डॉ.अम्बेडकर के अपमान पर सियासी तूफान क्यों

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डॉ.अम्बेडकर के अपमान पर सियासी तूफान क्यों
डॉ.अम्बेडकर के अपमान पर सियासी तूफान क्यों
कमलेश पांडेय

संविधान निर्माता अम्बेडकर के अपमान पर मचे सियासी तूफान के पूंजीवादी एजेंडे को ऐसे समझिए।अपने देखा होगा कि इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, राममनोहर लोहिया, वीपी सिंह, लालूप्रसाद,मान्यवरकांशीराम,मायावती,रामविलासपासवान, लालकृष्ण आडवाणी,अटलबिहारी बाजपेयी आदि अनगिनत नेताओं के ऊपर सियासी टिपण्णी हुई, लेकिन बात का इतना बतंगड़ कभी नहीं बना। डॉ.अम्बेडकर के अपमान पर सियासी तूफान क्यों

हमारे विपक्षी नेताओं को एक और अपमानजनक मुद्दा मिल गया ताकि संसद की जनहितकारी कार्यवाही को बाधित कर दिया जाए और सड़क से संसद तक हंगामा खड़ा करके लोगों को गोलबंद किया जाए। इससे मिशन आम चुनाव 2029 की विपक्षी राह आसान हो जाएगी। बताया जाता है कि एक संसदीय चर्चा के दौरान संसद में केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने यह कह दिया है कि आजकल आंबेडकर का नाम लेना सियासी फैशन हो गया है। इतना नाम भगवान का लेते तो सात जन्मों के लिए स्वर्ग मिल जाता।

बकौल शाह, “आंबेडकर-आंबेडकर-आंबेडकर क्यों कह रहे हो? आप अगर भगवान-भगवान कहेंगे तो 7 पीढ़ियां आपकी स्वर्ग में जाएंगी।” बस इसी बयान को लेकर प्रमुख विपक्षी पार्टी कांग्रेस के लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी ने और राज्यसभा में नेता प्रतिपक्ष व कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने गृहमंत्री अमित शाह और बीजेपी का विरोध करना शुरू कर दिया है। इस प्रकार विभिन्न दलों के समर्थन-विरोध और बचाव की सियासत के बीच संसद में धक्कामुक्की तक की नौबत आई गई और लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी व उनके साथियों के विरुद्ध भाजपा नेताओं द्वारा एफआईआर तक दर्ज करवाना पड़ा। उधर, कांग्रेस ने भी भाजपा सांसदों के खिलाफ शिकायत दी है। इससे बिखरते इंडिया गठबंधन को थोड़ी सी राहत भी मिल गई, क्योंकि जो नेता राहुल गांधी का विरोध करते थे, वही अब उनकी भाषा पुनः बोलने लगे।

चूंकि फरवरी 2025 में दिल्ली विधानसभा चुनाव और नवम्बर 2025 में ही बिहार विधानसभा चुनाव की सियासी वैतरणी पार करनी होगी, तो मुद्दा चाहिए। इसलिए कांग्रेस ने मनमाफिक मुद्दा ढूंढ लिया। भाजपा ने अपनी नीतियों से मुसलमानों को उसके लिए बुक ही कर दिया है और भाजपा से दलितों को हड़पने के लिए वह संविधान बदलने से लेकर अम्बेडकर के अपमान तक के मुद्दे को हवा दे चुकी है। ऐसा इसलिए कि कांग्रेस का ‘दम समीकरण’ दलित-मुस्लिम गठजोड़ मजबूत हो। बता दें कि इसी को मजबूत करते करते लोकजनशक्ति पार्टी के संस्थापक स्व. रामविलास पासवान और उनके पुत्र केंद्रीय मंत्री चिराग पासवान भाजपा की गोद में जा बैठे।

वहीं, दम समीकरण की दूसरी प्रबल पैरोकार समझी गईं बसपा नेत्री और यूपी की पूर्व मुख्यमंत्री मायावती की सियासी दुर्गति आप लोग देख ही रहे हैं, जिनपर भाजपा की बी टीम होने के आरोप लगते आए हैं। इसलिए इसी दम समीकरण पर अपना दावा मजबूत करते करते कांग्रेस क्या गुल खिलाएगी, अभी कहना जल्दबाजी होगी क्योंकि इसी समीकरण ने लोकसभा चुनाव 2024 में उसे 10 वर्षों के सियासी दुर्दिन से मुक्ति दिलाई है। यह बात दीगर है कि कांग्रेस के नेता प्रतिपक्ष बनते ही उसकी सियासी सौतनों यानी इंडिया गठबंधन के साथी दलों की नींद उड़ चुकी है। इसलिए हरियाणा और महाराष्ट्र में दलितों के छिटकते ही विपक्षी आलोचना का केंद्रविन्दु बनी कांग्रेस ने अंबेडकर के अपमान को ऐसा तूल दिया और आक्रामक रणनीति अपनाई कि संसद में धक्कामुक्की कांड हो गया। इससे राहुल गांधी पुनः विपक्षी नेताओं के हीरो बनते प्रतीत हो रहे हैं।

अब उम्मीद की जा रही है कि कांग्रेस इस मुद्दे से ही दिल्ली और बिहार के विधानसभा चुनावों के बाद 2027 में उत्तरप्रदेश विधानसभा चुनाव और फिर 2028 में मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ के विधानसभा चुनावों को जीतने की रणनीति बनाएगी। चूंकि इसी बीच कर्नाटक, तमिलनाडु, गुजरात, पश्चिम बंगाल आदि विधानसभाओं के भी चुनाव इलेक्शन कैलेंडर के मुताबिक होंगे, इसलिए कांग्रेस जातिगत जनगणना के बाद अंबेडकर के अपमान को भी मुख्य मुद्दा बनाएगी क्योंकि भाजपा भी इन्हीं दोनों मुद्दों पर कांग्रेस के ऊपर तार्किक सवाल उठाती आई है।

राजनीतिक टिप्पणीकारों की बातों पर गौर करें तो राष्ट्रपति महात्मा गांधी, प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू, महात्मा गांधी के ‘हत्यारोपी’ हिंदूवादी नेता वीर सावरकर, और अब संविधान निर्माता बाबा साहब डॉ भीमराम अम्बेडकर के ऊपर हुई सियासी टीका-टिप्पणी कोई नई बात नहीं है, बल्कि नई बात तो यह है कि गांधी-नेहरू का अपमान सहते रहने वाली कांग्रेस ने अम्बेडकर के अपमान को सियासी मुद्दा बनाकर एक तीर से दो शिकार कर रही है।

पहला तो यह कि दलितवादी दलों और ओबीसी की राजनीति करने वाले दलों से वह मुद्दे लपक चुकी है और इसी को धार दे रही भाजपा को जन कठघरे में खड़ा करके अपना सियासी उल्लू सीधा करने की कवायद तेज कर चुकी है। अपने देखा होगा कि इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, राममनोहर लोहिया, वीपी सिंह, लालूप्रसाद, मान्यवर कांशीराम, मायावती, रामविलास पासवान, लालकृष्ण आडवाणी, अटलबिहारी बाजपेयी आदि अनगिनत नेताओं के ऊपर सियासी टिपण्णी हुई, लेकिन बात का इतना बतंगड़ कभी नहीं बना।

कभी आजादी, कभी आरक्षण, कभी समता, कभी समरसता, कभी वामपंथ, कभी समाजवाद और कभी राष्ट्रवाद के सवाल पर सियासत हुई। रोटी कपड़ा और मकान के बाद शिक्षा, स्वास्थ्य और सम्मान की सियासत भी हुई। जय जवान, जय किसान से लेकर जय विज्ञान तक के उदघोष हुए। सबका साथ, सबका विकास और सबका विश्वास तक की बातें हुईं। लेकिन जनता की माली हालत उबचुब करती रही। पिछले तीन दशकों में अमीरी और गरीबी की खाई हर रोज चौड़ी हो रही है।

एक और कड़वी सच्चाई यह है कि निर्वाचित नेताओं की आय रॉकेट की गति से बढ़ रही है पर समतामूलक समाज स्थापित करने के संवैधानिक प्रयत्न नदारत रहे। क्योंकि जब भी सर्वहितकारी कुछ बात शुरू हुई तो दलित, आदिवासी, ओबीसी और अल्पसंख्यकों के संवैधानिक अधिकारों को कानूनी ढाल बना दिया गया। कुछ लोगों को आरक्षण दिया गया और उनका समर्थन हासिल करके कहीं पारिवारिक राजनीति को मजबूत किया गया तो कहीं राजकोषीय लूट मचाई गई। सबसे दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति तो यह कि कहीं कोई प्रशासनिक और न्यायिक संतुलन स्थापित करने की कोशिश नहीं की गई। या तो कानून स्वहित के अनुरूप बने या फिर परिभाषित किये गए। दुष्प्रभाव सबके सामने है। हिंसा-प्रतिहिंसा और असमानता हमारी नियति बन चुकी है।

यह कड़वी सियासी सच्चाई यह है कि सन 1990 के दशक के पूर्वार्द्ध से देश में लागू ‘नई आर्थिक नीतियों’ के दुष्परिणाम स्वरूप भारतीय संसद जनहितकारी मुद्दों से अपना पिंड छुड़ाती हुई प्रतीत हो रही है और सिर्फ पूंजीवादी एजेंडों को पूरा करने की गरज से जनमानस के बीच भावनात्मक मुद्दों को हवा दे रही है। इन नीतियों को देश में लागू करने वाली कांग्रेस और फिर बाद में उसकी समर्थक बन चुकी भाजपा (स्वदेशी आंदोलन को भूलकर) ने पूंजीवादी राजनीति को इतनी हवा दी कि क्षेत्रीय सियासत ही हाशिए पर आ गई।

इसलिए क्षेत्रीय दलों को भाजपा और कांग्रेस के इस सियासी पेंच को समझना चाहिए, लेकिन ये भी इन दोनों दलों के गठबंधन के मोहरे बन चुके हैं। ऐसा सिर्फ इसलिए कि सियासत के लिए जो जरूरी आर्थिक खाद-पानी चाहिए, वो सिर्फ पूंजीवादी कम्पनियां ही पूरी कर सकती हैं।

आप गौर कीजिए कि 1990 के दशक से शुरू हुए कम्पनी राज के बाद जीवन चर्या कितनी महंगी होती जा रही है। मानवीय संवेदनाओं से परे सबकुछ को मौद्रिक पैमाने पर तौलने की बाजारू प्रवृत्ति ने खान-पान, दवा-दारू, रहन-सहन से लेकर परिवहन तक को महंगा कर दिया और गुणवत्ता के मामलों में भगवान भरोसे छोड़ दिया।

वहीं, कभी कांग्रेस और कभी भाजपा के वर्चस्व वाली संसद मजबूत कानूनों को पूंजीपतियों के लिहाज से कमजोर करती रही जिससे शिक्षा, स्वास्थ्य, संचार, परिवहन आदि के क्षेत्रों में व्याप्त अराजकता बढ़ती चली गई। यह आज भी जारी है। समाज में रूपये के बढ़ते बोलबाले से प्रशासनिक तंत्र और अधिक भ्रष्ट हो गया। सियासत में ओबीसी, दलित व अल्पसंख्यक शब्दों के बढ़ते बोलबाले से जो जनप्रतिनिधियों की फौज संसद में आई, उन्होंने जाने-अनजाने सियासत को भ्रष्ट कर दिया। आलम यह है कि यथा राजा-तथा प्रजा और यथा प्रजा-तथा राजा का अंतर मिट चुका है। जनप्रतिनिधियों के विशेषाधिकार और न्यायाधीशों के न्यायिक अवमानना के अधिकारों ने मीडिया के मुंह सील दिए।

देश में अब स्वस्थ राजनीतिक बहस की कोई गुंजाइश नहीं बची है क्योंकि पहले आजादी, फिर समाजवाद, उसके बाद हिंदूवाद की सियासत हुई, जिसमें अल्पसंख्यक तुष्टिकरण, जातीय तुष्टिकरण, सांप्रदायिक ध्रुवीकरण, दलित-पिछड़ा-आदिवासी गोलबंदी, फिर इनकी आपसी सिरफुटौव्वल के बीच पूंजीवादी राजनीतिक अपनी जड़ जमाती रही और लोगों के मूलभूत रोजगार से लेकर जीवन यापन तक की नीतियां हाशिए पर चली गईं।

अब जो भी दिखावटी जनहितकारी नीतियां लागू की जा रही हैं, उसके पीछे कॉरपोरेट लूट का एजेंडा सर्वप्रथम है, जिसे समझने में हमारे अधिकांश नेता व उनकी समर्थक अशिक्षित या कम शिक्षित जनता नाकाम रही है। आधार कार्ड, मुफ्त आवास, मुफ्त या कम ब्याज दर ऋण, डीबीटी जैसे जितने भी नव आर्थिक उपाय किए गए, सबका मकसद कम्पनियों को लाभ पहुंचना है। लोगों के पास काम नहीं है और सरकार एआई पर जोर दे रही है। सत्ता में मशीनीकरण के घुसपैठ से सिर्फ पूंजीवादियों का ही भला होगा।

सच कहूं तो एक देश, एक चुनाव भी उनका ही एजेंडा है ताकि छोटे छोटे दल समाप्त हो जाएं। छोटी-छोटी कम्पनियों को उनका ऑनलाइन बाजार लूट ही चुका है। इसलिए देश जनक्रांति की बाट जोह रहा है, क्योंकि वैश्विक पूंजीवादी ताकतों के इशारे पर थिरक रही भारतीय कम्पनियों से मुट्ठी भर लोगों का भला होगा, जबकि बहुत बड़ी आबादी भावनात्मक मुद्दों पर उलझी हुई है और किसी राष्ट्रीय अभिशाप से कम नहीं है। सवाल पुनः वही कि भावनाओं को भड़काकर सियासी रोटी सेंकने की कांग्रेस-भाजपा की चाल को आखिर कब तक समझेंगे हमारे क्षेत्रीय दल और जनहित की रक्षा के लिए उन पर दबाव बढ़ाएंगे, अन्यथा एक समय बाद वो भी लोगों के बीच अप्रासंगिक हो जाएंगे। डॉ.अम्बेडकर के अपमान पर सियासी तूफान क्यों