ललित गर्ग
हरियाणा विधानसभा चुनाव के मतदान की तारीख जैसे-जैसे नजदीक आती जा रही है, राजनीतिक दलों में उठापटक हो रही है. दलबदल का सिलसिला जारी है, गठबंधन टूट रहे हैं जो नये जुड़ रहे हैं। प्रदेश में तीसरी बार सरकार बनाने को आतुर भाजपा के सामने इस बार चुनौतियां कम नहीं हैं, वही कांग्रेस लोकसभा चुनाव में मिली सफलता से अति-उत्साहित दिखाई दे रही है, आम आदमी पार्टी भी सभी सीटों पर अपने उम्मीदवार खड़े कर राजनीतिक समीकरणों को प्रभावित करने में जुटी है। हरियाणा में तू डाल-डाल, मैं पात-पात की कशमकश जोरों से चल रही है। विनेश और बजरंग पहलवान को शामिल करके कांग्रेस खुशियां मना रही थी लेकिन ‘आप’ से हो रहा समझौता टूटते ही कांग्रेस की खुशियां कुछ हद तक फीकी दिखाई देने लगीं। फिर भी भूपिंदर सिंह हुड्डा के नेतृत्व में कांग्रेस हरियाणा में अपनी बहुमत की सरकार बनाने का दावा कर रही है। भाजपा भी यहां अपनी सरकार बचाने के लिए हर संभव प्रयास कर रही है। इस बार हरियाणा के चुनावों पर समूचे देश की नजरे लगी है। हरियाणा से मिल रहे हैं सत्ता-विरोधी संकेत
हरियाणा विधानसभा चुनावों के लिए विपक्षी इंडिया गठबंधन में शामिल कांग्रेस और आम आदमी पार्टी के बीच गठबंधन की बातचीत टूटने के बाद से कांग्रेस के जीत के सपनों को सेंध लगी है। आप ने प्रत्याशियों की दो-दो सूची जारी कर दी है, सभी 90 सीटों पर चुनाव लड़ने का एलान भी कर दिया है। फिर भी दोनों दलों में कुछ लोग हैं, जो अभी गठबंधन की उम्मीद छोड़ने को तैयार नहीं हैं क्योंकि यही गठबंधन कांग्रेस की जीत का बड़ा कारण माना जा रहा है। इस गठबंधन के टूटन से भाजपा की निराशा के बादल कुछ सीमा तक छंटते हुए दिखाई दे रहे हैं लेकिन भाजपा की जीत अभी भी निश्चित नहीं मानी जा रही है। भले ही ‘आप’ को दूर रखकर हरियाणा कांग्रेस की राज्य इकाई खुश हो रही हो लेकिन इसका फायदा भाजपा को ही होने वाला है क्योंकि ‘आप’ प्रत्याशियों को जहां भी, जितने भी वोट मिलने वाले हैं, वे जाएंगे कांग्रेस के खाते से ही। इस त्रिकोणीय संघर्ष का फायदा भाजपा को ही मिलेगा।
हरियाणा कांग्रेस एवं उसके नेता प्रारंभ से ही स्वतंत्र चुनाव लड़ने के पक्ष में रहे हैं। प्रदेश कांग्रेस नेताओं के मुताबिक, दस वर्षों की सत्ता-विरोधी लहर के मद्देनजर भाजपा 2019 से कमजोर स्थिति में है, जब उसे 90 सीटों की विधानसभा में 40 सीटें ही मिल पाई थीं। हाल ही में सम्पन्न लोकसभा चुनावों के नतीजे भी संकेत दे रहे हैं जहां पिछली बार की दसों सीटों की जगह उसे सिर्फ 5 सीटें मिलीं। आप को कांग्रेस के साथ गठबंधन में यहां एक लोकसभा सीट पर चुनाव लड़ने का मौका मिला था, लेकिन वह हार गई थी। इसी स्थिति को देखते हुए ही प्रदेश कांग्रेस आप के साथ गठबंधन को पूरी तरह गैर जरूरी मान रहा है लेकिन कांग्रेस का राष्ट्रीय नेतृत्व राजनीति गणित को देखते हुए आप के साथ गठबंधन को लेकर निरन्तर प्रयास करता रहा। यही कारण दोनों दल गठबंधन के लिए बातचीत की मेज पर बैठे। राहुल गांधी अब लोकसभा में विपक्ष के नेता हैं और उनकी प्राथमिकता यह है कि राष्ट्रीय स्तर पर विपक्ष के इंडिया गठबंधन की एकजुटता और उसकी मजबूती में किसी तरह की कमी न दिखे ताकि केंद्र सरकार और भाजपा पर उसका दबाव बना रहे।.
हरियाणा में आप पार्टी कोई चमत्कार घटित करने की स्थिति में नहीं है। उसकी भूमिका सत्ता के गणित को प्रभावित करना मात्र है। कुछ सीटें उसके खाते में जा सकती है जिसका रोल भविष्य की सत्ता की राजनीति में हो सकता है। अरविन्द केजरीवाल के जातीय गणित के कारण ‘आप’ पार्टी कांग्रेस को भारी नुकसान पहुंचा सकता है तो कुछ नुकसान भाजपा का भी कर सकती है। कम वोटों के अंतर से होने वाली जीत-हार में ‘आप’ पार्टी का असर साफ दिखने वाला है। देर से ही सही, हो सकता है कांग्रेस नेतृत्व को यह बात समझ में आ जाए, लेकिन तब तक काफी देर हो चुकी होगी। हालांकि चुनाव परिणाम आने पर ही असल माजरा समझ आएगा, लेकिन यह तय है कि भाजपा को दस साल के राज के बावजूद कमजोर नहीं माना जा सकता।
लोकसभा चुनाव में भाजपा की सीटों में आई कमी के बाद विपक्ष को जो थोड़ी धार मिली है, उसका जो मनोबल बढ़ा था, उसके मद्देनजर ये चुनाव अहम माने जा रहे हैं। हरियाणा के बाद महाराष्ट्र और झारखंड में भी चुनाव होने हैं। दिल्ली विधानसभा के चुनाव भी ज्यादा दूर नहीं हैं। ऐसे में हरियाणा विधानसभा चुनाव में अगर इंडिया गठबंधन साथ मिलकर मजबूती से लड़ता और अच्छी जीत दर्ज करा पाता तो उसका असर न केवल आने वाले विधानसभा चुनावों पर बल्कि पूरे विपक्ष के मनोबल पर पड़ने वाला था। इंडिया गठबंधन के कारण सबसे ज्यादा नुकसान भाजपा को ही झेलना पड़ता है। इसलिये इस गठबंधन की मजबूती ही भाजपा के लिये असली चुनौती है। मध्य प्रदेश विधानसभा चुनावों को याद करें तो इस पर लगभग आम राय है कि वहां कांग्रेस को प्रदेश नेतृत्व के अति आत्मविश्वास का नुकसान हुआ। असल सवाल विपक्षी वोटों के बंटवारे का है। जिस तरह से आप प्रत्याशियों की सूची जारी कर रही है, उससे साफ है कि वह इसी पहलू की ओर इशारा कर रही है कि उसे सीटें भले न आएं, कांग्रेस को कई सीटों का नुकसान तो हो ही सकता है।
भाजपा लम्बे समय से हरियाणा में कमजोर बनी हुई है, भले ही सरकार उसी की हो। अपनी लगातार होती कमजोर स्थितियों में सुधार लाने एवं प्रदेश में भाजपा को मजबूती देने के लिये ही लोकसभा चुनाव से ठीक पहले मनोहर लाल के स्थान पर ओबीसी वर्ग के नायब सिंह सैनी को मुख्यमंत्री बनाकर सत्ता विरोधी कारकों को कम करने की कोशिश की थी, लेकिन भाजपा को उसका पूरा लाभ नहीं मिल सका। इसके मुख्य कारण सत्ता विरोधी वातावरण बना तो किसानों व बेरोजगारों की नाराजगी बड़ी चुनौती बन कर सामने आयी। भाजपा द्वारा पेश किए गए तीन विवादास्पद कृषि कानून हरियाणा में विवाद का मुख्य मुद्दा बने हुए है। राज्य के किसानों ने इन कानूनों का विरोध किया, उनका दावा है कि ये उनकी फसल की बिक्री और आय पर प्रतिकूल प्रभाव डालते हैं।
केन्द्र की अग्निपथ योजना भी इन चुनावों में एक विवादास्पद मुद्दा बनी हुई है। इसने राज्य के युवाओं में चिंता पैदा कर दी है। आलोचकों का मानना है कि यह स्थायी भर्ती से दूर जाने का कदम है, जिससे सैनिकों के लिए रोजगार में अस्थिरता पैदा होती है। इन चुनावों में बेरोजगारी एक महत्वपूर्ण मुद्दा है, राज्य की बेरोजगारी दर राष्ट्रीय औसत से अधिक है। युवाओं के लिए रोजगार के अवसर पैदा करने में सरकारी नीतियों पर काफी बहस चल रही है, जिससे यह चुनावों में एक केंद्रीय मुद्दा बन गया है। पहलवानों से जुड़ा मामला और बृज भूषण शरण सिंह पर लगे आरोप भी हरियाणा चुनाव में अहम मुद्दा बन गए हैं। पहलवानों ने सिंह पर उन्हें न्याय और सुरक्षा प्रदान करने में विफल रहने का आरोप लगाया है, जिससे हरियाणा में राजनीतिक परिदृश्य में एक नया आयाम जुड़ गया है। हरियाणा में पहलवानों की सबसे अधिक संख्या और कुश्ती में एक मजबूत परंपरा होने के बावजूद, समर्थन की कथित कमी पर चिंता है।
खेलो इंडिया पहल में, जिसका उद्देश्य जमीनी स्तर पर खेलों को बढ़ावा देना है, गुजरात को सबसे अधिक बजट आवंटित किया गया, जिससे हरियाणा के खेल समुदाय में असंतोष पैदा हुआ। यह मुद्दा राज्य में एथलीटों के लिए संसाधनों और समर्थन के वितरण में कथित असंतुलन को उजागर करता है। इन स्थितियों में विनेश और बजरंग पहलवान के कांग्रेस में शामिल होने का पार्टी को लाभ मिलेगा। हरियाणा चुनाव में उठाये जा रहे मुद्दों पर गौर करे तो ये संकेत भाजपा के लिये संकट का कारण बन रहे हैं। कुल मिलाकर इस बार हरियाणा के चुनावों में लड़ाई कई दलों के लिये आरपार की है। ‘अभी नही तो कभी नहीं’- हरियाणा का सिंहासन छूने के लिये सबके हाथों में खुजली आ रही है। इसमें हरियाणा के मतदाता की जागरूकता, संकल्प एवं विवेक ही प्रभावी भूमिका अदा करेंगा। हरियाणा से मिल रहे हैं सत्ता-विरोधी संकेत