अयोध्या की राज वधू उर्मिला का अनुकरणीय चरित्र

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अयोध्या की राज वधू उर्मिला का अनुकरणीय चरित्र
अयोध्या की राज वधू उर्मिला का अनुकरणीय चरित्र
चित्र लेखा वर्मा

यह सत्य ही नहीं अपितु सर्वविदिति है कि रामायण में उर्मिला के त्याग,सेवा,प्रेम और नि:स्वार्थ भक्ति को कम आंका गया। रामायण में ‘देवी उर्मिला’ एक साधारण महत्व की तरह अंकित की गयी हैं जबकि सत्य यह है कि ‘उर्मिला’ का त्याग और समर्पण अतुलनीय था,अनमोल था। उर्मिला ने जो दुःख सहे उस पर तो वो आंसू भी नहीं बहा पाईं। उर्मिला का अखंड पतिव्रत धर्म था,यह उर्मिला की अवर्णित,अचर्चित,अघोषित महानता थी। उर्मिला के महान चरित्र,अखंड पतिव्रत, स्नेह और त्याग की चर्चा रामायण में अपेक्षित थी पर वह हो न सका। अयोध्या की राज वधू उर्मिला का अनुकरणीय चरित्र

अयोध्या की राज वधू उर्मिला का अनुकरणीय चरित्र। आदि कवि वाल्मीकि से लेकर तुलसीदास जी तक सभी ने रामकथा का विवेचन किया है। तुलसीदास राम भक्त थे और राम चरित मानस के द्वारा राम भक्ति की अविरल धारा को प्रवाहित करना चाहते थे। इस कारण उन्होंने अपनी रचनाओं में उन्हीं पात्रों को स्थान दिया है। जिनके द्वारा किसी प्रकार राम का चरित्र उजागर होता था। उन्होंने लक्ष्मण,भरत,निषाद,शबरी,हनुमान,विभीषण आदि को राम कथा में प्रथम और विशेष स्थान दिया था। उर्मिला का चरित्र उपेक्षित ही रहा जबकि उनका जीवन त्याग और करुणा की दारुण वेदना से परिपूर्ण था।

सर्वप्रथम रवीन्द्र नाथ टैगोर जी ने ‘काव्य की उपेक्षिताएं नामक लेख लिखा था। जिसका प्रकाशन काल सन्1899 था। इसके पश्चात महावीर प्रसाद द्विवेदी जी ने लक्ष्मण की भार्या उर्मिला को केन्द्र बनाकर ‘कवियों की उर्मिला विषयक उदासीनता’ नामक लेख लिखा। जिसका प्रकाशन काल सन्1908 था।यही दो निबंध मैथिली शरण गुप्त के लिए प्रेरणा के स्त्रोत बने।राम चन्द्र शुक्ल ने हिन्दी साहित्य के इतिहास में लिखा है कि ‘साकेत की रचना तो मूलतः इस उद्देश्य से हुई थी कि उर्मिला काव्य की उपेक्षिता न रह जाएँ’। साकेत के दो सर्ग नौ और दस पूर्णतः उर्मिला वियोग वर्णन में लिखे गये हैं। गुप्त जी के ‘साकेत’ के मन्दिर में उर्मिला की मूर्ति बहुत ही सजीव,आकर्षक और मनोरम है। गुप्त जी की दृष्टि में उर्मिला का त्याग सीता के त्याग से कहीं ज़्यादा है। उनका सारा जीवन आँसू और त्याग और पीड़ा से भरा है। नवविवाहित उर्मिला चौदह वर्ष तक अपने प्रिय से अलग रह कर जिस व्यथा व दर्द की पीड़ा ढोतीं रहीं। उस पर तो स्वतंत्र काव्य की रचना हो सकती थी पर काव्य परम्परा से वे उपेक्षित रहीं ।

वीर पुंगल लक्ष्मण की पत्नी उर्मिला है महाकवि मैथिली शरण साकेत की नायिका उर्मिला हैं। वे अनिघ सुन्दरी, ललित कला निपुण एवं सुसंस्कृत कुल बधू हैं।सर्वप्रथम वे प्रेमिका के रूप में उपस्थित होती हैं। उसका प्रेम भोग प्रधान है। परन्तु अवसर आने पर वह बलिदान करती हैं। लक्ष्मण जब राम के साथ वन गमन के लिए निश्चय कर लेते हैं,तब वे अपने मन को प्रिय-पथ का विघ्न नहीं बनने देती हैं। पति को कर्तव्य पथ से न विमुख कर स्वयं चौदह वर्ष का विरह वरण कर लेती है। विरहिणी उर्मिला की वेदना अपार है। परिस्थितियों की विषमता उनके विरह को और करुण बना देती हैं। परन्तु वे ईर्ष्या-द्वेष से सर्वथा मुक्त हैं। विरह काल में उनके हृदय का और प्रसार हो जाता है। क्षुद्र जीवों और प्रकृति के प्रति भी उनके मन में सहानुभूति उत्पन्न होती है। उर्मिला का विरह नित्य प्रति के पारिवारिक जीवन में प्रति फलित हुआ है। अतएव मर्यादित है। वह एक वीर नारी के रूप में उपस्थित होती हैं।वह अयोध्या की सेना के साथ लंका प्रस्थान को तैयार हैं। कुल मिलाकर उर्मिला एक अनन्य प्रेमिका,आदर्श पत्नी और कुल बधू हैं। (उ.का.गो.) हिन्दी साहित्य कोश भाग-2 नाम वाची शब्दावली,सम्पादक मंडल के प्रधान सम्पादक के प्रधान सम्पादक धीरेंद्र वर्मा, डा. ब्रजेश्वर वर्मा,श्री राम स्वरूप चतुर्वेदी,डा. रघुवंश( संयोजक) साकेत लिखने का मूल भूत कारण और प्रेरणा उर्मिला का विषाद साकेत के नवम् सर्ग के निवेदन में कवि ने लिखा है “ यों तो साकेत दो वर्ष पूर्व ही पूरा हो चुका था तब भी नवम् सर्ग में कुछ शेष रह गया है और मेरी भावना के अनुसार वह आज भी अधूरा ही है।)


युग-युग से उपेक्षित उर्मिला के मर्माहत करने वाले चरित्र को गुप्त जी ने चुना और कल्पना को हृदय के भावों में पिरोकर पाठकों के हृदय में उतर गये।सन् 1932 में प्रकाशित ‘साकेत’ की उर्मिला रघुकुल की सबसे पीड़ित बंधूँ,पति से उपेक्षित कवियों से भी उपेक्षित थी। रवींद्र नाथ टैगोर जी का हृदय भाव इस उपेक्षा से तड़प उठा। हाय वेदनामयी उर्मिला,एक बार तुम्हारा उदय प्राता: क़ालीन नक्षत्र की भाँति सुमेरु शिखर पर हुआ था उसके बाद दर्शन नहीं हुए तुम्हारे लोग तुम्हें भूल गए हैं।

अयोध्या की राज वधू उर्मिला का अनुकरणीय चरित्र
‘साकेत’ में लक्ष्मण के प्रस्थान के समय दशरथ के ये उद्गार कितने संक्षिप्त परन्तु कितने मार्मिक है—-


“उर्मिला कहाँ है हाय बधू,तू रघुकुल की असहाय बहू”
उर्मिला के विरह के सम्बन्ध में कवि ने लिखा है ‘और पाकर ताप उसके प्रिय विरह के विक्षेप से वर्ण वर्ण सदैव उनके ही विभूषण कर्ण,क्योँ न बनते,कविजनों के ताम्र पत्र सुवर्ण के ‘अर्थात् जिस प्रकार संजीवनी नामक जड़ी के रस से लेप करने और रसायनिक ढंग से तपाने से ताम्बा सोना बन जाता है, जिससे अनेक प्रकार के सोने के आभूषण बना कर कानों में पहने जा सकते है। उसी प्रकार रात दिन विलखने वाली उर्मिला नायिका के आसंओ रूपी रस के लेप से और लक्ष्मण के विरह से उत्पन्न भावोन्माद के संताप से कवियों के एक-एक अक्षर से कानों को सुखद प्रतीत होगा और उसकी रचना स्वयमेव सरस एवं रमणीय बन जायेगी।

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अयोध्या की राज वधू उर्मिला का अनुकरणीय चरित्र


नवम् सर्ग की विरहिणी नारी के रूप में उर्मिला पति के विरह में इस तरह जल रही है। जैसे स्वयं ही आरती बनी हुई हों। मानस मन्दिर में सती,पति की प्रतिमा थाप जलती सी उस विरह में, बनी आरती आप, विरह वेदना से पीड़ित अपने पति की याद में लीन अपने मन को भुलावा देने के लिए कभी चित्र बनाती कभी पुस्तक पढ़ती कभी वीणा बजाती। इतने के बाद भी उनकी विरहाग्नि कम नहीं होती हैं। वह इतनी व्यथित हैं कि रात्रि में ठीक से सो भी नहीं पाती है। और सोते-सोते चौक पड़ती हैं। संयोग का सुख उनके लिए स्वप्न मात्र रह गया है। हाय हृदय को थाम पड़ भी सकती कहाँ दु:स्वप्नों का नाम लेता है,सखि तू वहाँ। वियोगावस्था में संयोग सुखों का याद आना स्वाभाविक है। नायिका को ऐसी घटनाओं का स्मरण हो जाता है, जो उसकी विरह की अग्नि को और बढ़ा देती हैं ।पति से मिलने की इतनी उत्कट इच्छा है कि यदि वह अवधि बन सकें तो स्वयं को मिटा कर ,प्रियतम को वन से वापस ले आवें।

राम के वनवास जाने के समय उर्मिला भी एक पतिव्रता स्त्री की तरह अपने पति लक्ष्मण जी के साथ जाना चाहती थीं। लेकिन लक्ष्मण जी ने उन्हें ले जाने से इंकार कर दिया था। उर्मिला ने बहुत मिन्नतें की वो भी अपने पति की सेवा करना चाहती हैं। पति के हर दुःख-सुख की साथी बनना चाहती हैं।परन्तु लक्ष्मण जी ने कर्तव्य और धर्म की दुहाई देकर देवी उर्मिला को वन जाने से रोक दिया। लक्ष्मण के मुताबिक,‘मैं अपने भ्राता राम और भाभी सीता की सेवा करने के लिए जा रहा हूं। मैं नहीं चाहता कि सेवा में कोई भी कमी रह जाये।’ लक्ष्मण जी ने मां-बाप की सेवा करने के लिए उर्मिला को अयोध्या ही छोड़ना उचित समझा। उन्हें शायद पता था कि वे लोग जब वनवास जाएंगे, तो उनके माता-पिता को इसका गहरा सदमा लगेगा। इसलिए लक्ष्मण जी विकट क्षणों में मां-बाप को सहारा और सहानुभूति देने के लिए उर्मिला को छोड़ कर वनवास चले गये थे।


“आप अवधि बन सकूँ कहीं तो क्या देर लगाऊँ, मैं अपने आप को मिटा कर,उनको लाऊँ।” इस प्रकार उर्मिला अवधि रूपी शिला का भारी भार अपने हृदय पर रखकर अपने आंसुओं की अविरल धारा से अपने आप को तिल तिल गला रहीं है। इस से अधिक दयनीय स्थिति एक विरहिणी नारी की क्या हो सकती हैं।परन्तु ऐसे सामान्य चित्रों की संख्या कम ही है। उर्मिला आदर्शमयी और मर्यादा शील विरहिणी है।आचार्य राम चन्द्र शुक्ल जी ने उनके त्याग के मर्म को समझते हुए लिखा है,” उन्माद की अवस्था में जब लक्ष्मण उनके सामने खड़े जान पड़ते हैं तब उनकी भावनाओं को गहरा आघात लगता है। वह कहने लगती हैं—-


“प्रभु नहीं फिरे, क्या तुम्हीं फिरे?हम गिरे अहो तो गिरे गिरे” वह विरह ताप में तपने वाली तो है। पर उर्मिला एक साधारण स्त्री की तरह गृह कार्य में लगी रहती हैं। “बनाती रसोई सभी को खिलाती इसी काम मेंआज तृप्ति पाती।” वह सखी से कहकर नगर की कन्याओं के लिए ललित कला की शाला अपने उपवन में ही खुलवाना चाहती हैं, या खुलवाती हैं, और बहाना यह कि वह अपना अभ्यास जारी रखना चाहती हैं। “मैं निज ललित कलाएँ भूल न जाऊँ विरह वेदन में,सखि पुर बाला शाला दें क्यों न इस उपवन में” साकेत काम ज्वाला में जलती वह सामान्यीकरण युग की नायिकाओं की तरह नहीं हैं । वे कठिन से कठिन समय में धैर्य नहीं खोती हैं, बल्कि सबको हिम्मत बँधाती हैं। जब ‘साकेत’ में लक्ष्मण को शक्ति लगने का समाचार आता है , तब वे रोने-धोने की अपेक्षा,उनमें अपने सतीत्व की आस्था ही अधिक जागती है। उन्हें विकल देखकर जब शत्रुघ्न उन्हें समझाने लगते हैं तब वे स्पष्ट कहतीं हैं—–

“देवर तुम निश्चिंत रहो मैं कब रोती हूँ।”
शत्रुघ्न जब उत्तेजित हो अपने सैनिकों लंका को लूटने का आदेश देते हैं तब वे चीख उठती हैं—–
“नहीं नहीं पापी का सोना, यहाँ नहीं लाना भले सिन्धु में वहीं डुबोना।”
वह सैनिकों को लूट के लिए नहीं बल्कि सम्मान की रक्षा के लिये जाने की सम्मति देती हैं ।
इस प्रसंग में देखिए—–
“जाते हो तो मान हेतु ही तुम सब जाओ” साकेत “मातृ भूमि का भान ध्यान में रहे।”

जिसका पति शत्रु द्वारा आहत जीवन मरण की घड़ियाँ गिनरहाहो वह पत्नी सैनिकों को युद्ध के आदर्श,उसकी मानवीय द्रष्टि की सीख दे रही है। यह अद्भुत धैर्य, संयम और चरित्र का उत्कर्ष ही है। पायें तुम से आज शत्रु भी ऐसी शिक्षा, जिसका अर्थ हो दण्ड और इति दया तितीक्षा(साकेत) यानी शत्रु को दण्ड देने और परास्त करने के बाद उसके साथ क्रूरता न बरतें ।वह सैनिकों से कहती हैं और सावधान करती हैं—“मातृभूमि का मान ध्यान में रहे तुम्हारे, लक्ष-लक्ष भी एक लक्ष्य तुम रक्खो सारे।”
वियोग में रीति कालीन नायिकाओं के हाथ पैर फूल जाते थे। पर वियोगिनी उर्मिला सेना का नेतृत्वकरने को तैयार उसपर“ठहरो मैं चलूँ कीर्ति से आगे-आगे, भीगे अपने विषम कर्म,ये अधम अभागे “ यह सब सुन योद्धा खिन्न हो उठते हैं “ क्या हम सब मर गए हैं, हाय जो तुम जाती हो,या हमको तुम आज दुर्बल पाती हो।”

विरहिणी उर्मिला का आदर्श बहुत ही ऊँचा है।उर्मिला का विरह अवधि था अत:शान्त था। उसमें आशा थी । इस लिए कामना का निषेध नहीं हो सका था। जहां तक सहन करने का प्रश्न है। उन्होंने सती और लक्ष्मी को भी पीछे छोड़ दिया है परन्तु ‘गेह’ चाहे न आवे ‘उसके लिए असह्य, अनिष्ट है, उसे मिलना है। इसी कारण उन्हें अपने व्यक्तित्व का एक प्रधान अंश यौवन अभी भूला नहीं है। परन्तु इस यौवन का-मूल्य उनके लिए नहीं है यह तो उनके प्रियतम की वस्तु है। “मन पुजारी और तन इस दुखनी का थाल,भेंट प्रिय के हेतु उसमें एक तू ही लाल।” उन्हीं के लिए विरहिणी ने चौदह वर्ष सहेजने का प्रयास किया है।आज मिलन के समय उसे न पाकर दीन होना स्वाभाविक ही है।“प्रिय जीवन की वह कहाँ वह चढ़ती बेला…?“
देखिए यह उर्मिला की अपनी ही हीनता है। पर शीघ्र ही लक्ष्मण के समझाने पर शान्त हो जाती हैं। उर्मिला का विश्व प्रेम दूसरी तरह व्यक्त होता हैं उर्मिला का संसार की तुच्छ से तुच्छ वस्तु में सद गुण देखती है।उन्हें कर्णिकार में त्याग की भावना दिखाई देती है। उनकी विरह में ईर्ष्या का अणुमात्र का भी स्पर्श नहीं है। उनके पास सहानुभूति का भंडार है। जिसके द्वार सबके लिए खुला है। लक्ष्मण की उर्मिला के विरह में मानवता की पुकार है—–


“लेकिन मानो विश्व विरह उस अन्त:पुर में, समा रहे थे एक दूसरे के वे डर में।”


मैथिली शरण गुप्त जी ने उर्मिला के चरित्र का चित्रण कर नारी के चरित्र को बहुत अच्छी तरह से उजागर कर दिया है । रीति काल के कवियों ने,नारी के सौन्दर्य को और उसके अंग विन्यास और वासनात्मक हाव भाव का चित्रण किया था। परन्तु द्विवेदी युगीन कवियों ने नारी की इस दयनीय स्थिति का अनुभव किया और नारी के रीति कालीन कविता की विकृत भावना तथा नर्गिस वासना से मुक्त कर नयी सामाजिक भावभूमि तैयार किया था यह एक बड़ा सराहनीय कार्य था। एक बात और राम रावण युद्ध में राम क्यों विजयी हुए थे, इसके अन्य कारणों के अलावा दो अन्य कारण भी थे।


पहला कारण—

राम और लक्ष्मण एक कोख से नहीं जन्मे थे और न भरत और राम ही। यही नहीं रावण का साम्राज्य बहुत बड़ा था। कौशल का साम्राज्य बहुत बड़ा नहीं था । राम की तुलना में रावण अधिक शक्तिशाली था। रावण और विभीषण एक ही माँ के कोख से जन्मे थे।विभीषण का प्रेम और समर्पण लक्ष्मण और भरत के मुक़ाबले कहीं नहीं ठहरता है। इतिहास इसका गवाह है।
दूसरी बात अगर हम उस घराने की महिलाओं की बात करें तो राम की सीता से ज़्यादा त्याग लक्ष्मण की पत्नी उर्मिला का था। कारण परिवार एकता के लिए सहयोग की भावना से प्रेरित होकर उर्मिला ने नव यौवनावस्था विवाहित जीवन छोड़ कर विरहिणी का जीवन स्वीकार किया था, यही सब कारण थे,जो उर्मिला के व्यक्तित्व को ऊँचाई प्रदान करते हैं। उनके व्यक्तित्व में सम्पूर्ण भारतीय नारी की महिमा और गौरव समाहित हैl आज की नारी को उनके जीवन से प्रेरणा और चरित्र से शिक्षा ग्रहण करनी चाहिए। क्योंकि आज के युग में परिवार के मसलों को लेकर पति पत्नी में विवाद और मतभेद इस हद तक बढ़ जाते हैं कि उनके बीच दूरियाँ ही नहीं बढ़ती है बल्कि अलगाव की स्थिति तक आ जाती है।धन्य हैं उर्मिला का चरित्र और व्यक्तित्व जो अपनी सम्पूर्णता में आज की महिलाओं के लिए अत्यंत अनुकरणीय चरित्र है। अयोध्या की राज वधू उर्मिला का अनुकरणीय चरित्र