संसद और विधानमण्डल लोकतंत्र का आधार

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हृदयनारायण दीक्षित


संसद और विधानमण्डल लोकतंत्र का आधार है। जनप्रतिनिधि सदनों में कानून बनाते हैं। सरकार को जवाबदेह बनाते हैं। महत्वपूर्ण विषयों पर सत्तापक्ष व विपक्ष चर्चा करते हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने संसदीय व्यवस्था को संविधान का आधारिक ढाँचा बताया था। लेकिन काफी लम्बे समय से विधायी सदनों में गतिरोध है। विपक्ष के कुछ सांसद विधायक विचार स्वातंत्र्य को हंगामा स्वातंत्र्य मानते हैं। वे तख्ती लेकर हुल्लड़ मचाने और व्यवधान को भी संसदीय कार्यवाही का अंग मानते हैं। राष्ट्रीय चुनौतियों और जनहित के मूलभूत प्रश्नों पर चर्चा कम होती है। सदन वाद-विवाद संवाद के पवित्र स्थलहैं। सदनों की कार्यवाही से ही सरकार की जवाबदेही सुनिश्चित होती है, लेकिन पीछे काफी समय से सदन में बाधा डालने, नियमावली को तार-तार करने का चलन बढ़ा है। संसद के ताजे सत्र में लगातार बाधाएँ रही हैं। संसदीय व्यवस्था के प्रति निराशा है।

सदनों के व्यवधान तात्कालिक बहसों की उपज नहीं है। व्यवधान सोची समझी रणनीति के ही परिणाम हैं। सुनियोजित व्यवधानों से गतिरोध रहता है। तमाम माननीय सदस्य पोस्टर प्लेकार्ड लाते हैं। वे नारेबाजी और हुल्लड़ करते हैं। अध्यक्ष/सभापति की कोई बात नहीं सुनते। सदनों की कार्यवाही में अध्यक्ष या सभापति का निर्णय अंतिम होता है। उनके विनिश्चय को चुनौती नहीं दी जा सकती। लेकिन व्यवधान पैदा करने वाले
सदस्यों के विरूद्ध अध्यक्ष द्वारा की गई कार्रवाई या निलम्बन की निंदा भी होती है। पीठासीन अधिकारी इसे अंतिम विकल्प के रूप में इस्तेमाल करते हैं। प्रधानमंत्री राजीव गांधी के समय सरकारी प्रस्ताव के माध्यम से 63 सदस्यों का निलम्बन हुआ था। तब कांग्रेस ने निलम्बन की निंदा नहीं की। 2014 में भी 16 सांसदों का निलम्बन हुआ था। आक्रामक व्यवधान के वातावरण में सदन संसद में व्यवस्था बनाना कठिन होता है। वेल में आना अध्यक्ष पीठ को घेरना, मंत्रिगणों से कागज छीनना पराक्रम हो गया है। ऐसे कृत्य लोकतंत्र के विरूद्ध अपराध हैं। व्यवधानकर्त्ताओं को दण्डित करने के लिए 2001 में लोकसभा की नियमावली में नया प्राविधान जोड़ा गया था। इस व्यवस्था के अनुसार अध्य क्षीय आसन के सामने शोर करने वाले सदस्य अध्यक्ष द्वारा नाम लेते ही स्वतः निलम्बित हो जाते हैं। मगर इसका उपयोग प्रायः नहीं होता।

संसदीय व्यवहार का पराभव खतरे की घंटी है। सदन हंगामे के स्थल हो रहे हैं। भारत के लोग अपने निर्वाचित प्रतिनिधियों को शोर मचाते देखकर आहत हैं। वे निराश हो रहे हैं। दुनिया के अनेक देशों ने अपनी संसदीय व्यवस्था का सतत् विकास किया। भारत में वैदिक काल में ही सभा समितियां थी। भारत ने ब्रिटिश संसदीय परंपरा अपनाई है। आश्चर्यजनक है कि ब्रिटिश संसदीय परंपरा का विकास कठोर राजतंत्र की व्यवस्था में हुआ। प्राचीन ब्रिटेन में संसदीय व्यवस्था के सूत्र नहीं थे बावजूद इसके उन्होंने विश्वप्रतिष्ठ संसदीय व्यवस्था का विकास किया। इसके विपरीत प्राचीन भारत के वैदिक काल में भी संसदीय प्रणाली की संस्थाएं थीं। ऋग्वेद में सभा समितियों का उल्लेख है। अथर्ववेद में सभा समितियों के विकास की कथा है। उत्तर वैदिक काल के प्रतिष्ठित ग्रंथ ऐतरेय ब्राह्मण में भी गणतंत्र के उल्लेख हैं। कौटिल्य के अर्थशास्त्र व पाणिनि की अष्टाध्यायी, महाभारत में गणतंत्रों के विवरण हैं। महाभारत में भीष्म से प्रश्न है कि गण क्यों टूटते बिखरते हैं? भीष्म का उत्तर है कि जल्दी जल्दी बैठक न करने से गण टूट जाते हैं। आधुनिक संसदीय व्यवस्था पर यही बात लागू है। संसद और विधानमण्डल जल्दी जल्दी बैठके नहीं करते। भारत की संविधान सभा की कार्यवाही 165दिन चली थी। 17 सत्र हुए थे। बहसे तीखी थी लेकिन व्यवधान नहीं थे। पहली दफा 1952 में प्रिवेंटिव डिटेंशन संशोधन विधेयक पर व्यवधान हुआ था। 1963 में आफीशियल लैंगुएज विधेयक पर भी तनातनी थी पर ऐसे व्यवधान अपवाद थे। 1968 तक व्यवधान नहीं थे। लेकिन अब संसद पर व्यवधान की काली छाया रहती है। अब व्यवधान ज्यादा हैं और बहसे कम।

संसद और विधानसभा की सदन संचालन की सुस्पष्ट नियमावली है। सदस्यों के विशेषधिकार हैं। विचार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है। सदनों की कार्यवाही के दौरान व्यक्त विचार को लेकर सदस्य के विरूद्ध न्यायायिक कार्यवाही नहीं हो सकती। आखिरकार सदन की कार्यवाही के मुख्य घटक क्या हैं? कुछ समय पहले राहुल गांधी ने सदन में आंख मारने का विचित्र कौशल दिखाया था। आंख मारना संसदीय अभिव्यक्ति नहीं है। लोकसभा नियमावली में संसदीय दीर्घा का संज्ञान लेने पर रोक है। राहुल जी ने दर्शक दीर्घा में बैठे युवकों का ध्यान आकर्षित किया था। कागज छीनने फाड़ने की घटनाएं ताजी है। मूलभूत प्रश्न है कि क्या ऐसे कृत्य भी सदन के विशेषाधिकार हैं। बहसों की गुणवत्ता घटी है। सदनों का व्यवधान राष्टंीय चिंता है।

आमजन विधायक सांसद से तमाम अपेक्षाएं रखते हैं। सामाजिक व आर्थिक परिवर्तन की उम्मीदें संजोते हैं। अधिकांश जनप्रतिनिधि संसदीय मर्यादा का पालन भी करते हैं। एक अल्पसमूह सदन के अधिकार व गुणवत्ता प्रवाह में बाधा डालता है। अटल बिहारी वाजपेयी ने ठीक कहा था कि लोकतंत्र 51 और 49 का खेल नहीं होता।” मैंने स्वयं अपने लम्बे विधायक जीवन में एक छोटी अल्पसंख्या द्वारा ही सदन को बाधित करते देखा है। यह सब उस देश के सदनों में हो रहा है, जहां प्राचीन काल में ही सभा समिति में बोलने की आदर्श मर्यादाएं थीं। ऋग्वेद 1⁄46.28.61⁄2 में सचेतक निदेश हैं – “हम वाणी भद्र करें, सभा में भद्र ही बोले – भद्र वाचो, उच्यते सभासु। ऋषि 1⁄4ऋ0 124.31⁄2 कहते हैं कि – “सभा में सभ्य जाते हैं।” अथर्ववेद 1⁄48.101⁄2 के ऋषि सैकड़ों वर्ष पहले ही आधुनिककाल के हाब्स, लाक जैसी सामाजिक स्थिति का वर्णन करते हैं – “नियमविहीनता से उत्क्रान्ति हुई। फिर परिवार का विकास हुआ। फिर ‘आह्वान’ से जनसमूह बने। फिर दक्षता से दक्षिणाग्नि या सुयोग्यों का मार्गदर्शन मिला और फिर सभा समिति का विकास हुआ। जो यह बाते जानते मानते हैं वे सभा में सभ्य हैं।” स्तुति है – ‘सभ्य सभां में पाहि ये च
सभ्याः सभासद।’

भारत की विश्व प्रतिष्ठा बढ़ी है। लेकिन संसद और विधानमण्डलों का काम उत्पादक नहीं है। सदनों की बैठके घटी हैं। काम के घंटे घटे हैं। बैठके घट रही हैं। सदनों में व्यवधान और अव्यवस्था से निबटने के लिए पीठासीन अधिकारियों/अध्यक्षो/सभापतियों के तमाम सम्मेलन हुए। तमाम प्रस्ताव भी पारित हुए। परिणाम शून्य हैं। निराशा बढ़ी है। संसद ही अपनी प्रक्रिया की विधाता है। संसदीय व्यवस्था से जुड़े महानुभावों को गहन आत्मचिंतन करना चाहिए। संसद और विधानमण्डलों में कम से कम 5 दिन बहस की गुणवत्ता पर ही बहस होनी चाहिए। आशंका
हो सकती है कि ऐसे विशेष अधिवेशन भी हंगामे की भेंट चढ़ सकते हैं। लेकिन संभव यह भी है कि आत्मचिंतन से कुछ न कुछ सुधार तो होगा ही।