डॉ.वेदप्रकाश
भारतीय राजनीति में आजकल नारों की भरमार होती जा रही है। इनमें से कई नारे सिर्फ नारे हैं, उनमें विचार नहीं है। भारतभूमि विचारभूमि रही है। जीवन जगत के अनेक ऐसे प्रश्न,अनेक ऐसे रहस्य जिनके प्रति मनुष्य की जिज्ञासा होना स्वाभाविक था, ऐसी सभी बातों पर भारतीय ज्ञान परंपरा में विचार उपलब्ध हैं। विचार सृजन का मूल है। विचार व्यक्ति, समाज और राष्ट्र का निर्माण करते हैं। इसलिए यह आवश्यक है कि विचारों में शुद्धता हो, व्यापकता हो, चिंतन हो और उनमें मानवता के कल्याण की भावना हो। भारत नारों का नहीं, विचारों का देश
वैदिक साहित्य भारतीय विचार अथवा ज्ञान परंपरा का मूल है। वैदिक ऋषियों ने जब वसुधैव कुटुंबकम और सर्वे भवंतु सुखिनः जैसे उत्कृष्ट विचारों की संकल्पना की होगी, तब वे एक लंबी वैचारिक प्रक्रिया से गुजरे होंगे। अनेक प्रकार के तर्क-वितर्कों से निकलते हुए उन्होंने इन विचारों की स्थापना की होगी। स्वतंत्रता आंदोलन में भिन्न-भिन्न प्रकार के वैचारिक आयाम खड़े हुए और उन वैचारिक आयामों के पीछे कुछ नारे भी बनते चले गए। स्वतंत्रता मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है, मैं उसे लेकर ही रहूंगा, करो या मरो,तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा, इंकलाब जिंदाबाद व वंदे मातरम आदि ऐसे नारे अथवा विचार रहे जो जन जागरण का मूल बन गए। क्या इनमें स्वार्थ की भावना थी?
उस समय ये नारे एक विचार के प्रतिरूप थे लेकिन आज कई नारे राजनीतिक स्वार्थ और विकृतियों को तूल देने के लिए घड़े जाते हैं। उनके बीच से विचार और संस्कार का लोप होता जा रहा है। गांधी जी की प्रतिमा के पास खड़े हुए लोग जब सत्य के लिए अथवा न्याय पाने के लिए आंदोलन करते दिखाई देते हैं, तब उनके नारों और भावभंगिमाओं में राजनीतिक स्वार्थ और पद लोलुपता साफ दिखाई देती है। चुनावी रैलियों में इस प्रकार के लोग जब मंच से नारे लगाते हैं तो उनमें से अधिकांश का उद्देश्य वोट बैंक को लुभाना होता है। विगत दिनों संविधान की प्रति को हाथ में लेकर प्रदर्शन अथवा संविधान को बचाने हेतु कई नारे अस्तित्व में आए, क्या वास्तव में वे संविधान बचाने की चिंता से उपजे थे अथवा राजनीतिक स्वार्थ पूर्ति हेतु उनका निर्माण किया गया था?
विगत दिनों मोदी की गारंटी यह नारा भी खूब चला। क्या यह केवल एक नारा है? इस नारे के मूल में विश्वास का भाव है, क्योंकि विगत लगभग एक दशक से सामान्य व्यक्ति चुनावी घोषणा पत्रों अथवा मंचों से कहे हुए नारों को धरातल पर उतरते देख रहा है। सबका साथ, सबका विकास पिछले एक दशक से विश्वास का प्रतीक बनकर उभरा है। विगत दिनों हाथ बदलेगा हालात, यह नारा भी खूब सुनाई दिया। लेकिन क्या वास्तव में यह हाथ हालात बदलने के लिए उठ रहा था अथवा सत्ता पाने की भावना से? यह विचारणीय है।
आजकल उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का- बटेंगे तो कटेंगे, यह नारा चर्चा में है। वास्तव में यह नारा नहीं है अपितु एकजुट रहकर आगे बढ़ने का संदेश है। जाति,संप्रदाय अथवा क्षेत्रीयता के आधार पर बटेंगे तो विकास से कट जाएंगे, इसका अर्थ यह भी है। जैसे ही यह नारा अथवा बात कही गई उसके कुछ दिन बाद ही सपा प्रमुख अखिलेश यादव ने नारा दिया- जुड़ेंगे तो जीतेंगे। यह नारा सीधे-सीधे जीत हासिल करते हुए सत्ता पाने की लालसा को प्रकट करता है। इसके कुछ दिन बाद ही बसपा प्रमुख मायावती ने कहा- जुड़ेंगे तो आगे बढ़ेंगे और सुरक्षित भी रहेंगे। यह नारा अधिक लोकप्रियता नहीं पा सका। योगी आदित्यनाथ ने अथवा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कोई नारा अथवा बात कही है तो हम पीछे कैसे रहें? यह दौड़ सभी को परेशान कर रही है।
विगत दिनों चित्रकूट में श्रीरामकिंकर जन्म शताब्दी महोत्सव के एक महत्वपूर्ण कार्यक्रम में परमार्थ निकेतन, ऋषिकेश के अध्यक्ष स्वामी चिदानंद मुनि जी ने कहा कि- भारत नारों का नहीं, विचारों का देश है। स्वामी चिदानंद मुनि जी राष्ट्रीय और वैश्विक फलक पर आध्यात्मिक विभूति होने के साथ-साथ विचारवान व्यक्तित्व हैं। उनके विचार लेख की पृष्ठभूमि अथवा विषय प्रदान कर देते हैं। ध्यातव्य है कि राजनीति करने के लिए नारों से सुर्खियां तो बटोरी जा सकती हैं लेकिन देश चलाने के लिए विचार की आवश्यकता पड़ती है। आज समूचा विपक्ष विचार शून्यता की स्थिति में है।
देश के लिए कुछ करने का विचार उनके पास है ही नहीं। विगत दिनों भी महागठबंधन के रूप में समूचे विपक्ष द्वारा भारत जोड़ो यात्रा,न्याय यात्रा, संविधान खतरे में है एवं देश असुरक्षित है जैसे अनेक नेरेटिव खड़े किए गए। लेकिन विकास की मुख्य धारा से जुड़ चुके सामान्य व्यक्ति ने विकसित भारत के विचार को अपना समर्थन दिया। उस सामान्य व्यक्ति ने भी अब विकसित भारत के संकल्प हेतु अपनी यात्रा आरंभ कर दी है जिससे यह स्पष्ट है कि भारतवर्ष का भाग्य विधाता यह सामान्य व्यक्ति अब लुभावने व भ्रमित करने वाले नारों में उलझने वाला नहीं है। वह भी विचार के महत्व को समझ गया है। आज राष्ट्रीय और वैश्विक फलक पर भारत विचार की स्वीकृति निरंतर बढ़ रही है। भारत नारों का नहीं, विचारों का देश