ठहरने लगा है !
चली मौन की मैं कहानी सुनाने, चली मैं उजाले को स्याही से पाने !
जो गागर जगत में पिपासा की जड़ है,उसी से पिपासा मिटाने चली हूँ !
घुमड़ता हुआ एक बादल का टुकड़ा, इधर मेरी आँखों में रहने लगा है !
ज़रा सी ख़ुशी पर ज़रा से ही ग़म पर,पिघलकर ये दरिया सा बहने लगा है !
मैं मीरा स्वयं को जो मानूँ तो सुख है, मैं राधा स्वयं को जो मानूँ तो दुख है !
इसी वास्ते प्रेम की इस कथा में, स्वयं को मैं मीरा बनाने चली हूँ !
नहाकर छिटकती हुई चाँदनी में, गई रात चंदा को मैंने निहारा !
हुआ लापता वो सवेरे सवेरे, कई बार दिल से है उसको पुकारा !
मुझे चाहिए रात दिन चाँद मेरा, मगर छीन लेता है उसको सवेरा !
इसी वास्ते हर सपन के क्षितिज पर,मैं अपना वो चंदा उगाने चली हूँ !
याद रखना टूटा हुआ भरोसा और गुजरा हुआ वक्त जिंदगी में कभी लौटकर नहीं आते..