क्या डॉलर के दम पर चीन जैसे भस्मासुर से निबटेगा अमेरिका..? क्योंकि चीन दुनिया का सबसे शक्तिशाली देश बनना चाहता है और वे ऐसा हमारी कीमत पर करना चाहते हैं। इससे निपटना होगा। बता दें कि चीन की वैश्विक रणनीति को लेकर अमेरिका अब सजग हो चुका है। क्या डॉलर के दम पर चीन से निबटेगा अमेरिका..?
कमलेश पांडेय
चीन दुनिया का सबसे शक्तिशाली देश बनना चाहता है और ऐसा वह उस अमेरिका की कीमत पर करना चाहता है जिसने उसके नवनिर्माण और समुत्थान में महती भूमिका निभाई है। हालांकि अमेरिका भी इसे भलीभांति समझ चुका है और समुपस्थित विभिन्न परिस्थितियों से निपटने के लिए रणनीतिक रूप से आगे बढ़ रहा है। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प और विदेश मंत्री मार्को रूबियो के डॉलर की चिंता और उसके लिए जिम्मेदार चीन सम्बन्धी हालिया बयानों पर जब आप गौर करेंगे तो यह समझ जाएंगे कि अमेरिका की चिंता सिर्फ डॉलर की गिरती साख को ही बचाने की नहीं है बल्कि वह सोवियत संघ की भांति ही अब चीन को भी निबटाने की रणनीति पर फोकस कर चुका है।
ऐसे में सुलगता सवाल यह है कि क्या अमेरिका सिर्फ डॉलर के दम पर चीन जैसे भस्मासुर से निबटेगा या फिर कुछ अन्य मौजूं उपाय भी करेगा। उल्लेखनीय है कि अंतर्राष्ट्रीय व्यापार में अमेरिकी डॉलर की जगह किसी और मुद्रा के इस्तेमाल की कवायद जिस तरह से चीन कर-करवा रहा है और इस नजरिए से ब्रिक्स देशों यानी रूस-ब्राजील आदि को ढाल बनाए हुए है, उससे अमेरिका भड़क चुका है और सम्बन्धित देशों को खुलेआम धमकियां देनी भी शुरू कर दी है। चीन के खिलाफ ताइवान का हथकंडा और दक्षिण चीन सागर विवाद को शह देने और रूस के खिलाफ यूक्रेन को भड़काते रहने और नाटो देशों से सहयोग दिलवाने के पीछे की व्यापक रणनीति भी तो इसी बात की चुगली करती है। वहीं, ब्रिक्स देशों की सम्भावित वैकल्पिक मुद्रा से डॉलर के समक्ष उतपन्न होने वालों खतरों के सम्भावित दुष्परिणामों के बारे में अमेरिका ने जिस तरह से आगाह करना शुरू कर दिया है, उससे भारत समेत कतिपय ब्रिक्स देश भी सकते में हैं, आशंकित हैं और अपने बचाव में तर्क भी दे चुके हैं।
गौरतलब है कि पिछले कुछ वर्षों में जब ब्रिक्स के कुछ सदस्य देश विशेष रूप से चीन-रूस अमेरिकी डॉलर का विकल्प या ब्रिक्स मुद्रा की मांग कर रहे हैं, तब भारत ‘डी-डॉलराइजेशन’ यानी ‘विश्व व्यापार और वित्तीय लेनदेन में डॉलर के उपयोग में कमी’ के खिलाफ है। दिसम्बर 2024 में ही भारत के विदेश मंत्री एस जयशंकर ने कहा था कि भारत कभी भी ‘डी-डॉलराइजेशन’ के पक्ष में नहीं रहा है व ब्रिक्स मुद्रा बनाने का कोई प्रस्ताव नहीं है।
बता दें कि अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने चेतावनी दी है कि अगर ब्रिक्स देश अंतर्राष्ट्रीय व्यापार में अमेरिकी डॉलर की जगह किसी और मुद्रा के इस्तेमाल का प्रयास करेंगे तो वह उन पर 100 प्रतिशत शुल्क लगा देंगे। उन्होंने दो टूक शब्दों में कहा कि ब्रिक्स देश डॉलर से दूर जाने की कोशिश करें और हम खड़े होकर बस देखते रहें, इस तरह के विचारों के दिन लद चुके हैं। लिहाजा, वह ब्रिक्स देशों से यह प्रतिबद्धता चाहते हैं कि वे न तो नई मुद्रा बनाएंगे और न ही किसी अन्य मुद्रा का समर्थन करेंगे।
अमेरिका के विदेश मंत्री मार्को रूबियो ने भी कहा है कि इस मसले पर चीन से हमें निबटना होगा। हालांकि उन्होंने स्पष्ट किया है कि हम इस मुद्दे पर युद्ध नहीं चाहते हैं, लेकिन हम इस पर गौर करने जा रहे हैं क्योंकि चीन दुनिया का सबसे शक्तिशाली देश बनना चाहता है और वे ऐसा हमारी कीमत पर करना चाहते हैं। इससे निपटना होगा। बता दें कि चीन की वैश्विक रणनीति को लेकर अमेरिका अब सजग हो चुका है और आर्कटिक व दक्षिण अमेरिका में चीनी गतिविधियों से उतपन्न खतरे को निर्मूल करने के लिए ही ग्रीनलैंड पर कब्जा करने, पनामा नहर पर पुनः नियंत्रण पाने और कनाडा को अमेरिका में मिलाने जैसी दूरदर्शिता भरी रणनीति का आगाज समय रहते ही कर चुका है, भले ही वह पहले जितना आसान नहीं हो।
जानकार बताते हैं कि रूस-चीन-ब्राजील जैसे ब्रिक्स देश अमेरिकी डॉलर और यूरो पर अपनी निर्भरता कम करना चाहते हैं। इसी नजरिए से साल 2022 में 14वें ब्रिक्स समिट के दौरान रूस के राष्ट्रपति ब्लादिमीर पुतिन ने कहा था कि सदस्य देश नई रिजर्व करेंसी शुरू करने की योजना बना रहे हैं। इसके अलावा, ब्राजील के राष्ट्रपति लूला डी सिल्वा ने भी डॉलर के दबदबे को कम करने के लिए ब्रिक्स करेंसी बनाने का सुझाव दिया था। क्योंकि आंकड़े बताते हैं कि वैश्विक मुद्रा भंडार के रूप में डॉलर का हिस्सा 59 प्रतिशत है, जबकि दुनिया के कुल कर्ज में 64 प्रतिशत का लेनदेन डॉलर में होता है। वहीं, अंतर्राष्ट्रीय लेनदेन में भी डॉलर की 58 प्रतिशत हिस्सेदारी है।
खास बात यह है कि यूरोपीय संघ बनने और उसकी मुद्रा यूरो के अस्तित्व में आने के बाद से डॉलर के दबदबे में कमी आई है, लेकिन अभी भी यह सबसे अधिक चलन वाली मुद्रा बनी हुई है। ऐसे में यदि ब्रिक्स देश भी कोई नई मुद्रा ले आते हैं तो इससे डॉलर का मूल्य घटेगा। शायद इसलिए अमेरिका अब चौकन्ना हो चुका है और इस नए सम्भावित संकट से निबटने के लिए साम-दाम-दंड-भेद की नीति अख्तियार कर लिया है। उसकी ताजा धमकियां इसी बात की चुगली कर रही हैं। ब्रिक्स देशों के बीच भारत के परिवर्तित स्टैंड से भी उसे राहत मिली है।
उल्लेखनीय है कि ब्रिक्स देश दुनिया के उन दस महत्वपूर्ण देशों का संगठन है, जो पश्चिमी देशों के जी-7 और नाटो जैसे दबंग देशों से समान प्रतिस्पर्धा करने के लिए खुद को एकजुट किये हुए हैं। वर्ष 2009 में स्थापित ब्रिक्स समूह में भारत, ब्राजील, रूस, चीन, दक्षिण अफ्रीका, मिश्र, इथियोपिया, इंडोनेशिया, ईरान और संयुक्त अरब अमीरात (यूएई) नामक देश शामिल हैं। चूंकि यह एक ऐसा अंतरराष्ट्रीय समूह है, जिसमें संयुक्त राज्य अमेरिका यानी यूएसए को शामिल नहीं किया गया है। इसी वजह से वह इस पर बिफरा रहता है।
बता दें कि ब्रिक्स के सदस्य देशों की अर्थव्यवस्था 25.5 ट्रिलियन से अधिक है जो वैश्विक अर्थव्य वस्था का 28 प्रतिशत है। विश्व बैंक के 2023 के आंकड़ों के मुताबिक, ब्रिक्स देशों की जीडीपी, ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर में इस प्रकार है- चीन- 17.79, भारत- 3.55, ब्राजील- 2.17, रूस- 2.02, यूएई- 0.5, मिश्र- 0.4, ईरान- 0.4, दक्षिण अफ्रीका- 0.37 और इथियोपिया- 0.16. वहीं, यूएन ट्रेड डाटाबेस के 2023 के आंकड़ों से पता चलता है कि ब्रिक्स देशों के साथ अमेरिका का व्यापार अरब यूएस डॉलर में इस प्रकार है- भारत से निर्यात- 40.1, आयात- 87.3, चीन से निर्यात- 147.8, आयात- 448, ब्राजील से निर्यात-44.8, आयात- 41, यूएई से निर्यात- 24, आयात- 00, इंडोनेशिया से निर्यात- 00, आयात- 28.1, सऊदी अरब से निर्यात- 13.9 और आयात- 16.5, अन्य सदस्य देश से निर्यात- 23.5 और आयात- 29.
इन आंकड़ों से स्पष्ट है कि जहां जीडीपी के मामले में ब्रिक्स देशों में भारत का चीन के बाद दूसरा स्थान है, वहीं अमेरिका से होने वाले कारोबार में भी उसकी एक महत्वपूर्ण हिस्सेदारी है। इसलिए न तो ब्रिक्स देश भारत की अवहेलना करने की सोच पाएंगे और न ही अमेरिका उसकी उपेक्षा कर पाएगा। वही, यह भी स्वाभाविक है कि इतने बड़े कारोबारी फायदे को अमेरिका गंवाना नहीं चाहेगा। क्योंकि इसे गंवाने का सीधा असर उसकी वैश्विक थानेदारी पर पड़ेगा। यही वजह है कि समय रहते ही अमेरिका ने ब्रिक्स देशों की मुखालफत शुरू कर दी है, जिससे ब्रिक्स देशों की परेशानी निकट भविष्य में बढ़ सकती है।
बता दें कि यह वही अमेरिका है जिसने चीन के नवनिर्माण में अग्रणी भूमिका निभाई है। उसे तकनीकी रूप से अपग्रेड होने में स्वार्थपरक मदद दी है। समझा जाता है कि शीत युद्ध के दौरान सोवियत संघ (रूस व उसके पड़ोसी देशों का समूह) और भारत की युगलबंदी को मात देने के लिए ही अमेरिका रणनीतिक रूप से चीन-पाकिस्तान-अफगानिस्तान के अलावा अरब देशों की रणनीतिक मदद करता था और अपने वैश्विक हित साधता था। तब चीन के सम्बन्ध भी भारत और रूस से उतने प्रगाढ़ नहीं थे, जितने अमेरिका-पाकिस्तान-अफगानिस्तान व अरब देशों से थे।
लेकिन सोवियत संघ के पतन के बाद अमेरिका के नेतृत्व में हुए निजीकरण और भूमंडलीकरण से खूब लाभान्वित होने के बाद चीन जब अमेरिका की जगह दुनिया का नया थानेदार बनने की महत्वाकांक्षा पाल ली और रूस-भारत से मधुर सम्बन्ध बनाकर उन्हें ब्राजील के साथ ब्रिक्स संगठन से जोड़ लिया तो अमेरिका को यह नागवार गुजरा। वहीं, जब अफगानिस्तान-पाकिस्तान से अमेरिकी पांव उखाड़ने में चीन ने रणनीतिक चुप्पी दिखाई तो अमेरिका और बौखला उठा। इस बीच अमेरिका-इराक युद्ध, अमेरिका-ईरान विवाद, फिलिस्तीन-इजरायल विवाद, तुर्की प्रेरित सीरिया संकट आदि के दौरान भी चीन की वही रणनीति रही, जिससे इस क्षेत्र से अमेरिकी पांव उखड़े।
इसी बीच चीन से एक बड़ी गलती यह हो गई कि वह भारत से उलझ गया, जिससे भारत पुनः सावधान हो गया और उसने रूसी मित्रता के साथ-साथ अमेरिका-इजरायल से प्रगाढ़ सम्बन्ध स्थापित कर लिए। वहीं, रूसी सहयोग से ईरान के साथ नई समझदारी विकसित की। जापान से लेकर फ्रांस जैसे भरोसेमंद दोस्तों को साधा। इस दौरान भारत ने इतने समझदारी भरे कदम उठाए कि अमेरिका, रूस, चीन जैसे बड़े देशों के अलावा ब्रिटेन-जर्मनी-ऑस्ट्रेलिया, दक्षिण कोरिया, इंडोनेशिया आदि जैसे देश भी किसी भी वैकल्पिक गठबंधन में भारत की उपेक्षा नहीं कर सकें।
कुल मिला कर संतुलित वैश्विक कूटनीति से भारत अपने मकसद में कामयाब रहा और उसकी वैश्विक पूछ बढ़ी। इसका फायदा उठाकर भारत ने तीसरी दुनिया के देशों यानी ग्लोबल साउथ की तरफदारी शुरू कर दी, ताकि विकसित देशों की स्वार्थी गतिविधियों को परमार्थी दृष्टिकोण यानी वसुधैव कुटुंबकम के स्थायी भाव से जोड़ा जा सके और सबका समावेशी व संतुलित विकास किया-करवाया जा सके। यह बात अमेरिका, रूस, चीन को नागवार गुजरी, लेकिन इनकी पारस्परिक प्रतिस्पर्धा से भारत का बढ़ता महत्व जगजाहिर है। अमेरिकी नेतृत्व वाले क्वाड देशों में भारत का बढ़ता महत्व भी इसी बात का परिचायक है।
वहीं, यह सवाल भी मौजूं है कि क्या डॉलर के दम पर चीन जैसे भस्मासुर से निबटेगा अमेरिका? या फिर कुछ अन्य चिरपरिचित युक्तियों का सहारा लेगा जो कि वह यत्र-तत्र-सर्वत्र आजमाता आया है। जिसमें कभी पास हुआ है तो कभी फेल। चीन के मामले में भी यदि वह रणनीतिक रूप से पिट जाए तो किसी को हैरत नहीं होगी। क्योंकि अमेरिकी लोकतंत्र खोखला हो चुका है, जबकि चीनी साम्यवादी तानाशाह दिन-प्रतिदिन खुद को मजबूती पूर्वक पेश करने में सफल प्रतीत होता है। क्या डॉलर के दम पर चीन से निबटेगा अमेरिका..?