राजनीति के दलदल में खिला कमल-अटल बिहारी 

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राजनीति के दलदल में खिला कमल-अटल बिहारी 
राजनीति के दलदल में खिला कमल-अटल बिहारी 
डा.विनोद बब्बर 

पिछले कुछ दशकों से राजनीति कीचड़ का पर्याय बन चुकी है। शायद ही कोई चादर उजली हो। कुछ अपने कर्म तो कुछ विरोधियों की कृपा, इस काजल की कोठरी में जो भी आया, उसे दागदार करने में कोई कसर बाकि नहीं रखी जाती। यह स्थिति किसी एक दल की नहीं, पूरे दलदल की है मगर आश्चर्य तब होता है जब किसी एक नेता को उसके विरोधी तक सराहते हैं। ‘आपकी मातृ संस्था गड़बड़ है लेकिन आप श्रेष्ठ है’ के जवाब में अटल जी कहते रहे हैं, ‘पेड़ खराब है और फल अच्छा है, ऐसा कभी हो ही नहीं सकता मेरे मित्रों। मैं जो कुछ हूं अपनी मातृ संस्था अर्थात् संघ के कारण हूं।’ राजनीति के दलदल में खिला कमल-अटल बिहारी 

अटल जी के ओजस्वी भाषण न केवल उनके अपने दल के कार्यकर्ता  बल्कि आम जनमानस  को बहुत प्रभावित करते थे। अटल जी के भाषण, शालीनता और शब्दों की गरिमा का ऐसा अद्भुत मिश्रण होता था कि विरोधी  भी उनके कायल है। सांसद के रूप में अटल जी आरंभ से ही अपने भाषणों की तैयारी बङी गंभीरता के साथ करते थे। उन्होंन सदन में कभी भी एक शब्द अनर्गल नही कहा। जब अटल जी बोलते थे तो नेहरु जी भी उनके भाषण को बहुत ध्यान से सुनते थे। प्रारंभ से ही अटल जी के भाषण की सभी सांसद प्रशंसा करते थे। अपने भाषणों के सम्बंध में अटल जी कहते हैं कि मेरे भाषणों में मेरा लेखक मन बोलता है लेकिन राजनेता भी चुप नही रहता। राजनेता लेखक के समक्ष अपने विचार रखता है और लेखक पुनः उन विचारों को पैनी अभिव्यक्ति देने का प्रयास करता है। मै तो मानता हूँ कि मेरे राजनेता और मेरे लेखक का परस्पर समन्वय ही मेरे भाषण में दिखाई देता है। मेरा लेखक राजनेता को मर्यादा का उल्लघंन नहीं करने देता। कवि हृदय अटल जी विराट व्यक्तित्व के स्वामी थे। ऐसा अजात शत्रु राजनेता न कभी हुआ और न ही होगा। क्योंकि वे जमीन से जुड़े थे। आम जनता की नब्ज बखूबी जानते थे। उन्हें ऐसी ऊँचाई स्वीकार्य नहीं जो उन्हें जड़ों से अलग कर दे।

इसीलिए उन्होंने कहने का साहस किया –

सच्चाई यह है कि केवल ऊँचाई ही काफी नहीं होती, सबसे अलग-थलग, परिवेश से पृथक, अपनों से कटा-बंटा, शून्य में अकेला खड़ा होना, पहाड़ की महानता नहीं, मजबूरी है। ऊँचाई और गहराई में आकाश-पाताल की दूरी है।   अटल जी का दर्शन आत्म केन्द्रित और टकराव की राजनीति से हटकर  एक आदर्श पगड़ंड़ी है। अंधेरे में उजाले की किरण है। लेकिन तभी जब उसका अनुसरण किया जाये।

उनके अनुसार- धरती को बौनों की नहीं, ऊँचे कद के इंसानों की जरूरत है। इतने ऊँचे कि आसमान छू लें, नये नक्षत्रों में प्रतिभा की बीज बो लें। किन्तु इतने ऊँचे भी नहीं, कि पाँव तले दूब ही न जमे। कोई कांटा न चुभे, कोई कली न खिले। न वसंत हो, न पतझड़, हों सिर्फ ऊँचाई का अंधड़। मात्र अकेलापन का सन्नाटा।

मेरे प्रभु! मुझे इतनी ऊँचाई कभी मत देना, गैरों को गले न लगा सकूँ, इतनी रुखाई कभी मत देना। आपातकाल में लोकतंत्र को बंदी बना लिया गया। 1977 में मौका मिलते ही जनता ने तानाशाही को उखाड़ फेंका लेकिन जनता पार्टी के प्रयोग की विफल रहा। महत्वकांक्षा ने सब चौपट कर दिया। तब वह अटल जी ही थे जिन्होंने सरेआम स्वीकार था- 

क्षमा करो बापू! तुम हमको, वचन भंग के हम अपराधी।

राजघाट को किया अपावन, मंजिल भूले, यात्रा आधी।

जयप्रकाश जी! रखो भरोसा, टूटे सपनों को जोड़ेंगे।

चिताभस्म की चिंगारी से, अन्धकार के गढ़ तोड़ेंगे।

………और इतिहास गवाह है अटल जी के नेतृत्व में बनी सरकार के शासन काल में महाशक्तियों के दबाव को ठुकराते हुए भारत एक सशक्त परमाणु शक्ति सपन्न राष्ट्र बना और भारत में स्वच्छ सुशासन की राजनीति का उद्घोष हुआ।

आज कुछ देश भारत और नेपाल के बीच कुछ गलतफहमियां पैदा करना चाहते हैं। ऐसे में अटल जी वह भाषण स्मरण हो उठता है जिसमें उन्होंने हर मनोमानिल्य को दूर करते हुए संवेदना पूर्ण स्वर में कहा था, ‘दुनिया में कोई देश इतना निकट नही हो सकते जितने की भारत और नेपाल हैं। इतिहास ने, भूगोल ने, संस्कृति ने, धर्म ने, नदियों ने हमें आपस में बाँधा है।’ आज जरूरत है उनके शब्दों को व्यवहार रूप में लाकर हम नेपाल से अपने संबंध सुधारें।

अटल जी द्वारा ‘राजधर्म’ की सीख की चर्चा यदाकदा होती ही रहती है। वे भारतीयता के पर्याय थे। उनका विशद अध्ययन और अनुभव उनके हर व्याख्यान में झलकता था। आकाशवाणी द्वारा आयोजित व्याख्यानमाला में अटल जी ने  धर्म और रिलिजन की बहुत सुंदर ढ़ंग से व्याख्या करते हुए कहा था, ‘यद्यपि धर्म का अर्थ बहुधा वही समझा जाता है जो रिलिजन का मतलब है परंतु वास्तव में धर्म का अर्थ भारतीय चिंतन में अधिक व्यापक और अनेक अर्थों में हुआ है। धर्म शब्द के मूल में धू  धातु का संबंध धारण करने से है। अतः ये कहा जा सकता है कि, जो जिसका वास्तविक रूप है उसे बनाये रखने और उस पर बल देने में जो सहायक हो वही उसका धर्म है। धर्म और रिलिजन के अंतर को हमें समझना चाहिये। रिलिजन  का संबंध कुछ निश्चित आस्थाओं से होता है, जब तक व्यक्ति उनको मानता है, वह उस रिलिजन, उस मज़हब का सदस्य बना रहता है। जैसे ही वह उन आस्थाओं को छोङता है, वह उस रिलिजन से बहिष्कृत हो जाता है। राजनीति के दलदल में खिला कमल-अटल बिहारी 

धर्म केवल आस्थाओं पर आधारित नही है। किसी धार्मिक आस्था में विश्वास न रखने वाला व्यक्ति भी धार्मिक अर्थात सदगुंणी हो सकता है। धर्म वस्तुतः जीने का तरीका है। वह आस्थाओं से अधिक जीने की प्रक्रिया पर आधारित है। धर्म के साथ विशेषण जोङने की परिपाटी नही है। धर्म न देश से बंधा है न काल से और न वे किसी सम्प्रदाय विशेष से जुङा है। धर्म जब किसी सम्प्रदाय विशेष से जुङता है तब वह रिलिजन का रूप ग्रहण कर लेता है। धर्म जब संस्थागत धर्म बन जाता है तब वह रिलिजन हो जाता है। शत्पल ब्राह्मण में कहा गया है कि, धर्म शासक का भी शासक है तथा धर्म में प्रभु सत्ता निहीत है। महाभारत में भी इसका प्रमाण मिलता है कि, शासक धर्म के अधीन रहता है।’ 

सफलतम विदेश मंत्री, संयुक्त राष्ट्र अधिवेशन में हिंदी में भाषण देने वाले प्रथम वक्ता, सतारूढ़ कांग्रेस द्वारा संयुक्त राष्ट्र संघ में उन्हें प्रतिनिधि मंडल का नेता बनाये जाने पर वहां सरकार का पक्ष मजबूती से प्रस्तुत करने पर उनका कथन, ‘हम यहां पक्ष और विपक्ष हैं लेकिन हमारी संस्कृति हमें वयं पंचाधिक शतं’ के संस्कार देती है’, जय विज्ञान का नारा,  लाहौर बस ले जाने की जानकारी तो इस देश के जन-जन को है लेकिन उनके पत्रकार होने की चर्चा बहुत कम होती है। आपने राष्ट्रधर्म, पांचजन्य और वीर अर्जुन का संपादन किया व पं.दीनदयाल उपाध्याय के सान्निध्य ने उनके  प्रखर रूप व प्रतिभा को उजागर किया। आपने ‘स्वदेश’ दैनिक तथा बाद में काशी से प्रकाशित ‘चेतना’ साप्ताहिक का भी संपादन किया। 

विपक्ष के नेता के रूप में सदा सरकार का ध्यान खामियों की तरफ आकर्षित किया। आपका आचरण सर्वत्र सराहा गया। आज बहुमत के बाद भी विरोधी सरकार के कार्य में बाधक बन रहे हैं। संसद अक्सर मौन हो जाती है। तब के विपक्ष के विरोध को गलत बताना वाला आज का विपक्ष उनसे भी कई कदम आगे बढ़कर नये कीर्तिमान स्थापित करना चाहते हैं। काश आज अटल जी होते तो निश्चित रूप से इस गतिरोध को तोड़ते।

उनकी कविता हमारे सामने है-

कौरव कौन, कौन पाण्डव, टेढ़ा सवाल है। दोनोँ ओर शकुनि का फैला कूटजाल है। धर्मराज ने छोड़ी नहीं जुए की लत है। हर पंचायत में पांचाली अपमानित है। बिना कृष्ण के आज महाभारत होना है। कोई राजा बने, रंक को तो रोना है।

अटल जी की सादगी, नैतिकता और उच्च आदर्शों का लोहा विपक्षी भी मानते थे।  इनकी पहचान एक राजनेता के रूप में रही लेकिन बहुत कम लोग जानते हैं कि इस कवि हृदय, संवेदनशील, नेक दिल इंसान कों पालतू पशुओं से भी प्रेम था। 1980 के आसपास मैंने उन्हें अनेक बार अपने कुत्ते की जंजीर थामे इण्डिया गेट पर प्रातः भ्रमण करते देखा। ‘कुत्ते को सैर करा रहे हैं’ के जवाब में विनोदपूर्वक कहते, ‘नहीं, कुत्ता मुझे सैर करा रहा है।’ एक शाम इण्डिया गेट के पास ही आइसक्रीम का आनंद लेते हुए मिले। बाद में उस आइसक्रीम विक्रेता ने बताया कि अटल जी उनके खास ग्राहक है जिन्हें हर स्वाद का नाम मालूम है क्योंकि वे खाने के बहुत शौकीन है।

दिसम्बर 1985 में दक्षिण दिल्ली उपचुनाव में अनेक सभाओं को संबोधित कर तिलक नगर पहुंचे तो लगभग आधी रात हो चुकी थी। सर्दी उसपर बरसात, टेंट टपक रहा था। तब भी उनके इंतजार में जमे कुछ लोगों में मैं भी शामिल था। उन्होंने मेरी पीठ थपथपाते हुए कहा था- ‘ये हैं सच्चे सिपाही’। अपने भाषण में उन्होंने कहा था- ‘हम केवल जीत के लिए यहां नहीं है क्योंकि हार जीत चलती रहती है, चलती रहेगी। हार हमारा रास्ता नहीं बदल सकती। जीत हमें भटका नहीं सकती क्योंकि हम राष्ट्रवाद की भट्ठी में पक्की ईंटे हैं।’ 

कहने को बहुत कुछ है। अटल जी जैसे अजात शत्रु, विनम्रता की प्रतिमूर्ति, विद्वान द्वारा 17 अगस्त 1994 को सर्वश्रेष्ठ सांसद के सम्मान ग्रहण करते हुए कहा गया एक-एक शब्द लोकतंत्र और संस्कृति प्रेमियों के लिए मील का पत्थर है। उन्होंने कहा था, ‘मैं अपनी सीमाओं से परिचित हूं। मुझे अपनी कमियों का एहसास है। निर्णायकों ने अवश्य ही मेरी न्यूनताओं को नजर अंदाज करके मुझे निर्वाचित किया है। सद्भाव में अभाव दिखाई नही देता। यह देश बड़ा अद्भुत है और अनूठा है। किसी भी पत्थर को सिंन्दूर लगाकर अभिवादन किया जा सकता है, अभिनंदन किया जा सकता है। लोकतंत्र 51 और 49 का खेल नही है, लोकतंत्र मूल रूप से एक नैतिक व्यवस्था है।

संविधान और कानून सबका अपना महत्व है लेकिन लोकतंत्र एक ढांचा मात्र बनकर रह जाए, एक कर्मकांड में बदल जाये, उसकी प्राण शक्ति घटती जाये तो वहाँ कठिनाई पैदा हो जाती है। उस प्राण शक्ति को घटने न देना, हम सबकी जिम्मेदारी है। मैं आप सबको हृदय से धन्यवाद देता हूँ। मैं प्रयत्न करुंगा कि इस सम्मान के लायक अपने आचरण को बनाये रख सकुं। जब कभी मेरे पैर डगमगायें, तब ये सम्मान मुझे चेतावनी देता रहे कि इस रास्ते पर डांवाडोल होने की गलती नही कर सकते।’ 16 अगस्त 2018 को अनंत में विलीन हो गए कोटि-कोटि हृदय के सम्राट भारत रत्न अटल बिहारी वाजपेयी जी अपने जीवनकाल में किवदंती बन गये। सदियों तक इस देश के नेता को उनके आचरण से तय किये गये मापदंड की कसौटी पर कसा जाता है। 25 दिसम्बर को उनके जन्मदिवस पर सम्पूर्ण राष्ट्र उन्हें श्रद्धा से स्मरण करता है। राजनीति के दलदल में खिला कमल-अटल बिहारी