

इंटरनेट, कंप्यूटर, लैपटॉप, सोशल नेटवर्किंग साइट्स और एंड्रॉयड मोबाइल के बढ़ते चलन ने देश में डिजिटल क्रांति को जन्म दिया है। देश की आम जनता आज डिजिटल क्रांति का जमकर लुत्फ उठा रही है। आज आम आदमी द्वारा इंटरनेट का उपयोग किया जा रहा है और जमकर रील्स पर रील्स बनाई जा रही हैं। वास्तव में आज रील्स का उपयोग मुख्य रूप से देश के युवाओं द्वारा रचनात्मक और विशेष रूप से मनोरंजक सामग्री के लिए किया जा रहा है, और वे समाज में प्रचलित व्यापक सांस्कृतिक मानदंडों और सामाजिक रुझानों, समाज में घटने वाली घटनाओं आदि को प्रतिबिंबित करते हैं। कहना ग़लत नहीं होगा कि आज के संचार क्रांति/डिजिटल क्रांति के इस युग में रील्स समाज के दर्पण के रूप में साबित हो रहीं हैं। आज जो समाज में घटित हो रहा है, रील्स के माध्यम से आम आदमी, इस समाज , इस देश के समक्ष आ रहा है। आखिर क्यों मजबूत हो रहीं हैं सांस्कृतिक प्रदूषण की जड़ें..?
आज हमारे देश के युवा फेसबुक और इंस्टाग्राम रील्स के डिजिटल कंटेंट के निर्माण कर रहे हैं, यह ठीक है कि आज वे इनका उपयोग करके विभिन्न सामाजिक कारणों के लिए खड़े हो रहे हैं, अपनी रचनात्मकता(क्रिएटिविटी) आमजन को दिखा रहे हैं और लोगों का भरपूर मनोरंजन भी कर रहे हैं। वास्तव में यह विभिन्न पृष्ठभूमि के लोगों को अपनी आवाज़ उठाने के अवसर भी प्रदान कर रहा है, लेकिन आज फेसबुक, इंस्टाग्राम, यू-ट्यूब पर ऐसे ऐसे विडियोज, कंटेंट/सामग्री प्रस्तुत की जा रही है, जिससे हमारे देश की सनातन संस्कृति, हमारे संस्कारों, हमारे नैतिक मूल्यों, आदर्शों, विभिन्न सामाजिक प्रतिमानों पर व्यापक और विपरीत असर पड़ रहा है। डिजिटल क्रांति का आज दुरूपयोग किया जा रहा है और यह देखने में आया है कि आज बहुत से लोग नेम एंड फेम,पैसा कमाने के चक्कर में इन डिजिटल माध्यमों पर सांस्कृतिक प्रदूषण फैला रहे हैं। कहना ग़लत नहीं होगा कि सांस्कृतिक प्रदूषण को सामाजिक सीमा उल्लंघनों की प्रतिक्रिया के रूप में वर्णित किया गया है। यहां यह उल्लेखनीय है कि सांस्कृतिक प्रदूषण मानव समाज में सबसे अधिक विनाशकारी है, क्योंकि यह हमारी अच्छी जीवनशैली से खराब जीवनशैली में बदलाव के परिणामस्वरूप होता है। वास्तव में, सांस्कृतिक प्रदूषण एक ऐसी समस्या है जो हमारे समाज के सामाजिक और सांस्कृतिक ढांचे को प्रभावित करती है।
आज हमारी युवा पीढ़ी पाश्चात्य सभ्यता-संस्कृति का लगातार अनुशरण कर रही है और भारतीय संस्कृति-संस्कारों को युवा पीढ़ी ने भुला सा दिया है। सच तो यह है कि आजकल युवा पीढ़ी के मन में भारतीय विद्वानों का उतना आदर नहीं है, जितना बाहरी विद्वानों का। यह विडम्बना ही है कि जब विवेकानंद को अमेरिका में मान्यता मिली, उसके बाद ही भारत के इस व्यक्ति के प्रति लोगों का आदर बढ़ा। सच तो यह है कि आज भारतीय समाज का परिदृश्य पहले की तुलना में पूरी तरह बदल चुका है। भारत की युवा पीढ़ी पश्चिमी सभ्यता(रहन-सहन, खान-पान, सैलून, फैशन, आधुनिक मोबाइल-टीवी संस्कृति व पब संस्कृति)का अंधाधुंध अनुकरण करने में कोई चूक नहीं कर रही है। आज भारतीय युवा पीढ़ी विदेशी फैशन, आधुनिक सूटेड-बूटेड संस्कृति, विदेशी संगीत सुनना, विदेशी भोजन, विदेशी वाहन जैसे युवाओं के प्राइड का प्रतीक बन गए हैं। भारतीय सनातन संस्कृति का सादा जीवन, उच्च विचार आज की युवा पीढ़ी को जैसे रास नहीं आ रहा है। यह ठीक है कि समय के साथ चलना आज की आवश्यकता हो गया है लेकिन आखिर किस हद तक ? क्या हम हमारी सनातन संस्कृति, परंपराओं, हमारी नैतिकता, हमारे आदर्शों और संस्कारों को भुला दें ? वास्तव में,पश्चिमी सभ्यता-संस्कृति की अच्छाइयों का अनुकरण करने में कोई बुराई नहीं है, लेकिन अनुकरण के नाम पर हम अपनी संस्कृति को आखिर कैसे और क्योंकर भुला सकते हैं ?
आज पश्चिमी देशों की नकल करके हम लोग फूहड़ और लज्जाहीन होते चले जा रहे हैं। भारतीय सनातन संस्कृति में शालीनता को स्थान दिया गया है, संस्कारों को, नैतिकता को, अनुशासन को, सादा जीवन उच्च विचार को स्थान दिया गया है। आज पाश्चात्य संस्कृति को आत्मसात करके हम अपने रीति-रिवाजों और श्रेष्ठ परम्पराओं को लगातार नष्ट करते जा रहे हैं। शायद यही कारण है कि आज हमारे समाज में अपराध, अशिष्टता, अश्लीलता, पारिवारिक विघटन आदि उत्पन्न हो रहे हैं। हमारी युवा पीढ़ी को यह बात अपने जेहन में रखनी चाहिए कि हमारी भारतीय संस्कृति दुनिया की सबसे पुरानी और समृद्ध संस्कृतियों में से एक है और हमारे रीति-रिवाज, हमारी परंपराएं, हमारी कला, वास्तुकला, अनुष्ठान, हमारे देश की अनेकता में एकता, हमारे देश का सांस्कृतिक इतिहास बहुत ही पुराना है। आज पाश्चात्य संस्कृति के प्रभाव से हमारे गांव शहरों में बदल रहे हैं,पाश्चात्य संस्कृति के परिणामस्वरूप जाति, संयुक्त परिवार, विवाह और अन्य सामाजिक संरचनाएं भी कहीं न कहीं प्रभावित हुईं हैं। पाश्चात्य सभ्यता-संस्कृति के कारण आज अंग्रेजी शिक्षा का प्रभाव बढ़ा है। हमारी पोशाक और खान-पान की आदतों में आज व्यापक परिवर्तन आए हैं। आज हमारे रीति-रिवाजों, परंपराओं, संस्कारों आदि में बहुत गिरावट आई है। धन और संपदा यानी कि आज के समय पदार्थवादी दृष्टिकोण जन्म ले चुका है।
डैडी, मम्मी, हाय-हैलो, बाय-बाय, टाटा संस्कृति,केक काटना जैसी संस्कृति जन्म ले चुकी है, अंग्रेजी का प्रयोग लगातार बढ़ रहा है, हमारी मातृभाषा को हम भुलाते चले जा रहे हैं। हम अंग्रेजी में खुद को आज बहुत सहज लेकिन अपनी मातृभाषा में खुद को असहज महसूस करने लगे हैं। समय के साथ, हमारी भारतीय संस्कृति में जन्मदिन या किसी खुशी के अवसर पर जो दीया(दीपक) जलाने की भारतीय परंपरा थी, आज शनै:शनै: न जाने कहां खो गई है ? आज हमारी युवा पीढ़ी पर पाश्चात्य नृत्य-संगीत हावी है और मोमबत्ती की रौशनी बुझाने की पश्चिमी परंपरा में हम स्वयं को कहीं अधिक आनंदित व खुशनसीब महसूस करते हैं। शराब पीना, जुआ खेलना, मांस खाना आज जैसे फैशन हो गया है। कहना ग़लत नहीं होगा कि हमारे सामाजिक परिवेश में, हमारे विभिन्न क्षेत्रों में, हमारे देश में आज सांस्कृतिक प्रदूषण की दर लगातार बढ़ रही है। पिछले कुछ दशकों के दौरान व्यक्तिगत रुचि, हमारी भाषा, हमारे व्यवहार, हमारे पहनावे और तौर-तरीके सभी बेहद खराब हो गए हैं। आज हम पाश्चात्य संस्कृति का अनुसरण करके अश्लीलता और असभ्यता की संस्कृति में डूबते चले जा रहे हैं और हम पर टीवी, मोबाइल,पब संस्कृति, पदार्थवादी दृष्टिकोण का गहरा प्रभाव है। पाश्चात्य सभ्यता-संस्कृति के फूहड़पन, अश्लीलता, खुलेपन ने कहीं न कहीं हमारी सनातन संस्कृति की नींव को कमजोर किया है और इसके विभिन्न संस्थानों को नुकसान पहुंचाया है।
आज रील्स बनाकर अश्लीलता फैलाई जा रही है। सोशल मीडिया पर रील्स वायरल करने के चक्कर में ऐसी-ऐसी रील्स बनाई जा रही हैं कि उन्हें घर-परिवार के साथ बैठकर नहीं देखा जा सकता है। बालीवुड,हालीवुड में ऐसा फिल्मों में भी जमकर हो रहा है। युवा पीढ़ी में रील्स बनाने का उन्हें वायरल करने का जैसा बुखार सा चढ़ा है। सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर आज विशेषकर इंस्टाग्राम, यू-ट्यूब पर अश्लीलता की सारी हदें पार की जा रही हैं। सड़कों, गली-गली, मोहल्ले-मोहल्ले,माल्स और बाजार जहां जी चाहे, वहीं अश्लीलता परोसी जा रही है। सच तो यह है कि आज मनुष्य अपने जीवन यापन के लिए अनेक अनैतिक एवं असामाजिक कार्यों की ओर लगातार अग्रसर होता चला जा रहा है। न कहीं नैतिकता बची है और न ही अनुशासन।
आज हमारा देश पाश्चात्यता एवं आधुनिकीकरण के ऐसे कुचक्र में फंस गया कि उसका परिणाम सांस्कृतिक प्रदूषण के रूप में लगातार दृष्टिगत हो रहा है। उसकी जड़े इतनी पनप गई कि मनुष्य उस बुराई से दूर नहीं जा पा रहा है। बहरहाल, वास्तव में यहां यह कहना ग़लत नहीं होगा कि जब भारत के लोगों को यह महसूस हुआ कि वे पश्चिमी सभ्यता के लोगों की तुलना में आर्थिक और औद्योगिक रूप से कहीं अधिक पिछड़े हुए हैं, तो भारतीयों ने पश्चिमी सभ्यता की अच्छाइयों के साथ-साथ उनकी अनेक बुराइयों को भी अपना लिया। पश्चिमी सभ्यता के लोगों द्वारा अपनाई जाने वाली प्रत्येक रीति-रिवाज को आंख मूंदकर अपनाया जाने लगा और भारतीय अपनी संस्कृति को भुला बैठे। बहरहाल, कहना ग़लत नहीं होगा कि आज हम अध्यात्म के मार्ग से लगातार विमुख होकर पदार्थ की ओर अग्रसर हो रहे हैं।
अतः हमें यह चाहिए कि हम समय रहते हमारी युवा पीढ़ी में अपनी संस्कृति और अपने इतिहास के प्रति सम्मान की भावना विकसित करें, तभी इस देश को सांस्कृतिक प्रदूषण के दुष्प्रभावों से बचाया जा सकता है। वास्तव में हमारी युवा पीढ़ी इस समाज और इस देश की भावी कर्णधार है अतः उन्हें इस बात का पूर्ण अहसास दिलाना आवश्यक है कि संस्कृति किसी भी देश की असली निधि व धरोहर होती है। संस्कृति से व्यक्ति और व्यक्ति से समाज, और समाज से राष्ट्र की पहचान होती है। हमें विश्व इतिहास में अपनी संस्कृति की अमूल्य, अनुपम, विशिष्ट एवं अमिट छाप छोड़नी है। इसके लिए हमें सतत् प्रयासों से अपने राष्ट्र की छवि को एक नया रूप देना होगा। अंत में यही कहूंगा कि हमारा देश सांस्कृतिक प्रदूषण के हानिकारक प्रभावों और परिणामों से वास्तव में तभी बच सकता है जब हमारी अगली पीढ़ी अपने अतीत और अपनी सनातन संस्कृति के प्रति सराहना की भावना विकसित करने के प्रति कृतसंकल्पित हों और शिक्षा और शिक्षक सांस्कृतिक प्रदूषण को रोकने में बहुत ही अहम् और मददगार साबित हो सकते हैं। आखिर क्यों मजबूत हो रहीं हैं सांस्कृतिक प्रदूषण की जड़ें..?