प्रतापगढ़, जिला कृषि रक्षा अधिकारी डा0 अश्विनी कुमार सिंह ने किसान भाईयों को अवगत कराया है कि वर्तमान समय में धान की फसल अपनी वानस्पतिक अवस्था में चल रही है। धान की फसल में जड़ की सूड़ी एवं तना बेधक कीट से अपनी फसल को बचायें। उन्होने बताया है कि जड़ की सूड़ी ;रूट बीबिलद्ध कीट जिस क्षेत्र में जल का अधिक भराव रहता है वहीं पर इस कीट का अधिक प्रकोप होता है। जड़ की सूड़ी कीट चावल के आकार की होती है जो पौधों के जड़ों में पायी जाती हैए ये कीट जड़ों के तथा मुख्य तने के रसों को चूसकर पौधों को सुखा देती है जिसके कारण पौधे मृतप्राय हो जाते है। इसके उपचार हेतु पानी का निकास करें एवं कार्वोफ्यूरान 3 जी0 18.20 किग्रा0 प्रति हेक्टे0 अथवा क्लोरोपायरीफास 2ण्500.3ण्000 ली0 प्रति हेक्टे0 एवं कारटाप हाइड्रोक्लोराइड 4 प्रति0 दानेदार रसायन 17.18 किग्रा0 प्रति हेक्टेयर की दर से प्रयोग करें। तना बेधक कीट की सूड़ियां हानिकारक होती है।
उत्तराँचल के पर्वतीय क्षेत्रों में धान की खेती असिंचित व सिंचित दोनों परिस्थितियों में की जाती है. धान की विभिन्न उन्नतशील प्रजातियाँ जो कि अधिक उपज देती हैं उनका प्रचलन पर्वतीय क्षेत्रों में भी धीरे-धीरे बढ़ रहा है. परन्तु मुख्य समस्या कीट ब्याधियों की है, यदि समय रहते इनकी रोकथाम कर ली जाये तो अधिकतम उत्पादन के लक्ष्य को प्राप्त किया जा सकता है.
मुख्य समस्याएँ——
धान की फसल को विभिन्न क्षतिकर कीटों जैसे तना छेदक, गुलाबी तना छेदक, पत्ती लपेटक, धान का फूदका व गंधीबग द्वारा नुकसान पहुँचाया जाता है तथा बिमारियों में जैसे धान का झोंका, भूरा धब्बा, शीथ ब्लाइट, आभासी कंड व जिंक कि कमी आदि की समस्या प्रमुख है.
धान का तना छेदक: इस कीट की सूड़ी अवस्था ही क्षतिकर होती है. सर्व प्रथम अंडे से निकलने के बाद सूड़ियॉ मध्य कलिकाओं की पत्तियों में छेदकर अन्दर घुस जाती है तथा अन्दर ही अन्दर तने को खाती हुई गांठ तक चली जाती हैं. पौधों की बढ़वार की अवस्था में प्रकोप होने पर बालियाँ नहीं निकलती है. बाली वाली अवस्था में प्रकोप होने पर बालियाँ सूखकर सफ़ेद हो जाती हैं तथा दाने नहीं बनते हैं.
कीट प्रबंध—-
फसल की कटाई जमीन की सतह से करनी चाहिए तथा ठूठों को एकत्रित कर जला देना चाहिए.
- जिंक सल्फेट+ बुझा हुआ चूना (१०० ग्राम+ ५० ग्राम) प्रति नाली की दर से १५-२० ली. पानी में घोल बनाकर छिड़काव करें. बुझा हुआ चूना न होने पर २.० प्रतिशत (२० ग्राम) यूरिया के घोल में जिंक सल्फेट की १०० ग्राम मात्रा को प्रति नाली की दर से छिड़काव करें.
- पौध रोपाई के समय पौधों के उपरी भाग की पत्तियों को थोड़ा सा काटकर रोपाई करें, जिससे अंडे नष्ट हो जाते हैं.
- अंड परजीवी- ट्राईकोकार्ड (ट्राईकोग्रमा जोपेनिकम) २००० अंडे/ नाली, कीट का प्रकोप शुरु होने पर लगभग ६ बार प्रयोग करना चाहिए. अथवा फीरामोन्स ट्रैप का प्रयोग ५०० वर्ग मी. क्षेत्र में (२.५ नाली) एक ट्रेप की दर से करना चाहिए. १५- २० दिन के अन्तराल पर ल्योर को बदलते रहना चाहिए.
- ५ प्रतिशत सूखी बालियाँ दिखायी देने पर कारटाप हाइड्रो- क्लरोराइड ४ प्रतिशत दानेदार दवा जो की बाजार में केल्डान ४ जी अथवा पडान ४ जी के नाम से आता है की ४०० ग्राम/नाली की दर से प्रयोग करें.
गुलाबी तना बेधक: यह मुख्यतया झंगोरा, मडुवा, कौणी की फसल को क्षति पहुंचाता है. परन्तु पर्वतीय क्षेत्रों में असिंचित धान में इस कीट का प्रकोप धान के तना बेधक की अपेक्षा अधिक पाया गया है. इस कीट के बचाव हेतु उपरोक्त में तना बेधक कीट के बचाव हेतु बताये गए उपायों को अपनायें.
धान का पत्ती लपेटक कीट: मादा कीट धान की पत्तियों के शिराओं के पास समूह में अंडे देती हैं. इन अण्डों से ६-८ दिन में सूड़ियां बहार निकलती है. ये सूड़ियां पहले मुलायम पत्तियों को खाती हैं तथा बाद में अपने लार द्वारा रेशमी धागा बनाकर पत्ती को किनारों से मोड़ देती है और अन्दर ही अन्दर खुरच कर खाती है. इस कीट का प्रकोप अगस्त-सितम्बर माह में अधिक होता है. प्रभावित खेत में धान की पत्तियां सफ़ेद एवं झुलसी हुई दिखायी देती हैं.
धान की गंधीबग: वयस्क लम्बा, पतले व् हरे-भूरे रंग का उड़ने वाला कीट होता है. इस कीट की पहचान किसान भाई कीट से आने वाली दुर्गन्ध से भी कर सकते हैं. इसके व्यस्क एवं शिशु दूधिया दानों को चूसकर हानि पहुंचाते हैं जिससे दानों पर भूरे रंग के धब्बे बन जाते हैं तथा दाने खोखले रह जाते हैं.
यदि कीट की संख्या १ या १ से अधिक प्रति पौध दिखायी दे तो मालाथियान ५ प्रतिशत विष धूल की ५००-६०० ग्राम मात्रा प्रति नाली की दर से बुरकाव करें. खेत के मेड़ों पर उगे घासों की सफाई करें क्योंकि इन्ही खरपतवारों पर ये कीट पनपते रहते हैं तथा दुग्धा अवस्था में फसल पर आक्रमण करते हैं.
- प्रकाश प्रपंच का प्रयोग करें.
- अंड परजीवी ट्राईकोग्रमा जोपेनिकम का प्रयोग करें.
- १० प्रतिशत पत्तियां क्षतिग्रस्त होने पर केल्डान ५० प्रतिशत घुलनशील धूल का २.० ग्राम/ली. पानी की दर से घोल बनाकर छिड़काव करें.
कुरमुला कीट: असिंचित धान में कुरमुला कीट का प्रकोप पर्वतीय क्षेत्रों में जुलाई- अगस्त माह में अधिक दिखायी देता है. सिंचित धान में इस कीट का प्रकोप नहीं होता है. प्रथम अवस्था वाले ग्रब जून-जुलाई माह में पौधों की जड़ों को खाना शुरू कर देतें है. ये ग्रब अगस्त-सितम्बर तक द्वितीय एवं तृतीय अवस्था में आ जाते हैं तथा जड़ों को पूरी तरह काटकर खा जाते हैं, जिससे पौधे मुरझा कर पीले पड़ जाते हैं तथा बाद में सूख जाते हैं. क्षतिग्रस्त पौधों को हाथ से पकड़कर खींचने पर पौधे जमीन से उखड़ जाते हैं. इस कीट द्वारा धान की फसल को लगभग २०-८० प्रतिशत तक क्षति हो जाती है.
- खेतों में सड़ी गोबर की खाद का प्रयोग करें.
- फसल काटने के बाद खेत की गहरी जुताई करें जिससे ग्रब मृदा के बाहर आ जातें हैं तथा शिकारी चिड़ियों द्वारा इनका शिकार कर लिया जाता है.
- मई-जून माह से ही प्रकाश प्रपंच का प्रयोग करें. व्यसक भृंग उस पर आकर्षित होते हैं जिनको पकड़ कर आसानी से नष्ट किया जा सकता है.
- खड़ी धान की फसल में इस कीट के प्रकोप से बचने के लिए क्लोरपाइरिफॉस २० इ.सी. नामक कीटनाशी रसायन की ८० मि. ली. मात्रा को एक किग्रा. सूखा बालू/ राख में मिलाकर मृदा के उप्पर बुरकाव करें. बुरकाव करते समय खेत में पर्याप्त नमी का होना आवश्यक है.
प्रमुख रोगों से बचाव: झोंका (ब्लास्ट) रोग: असिंचित धान में इस रोग का प्रकोप बहुत अधिक होता है. इस रोग का प्रकोप होने पर पत्तियों, गाठों, बालियों पर आँख की आकृति के धब्बे बनते हैं जो बीच में राख के रंग के तथा किनारे गहरे भूरे रंग के होते हैं. तनों की गाठ पूर्णतया या उसका कुछ भाग काला पड़ जाता है और वह सिकुड़ जाता है, जिससे पौधा सिकुड़ कर गिर जाता है. इस रोग का प्रकोप जुलाई- सितम्बर माह में अधिक होता है.
रोग प्रबंध—–
- इस रोग के रोकथाम के लिए बुआई से पूर्व बीज को ट्राईसाइक्लेजोल २.० ग्राम प्रति किग्रा. बीज की दर से उपचारित करें. तथा दौजियाँ निकलने और पुष्पन की अवस्था में जरुरत पड़ने पर कार्बेन्डाजिम (०.१ प्रतिशत) का छिडकाव करें.
- झोंका अवरोधी प्रजातियाँ जैसे वी. एल. धान-२०६, मझेरा-७ (चेतकी धान), वी. एल. धान-१६३, वी.एल. धान- २२१ (जेठी धान) इसके अतिरिक्त वी.एल. धान-६१ (सिंचित क्षेत्रों के लिए मध्य कालीन बुआई हेतु) आदि की बुवाई करें.
- रोग के लक्षण दिखायी देने पर १०-१२ दिन के अन्तराल पर या बाली निकलते समय दो बार आवश्यकतानुसार कार्बेन्डाजिम ५० प्रतिशत घुलनशील धूल की १५-२० ग्राम मात्रा को लगभग १५ ली. पानी में घोल बनाकर प्रति नाली की दर से छिडकाव करें.
भूरी चित्ती रोग: इस रोग के लक्षण मुख्यतया पत्तियों पर तथा पर्णच्छदों पर छोटे- छोटे भूरे रंग के धब्बे के रूप में दिखायी देतें है. उग्र संक्रमण होने पर ये धब्बे आपस में मिल कर पत्तियों को सूखा देते हैं और बालियाँ पूर्ण रूप से बाहर नहीं निकलती हैं. इस रोग का प्रकोप उपराउ धान में कम उर्वरता वाले क्षेत्रों में अधिक दिखायी देता है.
- संतुलित मात्रा में नत्रजन, फास्फोरस व पोटाश का प्रयोग करें.
- बीज को थीरम २.५ ग्राम/किग्रा.बीज की दर से उपचारित करके बुवाई करें.
- जुलाई माह में रोग के लक्षण दिखायी देने पर मैकोजेब (०.२५ प्रतिशत) का छिड़काव करें.
पर्णच्छद अंगमारी (शीथ ब्लाइट): इस रोग के लक्षण मुख्यत: पत्तियों एवं पर्णच्छदों पर दिखायी देतें है. पर्णच्छद पर पत्ती की सतह के ऊपर २-३ से.मी. लम्बे हरे-भूरे या पुआल के रंग के क्षत स्थल बन जाते हैं.
- फसल काटने के बाद अवशेषों को जला दें.
- खेतों में अधिक जलभराव नहीं होना चाहिए.
- रोग के लक्षण दिखायी देने पर प्रोपेकोनेजोल २०.० मिली. मात्रा को १५-२० ली. पानी में घोल बनाकर प्रति नाली की दर से छिड़काव करें.
आभासी कंड: यह एक फॅफूंदीजनित रोग है. रोग के लक्षण पौधों में बालियों के निकलने के बाद ही स्पष्ट होतें है. रोग ग्रस्त दाने पीले से लेकर संतरे के रंग के हो जाते हैं जो बाद में जैतूनी- काले रंग के गोलों में बदल जाते हैं. इस रोग का प्रकोप अगस्त- सितम्बर माह में अधिक दिखायी देता है.
- जिंक सल्फेट+ बुझा हुआ चूना (१०० ग्राम+ ५० ग्राम) प्रति नाली की दर से १५-२० ली. पानमें घोल बनाकर छिड़काव करें. बुझा हुआ चूना न होने पर २.० प्रतिशत (२० ग्राम) यूरिया के घोल में जिंक सल्फेट की १०० ग्राम मात्रा को प्रति नाली की दर से छिड़काव करें.
पूर्ण विकसित सूड़ी हल्के पीले शरीर वाली तथा नारंगी पीले सिर वाली होती है। इसके आक्रमण के फलस्वरूप फसल की वानस्पतिक अवस्था में मृत गोभ तथा बाद में प्रकोप होने पर सफेद बाली बनती है। इसके उपचार हेतु किसान भाई 5 प्रतिशत मृत गोभ अथवा एक अण्डे का झुण्ड वानस्पतिक अवस्था में तथा एक पतंगाध्वर्ग मीटर बाल निकलने की अवस्था में दिखाई पड़ने पर कारटाप हाइड्रोक्लोराइड 4 प्रति0 दानेदार रसायन के 17.18 किग्रा0 प्रति हेक्टे0 की दर से प्रयोग लाभकारी है जो एक सुरक्षित रसायन भी है अथवा 1ण्500 ली0 नीम आयल प्रति हेक्टे0 की दर से 800ण्000 ली0 पानी में घोलकर छिड़काव करें।
- फसल कटाई से पूर्व ग्रसित पौधों को सावधानी से काट कर अलग कर लें तथा जला दें.
- जिन क्षेत्रों में यह रोग अक्सर लगता है उन क्षेत्रों में पुष्पन के दौरान कवकनाशी रसायन जैसे कापर आक्सीक्लोराइड-५० घुलनशील पाउडर का (०.३ प्रतिशत) छिड़काव करें.
खैरा रोग: यह रोग मिट्टी में जिंक की कमी के कारण होता है. इस रोग के लक्षण पत्तियों पर पहले हल्के रंग के धब्बे जो बाद में कत्थई रंग के हो जाते हैं के रूप में दिखायी देतें है.