चलते रहना बेहतर…

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विजय गर्ग 

दो स्त्रियां एक खास उम्र से जुड़ी होती हैं। अमूमन स्कूल और कालेज की दोस्तियां ही स्थायी होती हैं। एक समय के बाद दोस्ती मुश्किल होती जाती है। हर किसी के खास दोस्त वही होते हैं जो स्कूल या कालेज से उनके साथ जुड़े रहे हों। यह रिश्ता विश्वास पर टिका होता है, लेकिन यह बहुत समय और समझ भी मांगता है। कालेज के बाद बेरोजगारी और दुनियादारी की समस्याओं के बीच किसी नए व्यक्ति के लिए जगह नहीं बचती । धीरे-धीरे पुरानी दोस्तियां औपचारिक होती जाती हैं, क्योंकि वे संदर्भ बदल जाते हैं, जिनसे वे बनी थीं। मनुष्य समय के साथ कुछ और होता जाता है और इस ‘कुछ और’ में होने वाले भाव को पहले से जुड़े लोगों के साथ साझा करना मुश्किल होता है। अपने बारे में लंबे समय से बनी छवि से बाहर निकलना खुद के लिए भी मुश्किल भरा हो है। ऐसे में नई दोस्ती की जरूरत व्यक्ति को हमेशा होती है। चलते रहना बेहतर…

दरअसल, नई दोस्तियां व्यक्ति को नया करती हैं। जब हम किसी व्यक्ति के गहन संपर्क में आते हैं तो केवल सामने वाले को ही नहीं समझते, खुद को भी नए सिरे से समझने लगते हैं। हर दूसरा व्यक्ति किसी के लिए भी एक तरह की खिड़की है, जिससे वह दुनिया को देखने के अपने तरीके को विस्तृत करता जाता है। हम उन चीजों को फिर से सोचते हैं जो हमारे लिए पुरानी पड़ चुकी हैं, लेकिन उन्हें जिन्होंने हमें निर्मित किया है। अतीत का मूल्यांकन राष्ट्र और परंपराओं के लिए ही आवश्यक नहीं हुआ करता, एक मनुष्य के लिए, उसके निजी जीवन के लिए भी जरूरी होता है । अतीत के मूल्यांकन के बिना भविष्य धुंधला होकर दौड़भाग तक सीमित हो जाता है। दूसरे को जानने की प्रक्रिया में मनुष्य खुद को फिर से जानने लगता है। जब किसी व्यक्ति से हम बात करते हैं तो हर बार कुछ उतना ही और जानते हैं।

नई दोस्ती व्यक्ति को अपनी नजर में प्रासंगिक बनाए रखती है, यह सही है कि गहराई वक्त के साथ आती है, लेकिन रिश्तों शुरुआती निवेश की फसल को ही व्यक्ति अक्सर भुनाता रहता है । वह यह मानकर चलता है कि अब दोस्ती जैसे झंझटों की उसे जरूरत नहीं रही। पारिवारिक और सामाजिक दायित्व भी मनुष्य को गहरे रिश्तों से दूर करते हैं । आज दूसरे से परिचय जितना आसान हो गया है, रिश्ते उतने ही मुश्किल हो गए हैं। मनुष्य हर वक्त एक मुखौटे के साथ दूसरों का, दुनिया का सामना करता है। हर कोई चाहता है कि वह इस मुखौटे के बगैर बात कर सके, लेकिन ईर्ष्या, प्रतिस्पर्धा और कितने ही अनजाने डर उसे खुलने नहीं देते।

एक उम्र के बाद मनुष्य सोचता है कि इन सबसे कुछ भी फायदा नहीं होना, क्योंकि अपने पारिवारिक दायरे में वह इतना धंस चुका होता है कि सिर्फ जरूरी काम करने का आदी हो जाता है । वह जिम्मेदारियों और परंपराओं की भाषा में सोचने लगता है। मनुष्य अपनों के दुखी होने के डर से अपनी समस्याओं और अकेलेपन को अपने परिवार वालों को बताकर परेशान नहीं करना चाहता और धीरे-धीरे अपने में सिकुड़ने लगता है। नए लोगों के साथ ऐसी समस्या नहीं होती, इसीलिए अक्सर लोगों को अजनबियों के साथ खुलने में कम दिक्कत होती है।

एक बड़ा भ्रम यह भी है कि अच्छी दोस्तियां लंबी चलती हैं या चलनी चाहिए और आजकल किसी चीज की उम्र नहीं होती, इसलिए कोई रिश्तों के पचड़ों में नहीं पड़ना चाहता। इस बात पर ध्यान देने की जरूरत है कि दोस्ती की उम्र सदैव उसकी गुणवत्ता के समानुपाती ही हो, यह जरूरी नहीं होता । अक्सर थोड़े वक्त के लिए मिले लोग हमारी जिंदगी में वह परिवर्तन लाने में सक्षम होते हैं जो जमाने से जुड़े लोगों से संभव नहीं होते।

मनुष्य के शुरुआती दोस्त उसके स्वभाव को पूरी तरह जानते हैं, इसलिए वे उसे वैसा ही स्वीकार लेते हैं, उसके वैसा होने में कोई खामी है या किसी आदत को बदलकर वह बेहतर भी हो सकता है, ऐसा वे नहीं सोचते । बचपन में देखा और महसूस किया सब कुछ इतना प्राकृतिक लगने लगता है कि हर कोई उसके बारे में सोचना ही बंद कर देता है। मगर एक उम्र के बाद मिले अनजाने लोग हमें यह अहसास दिलाने में सक्षम होते हैं कि हम क्या है और क्यों हैं ?

स्कूल और कालेज की दिनचर्या से जुड़ी दोस्तियों के बाद भी मनुष्य को हर उम्र और हर पड़ाव पर नए दोस्तों की जरूरत होती है । इस वक्त में दोस्ती की गहराई चाहिए होती है, लंबाई नहीं । क्षणभंगुर जीवन को स्वीकार करके शाश्वत रिश्तों को तलाशना अपने आप से ही नहीं, दूसरे से भी बड़ी मांग है। जब सब कुछ पूरा होता है तो रिश्ते को भी एक समय में पूरा होना ही होता है । पुराने जब जाते हैं तो नए के लिए जगह भी तो बनती है। किसी पुराने के गम में सामने दिख रहे जीवन को ठुकराना भी ठीक नहीं। दोस्ती दो लोगों के बीच विश्वास, समझदारी और प्रेम से बनती है।

जब एक समय के बाद इनमें से कुछ भी कम होने लगे तो समझदारी की ही सबसे ज्यादा जरूरत होती है। रिश्तों का टूटना उनका अंत होना नहीं होता । मनुष्य को उनसे बहुत कुछ मिलता है। एक समय के बाद जब जानने को कुछ नहीं बचता तो उनमें गतिशीलता नहीं रहती। ऐसे में उनको जिंदा रखना उनके साथ ज्यादती होती है। लेकिन वे पूरे होकर मनुष्य के किसी हिस्से को भी पूरेपन का अहसास दिलाते हैं, हमें इस सोच के साथ चलना चाहिए। अपने को सदैव के लिए बंद करने से जीवन ठहर जाता है । उसे चलते रहने देना ही बेहतर है। इसलिए खुले मन से चलना चाहिए। चलते रहना बेहतर…