वर्गीकरण या एकजुटता में ब्रेक

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वर्गीकरण या एकजुटता में ब्रेक
वर्गीकरण या एकजुटता में ब्रेक

अम्बुज कुमार

  1990 के दौर में मंडल कमीशन के कारण पिछड़े वर्गों में राजनीतिक एकता अपने चरम सीमा पर पहुंच गई थी, जिसके कारण पिछड़ों की सरकार कई राज्यों और दिल्ली में भी बन गई। बाद में कमंडल की राजनीति करके पिछड़ों में वर्गीकरण कर अति पिछड़ा बना दिया गया और क्रीमी लेयर के माध्यम से एकता छिन्न भिन्न कर दी गई। इसका नतीजा निकला कि 8 से 10 वर्षों में पिछड़ों की एकता तहस-नहस हो गई। वर्तमान समय में पिछड़ों में अनेक वर्ग बन चुके हैं, जो उन्हें कभी भी एकजुट नहीं होने देंगे। वर्गीकरण या एकजुटता में ब्रेक

मेरा तो मानना है कि यदि आज 27% ओबीसी का आरक्षण रद्द भी कर दिया जाए, तो पिछड़ा वर्ग ऐसा आंदोलन नहीं कर पाएगा, जिस तरह का आंदोलन आज सुप्रीम कोर्ट के एससी-एसटी में वर्गीकरण के राज्यों को दिए गए अधिकार के बाद देखने को मिला। पूरे देश में अभूतपूर्व बंदी देखने को मिली। अन्य बंदियों के समय जरूरतमंदों, साइकिल और बाइक वालों को अगल-बगल से होकर जाने की अनुमति रहती थी, लेकिन इस बंदी में मैं खुद अपनी आंखों से देखा कि लोग बाइक को भी नहीं जाने दे रहे थे। बाइकों की कतारें लग गई थी। लोगों ने बाईपास का सहारा लिया या वापस लौट गए।

एससी-एसटी में यही डर बना है कि क्रीमी लेयर के माध्यम से वर्गीकरण कर सरकार राजनीतिक एकता को तोड़ने जा रही है। यदि एक बार राजनीतिक एकता छिन्न भिन्न हो गई और अनेक टुकड़े हो गए तो उसके बाद इन्हें सत्ता के लिए एकजुट होना मुश्किल होगा। वर्तमान दौर में बिहार में अति पिछड़ा वर्ग अपने अधिकारों के प्रति बिल्कुल ही लापरवाह दिखता है। आरक्षण के सवाल को लेकर उसमें जागरूकता की भावना नजर ही नहीं आती है। पटना हाई कोर्ट द्वारा 65% आरक्षण  खत्म कर देने के बाद पिछड़ों, अति पिछड़ों को ही ज्यादा नुकसान होने की संभावना है, फिर भी कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई।

जानकारों का मानना है कि अति पिछड़ा वर्ग राजनीतिक अधिकारों के प्रति बोलना नहीं चाहता और वह नीतीश कुमार के प्रति अपनी प्रतिबद्धता खत्म नहीं करना चाहता । यही कारण है कि दो महीना पहले संपन्न लोकसभा चुनाव में तमाम समाज के प्रगतिशील लोगों द्वारा स्पष्ट कहा जा रहा था कि बीजेपी संविधान और आरक्षण को बदल सकती है लेकिन इसके बावजूद अति पिछड़ों और दलितों ने अपना विश्वास सरकार के प्रति ही बनाए रखा क्योंकि चिराग पासवान , जीतन राम मांझी, उपेंद्र कुशवाहा उसी ओर थे। यही कारण है कि बिहार में एनडीए की इज्जत बच गई ,अन्यथा केंद्र में सरकार नहीं बन पाती।

एक चीज बिल्कुल स्पष्ट हो गई है  कि बहुजन एकता की बात केवल नारों में दिखाई देती है। धरातल पर राजनीति में कहीं भी एससी, एसटी और ओबीसी, ईबीसी में एकता को नहीं देख सकते हैं।  सवर्ण केंद्रित राजनीति के ध्रुव बीजेपी के लिए यही संजीवनी का काम करती है। बीजेपी भली भांति जानती है कि हम सवर्ण को आगे कर राजनीति में नहीं टिक सकते , इसीलिए वह हर जगह जनसंख्या के अनुपात में और लोकप्रियता के अनुसार एक बहुजन नेता को खड़ा करती है और बहुजन हितैषी बनकर पूरा वोट ले लेती है। फिर अप्रत्यक्ष ढंग से सरकार में फ्रंट फुट पर बैटिंग करती है। बीजेपी के लिए आरक्षण और एससी एसटी ऐक्ट शुरू से ही खटकता है। उसके कोर वोटर इसके खिलाफ ही रहते हैं। आरक्षण व्यवस्था को अप्रासंगिक करने के लिए ही ईडब्ल्यूएस लाया गया था। अब तो पिछड़ों का एक तबका भी नुकसान को देखते हुए आरक्षण खत्म करने की बात करने लगा है।

इसी समय लैटरल इंट्री ने आग में घी का काम किया है। जनदबाव में वापस तो लिया गया है,लेकिन बाद में पूर्ण बहुमत की सरकार होने पर सख्ती से लागू किया जा सकता है। दलित और अति पिछड़ों वोटरों में यही चेतना विकसित नहीं हो पा रही है। हालांकि दलित चिंतक,प्रगतिशील तबके के लोग जागरूक करते हैं,लेकिन आम समाज पर असर नहीं दिखता है। जब यह सरकार अपनी वृति के अनुरूप कदम बढ़ाने लगती है,तब इन लोगों के पास सड़क पर निकलने के सिवाय दूसरा रास्ता नहीं बचता। अब सड़क पर निकलने की एक सीमा है। जब भीड़ सड़क पर आती है तो वह किसी भी प्रकार के कानून से बेफिक्र रहती है। वह बिल्कुल ही अराजक जैसी रहती है। गाली,गलौज, आगजनी, डंडा भंजन आदि आम बातें होती है। इन चीजों से प्रत्यक्ष रूप से आम जनता को ही समस्या होती है। जरूरतमंदों के विभिन्न कार्य छूट जाते हैं।किसी के रिश्तेदारी में इमरजेंसी कार्य छूट जाते हैं। इसलिए चेतना की जरूरत है, जिससे हमें बोध हो कि कौन वर्ग हमारा दोस्त है और कौन वर्ग हमारा बुरा चाहता है। इसके आधार पर राजनीतिक निर्णय लेने की जरूरत है। अब इस निर्णय से गरीब एससी एसटी को होने वाले लाभों के बारे में बताया जा रहा है तो इस पर भी विचार विमर्श होना चाहिए। संसद को भी संकल्प के माध्यम से चर्चा के लिए रखना जरूरी है। आरक्षण जैसे संवेदनशील मुद्दे पर न्यायादेश के माध्यम से व्यवस्था देश हित में नहीं होगी। वर्गीकरण या एकजुटता में ब्रेक