नियति के कुचक्र में फंसे अयोध्या नरेश

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नियति के कुचक्र में फंसे अयोध्या नरेश
नियति के कुचक्र में फंसे अयोध्या नरेश

अयोध्या के राजा दशरथ ऐसे क्रूर भाग्यचक्र में उलझ गए हैं जहाँ उनके पास कोई आसान मार्ग नहीं बचा है. एक ओर पुत्र का मोह, दूसरी ओर वचन की मर्यादा, और तीसरी ओर राज्य की राजनीति-सबने मिलकर उन्हें ऐसी स्थिति में डाल दिया जहाँ हर दिशा पीड़ा से भरी थी.

अजीत सिंह

नियति के कुचक्र में फंस कर अयोध्या नरेश के दो राजकुमार अपना अधिकार त्यागने की लड़ाई लड़ रहे थे. वहीं अन्य दो राजकुमार इस पारिवारिक द्वंद से बिल्कुल ही अछूते एक दूजे पर न्योछावर हुए जा रहे थे. दोनों सुमित्रानंदन कभी सत्ता को अपना विषय समझे ही नहीं थे. माता ने बचपन से ही उनमें सेवा और बड़ों के प्रति समर्पण का भाव भरा था. वे राम और भरत के प्रति समान श्रद्धा रखते हुए दूर से ही इस समस्या को सुलझते हुए देख रहे थे. तय हो चुका था कि राम चौदह वर्ष बाद ही वनवास से वापस लौटेंगे. तबतक भरत उनकी ओर से अयोध्या के कार्यकारी सम्राट होंगे. अब अयोध्या के नगर जन उदास हो कर वापसी की तैयारी कर रहे थे. नियति के कुचक्र में फंसे अयोध्या नरेश

लखन अपने अनुज के लिए वन से फल लाये थे और बड़े ही प्रेम से उन्हें धो-धो कर खिला रहे थे. फिर अपने उत्तरीय से उनके मुँह में लगे जूठन को पोछते हुए बोले कुल में सबका ध्यान रखना. शत्रुघ्न यही हमारा धर्म है शत्रुघ्न ने सर हिला कर सहमति दी. लखन ने आगे कहा माताओं का विशेष ध्यान रखना शत्रुघ्न विशेष रूप से बड़ी माँ और छोटी मां का.हम उनका दुख तो कम नहीं कर सकते,पर उन्हें धीरज धराने का प्रयत्न तो कर ही सकते हैं. उनके साथ बने रहना शत्रुघ्न ने पुनः सर हिलाया लखन बोलते रहे भइया भरत का भी ध्यान रखना. अनुज वे बहुत ही व्यथित हैं. नियति ने उनके साथ बहुत ही बुरा व्यवहार किया है. उन्हें बड़े भइया का स्नेह भी तुम्हे ही देना होगा और हम दोनों अनुजों का सहयोग भी तुम्हे अकेले ही देना होगा. शत्रुघ्न ने फिर शीश हिला दिया लखन आगे बोले अच्छा सुनो स्वयं का भी ध्यान रखना. तुम्हारे तीनों बड़े भाई कहीं भी रहें तुम पर उनका स्नेह उनका आशीष बरसता ही रहेगा खुश रहना. शत्रुघ्न अब स्वयं को नहीं रोक सके लखन की आंखों में आँख डाल कर कहा और भाभी के लिए कुछ नहीं कहेंगे भइया. आपको उनकी जरा भी चिन्ता नहीं लखन कुछ पल के लिए शांत हो गए फिर गम्भीर भाव से कहा उनसे कहना मैं सदैव महादेव से प्रार्थना करता हूँ कि उनका तप पूर्ण हो. परीक्षा की इस घड़ी में हमें अपने कर्तव्यों का स्मरण रहें, यही हमारी पूर्णता है.

और सुनो मुझे सचमुच उनकी चिन्ता नहीं होती मुझे स्वयं से अधिक भरोसा है उनपर.भइया भाभी भी आयी हैं आप उनसे नहीं मिलेंगे लक्ष्मण का मुँह पल भर के लिए सूख गया. पर शीघ्र ही सामान्य भी हो गए मुस्कुरा कर कहा बड़े नटखट हो. सब अपनी ही ओर बोल रहे हो न सुनो हमें मिलने की आवश्यकता नहीं हम साथ ही हैं. हमने मिल कर तय किया था कि चौदह वर्षों तक स्वयं को भूल कर केवल परिवार के लिए जिएंगे. अपने कर्तव्य पर डटे रह कर हम अलग होते हुए भी साथ ही होंगे. शत्रुघ्न चुपचाप देखते रहे अपने बड़े भाई की ओर जैसे किसी देवता की मूरत को निहार रहे हों. फिर मुस्कुरा कर कहा मैं सचमुच परिहास ही कर रहा था भइया. भाभी ने कहा है आप उनकी चिन्ता न कीजियेगा राजा जनक की बेटी अयोध्या राजमहल के आंगन को अपने आँचल से बांध कर रखेगी. कुछ न बिखरेगा कुछ न टूटेगा शत्रुघ्न की आँखे भीगने लगी थीं. लखन ने उन्हें प्रेम से गले लगा लिया.

‘रामायण’ सिर्फ हिन्दू धर्म तक सीमित नहीं है,अपितु सम्पूर्ण दुनिया के लिए कई महत्वपूर्ण संदेश देता है. इसके हर पात्र और घटना से कुछ-न-कुछ सीख देने की कोशिश की गयी है. जिसमें से एक भगवान राम के राज्याविषेक के समय की है. राजा दशरथ अत्यंत प्रसन्न थे. चारों तरफ राम के राज्याभिषेक के लिए अयोध्या में बड़े ही धूमधाम से तैयारी चल रही थी.जिसकी वजह से वहाँ त्योहार जैसा वातावरण बना हुआ था. परन्तु भगवान राम इस सूचना से अनभिज्ञ थे. जैसे ही राम के राज्याभिषेक की सूचना रानी केकैयी की दासी मंथरा को मिली तो वह तुरन्त माता केकैयी के पास पहुँच जाती है.

राम पर दृढ़ विश्वास रखने वाली माता केकैयी को भरत के नाम पर मंथरा इस तरह से दिगभ्रमित करती है कि वह पुत्र मोह में मंथरा के वाकजाल में फंस जाती है. जबकि वह अच्छी तरह से जानती है कि राम उनका बहुत आदर तो करते ही हैं साथ ही सबसे ज्यादा प्रेम भी करते हैं. अयोध्या की परम्परा और नियम के अनुसार ज्येष्ठ पुत्र ही राजा बनने का अधिकारी होता था.शुरूआत में कैकेयी मंथरा की बातों को गंभीरता से नहीं लेती है. किन्तु मंथरा के बार-बार कहने से वह उसकी बातों में आ जाती है और सोचने लगती है कि कहीं न कहीं मंथरा सच ही कहती है. इस तरह अयोध्या नगरी का विनाश शुरू हो जाता है.

राजमहल की शांत दीवारों के पीछे एक अशांत मन बैठा था.जो थे अयोध्या नरेश राजा दशरथ। पुत्रवियोग का शोक, वचनबद्धता की जंजीर और नियति की कठोर परीक्षा ने उन्हें भीतर से तोड़ दिया था. कैकेयी से दिया गया वचन, राम का वनवास और भरत की तपस्या. यह सब उस एक क्षण की परिणति थी जब राजा ने सोचा भी नहीं था कि उनका स्नेह और धर्म ऐसे टकराएँगे.राजा दशरथ ने जीवन भर धर्म का पालन किया, न्यायप्रिय राजा रहे, फिर भी नियति ने उन्हें वहाँ ला खड़ा किया जहाँ हर विकल्प पीड़ा से भरा था. यही तो नियति का कुचक्र था -जहाँ एक धर्म की रक्षा के लिए, एक और धर्म को त्यागना पड़ा. नियति के कुचक्र में फंसे अयोध्या नरेश