चुनाव से ही तय होता है सांप्रदायिक ध्रुवीकरण

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उत्तर प्रदेश में वोटिंग का जो पैटर्न रहा है उसे देखकर अनुमान लगाया जा सकता है कि इस बार के विधानसभा चुनाव में क्या संभावनाएं बनती हैं।समाजवादी पार्टी ने 2012 का चुनाव पूर्ण बहुमत के साथ जीता था,और उसे 29 फीसदी वोट मिले थे। ध्यान देने की बात है कि उस चुनाव में दूसरे नंबर पर भाजपा नहीं बल्कि बसपा रही थी, जिसके हिस्से में 26 फीसदी वोट आए थे और भाजपा 15 फीसदी वोट हासिल कर सकी थी।दो साल बाद 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा का वोट शेयर (अपना दल के साथ मिलकर) तीन गुना हो गया था और उसे 42 फीसदी वोट मिले थे। अपने अकेले के भाजपा का वोट शेयर 40 फीसदी था।

इसके दो कारण हो सकते हैं। पहला तो यह कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का नेतृत्व और करिश्मा सिर चढ़कर बोल रहा था वे अपने दम पर पूरे उत्तर भारत को भाजपा की तरफ खींचने में कामयाब रहे थे। दूसरा कारण यह हो सकता है कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश में हुई सांप्रदायिक हिंसा का असर भी था। 2013 के अगस्त और सितंबर महीने में मुज़फरनगर और शामली में एक के बाद एक हिंसा और बलात्कार की कई घटनाएं हुईं जिससे पूरे इलाके का ध्रुवीकरण हुआ और हजारों लोगों को जिनमें बहुतायत मुस्लिमों को रिलीफ कैंपों में में जाना पड़ा।इस ध्रुवीकरण का असर लंबे समय तक रहा और भाजपा का 2014 में लोकसभा और 2017 में विधानसभा का चुनाव प्रचार मुख्यता हिंसा को आधार पर बनाकर ही चला। मार्च 2017 में एक अखबार ने लिखा था कि इलाके के जाट वोटों का बंटवारा हुआ और भाजपा ने लोकदल को मिलने वाले जाट वोट हथिया लिए। रिपोर्ट के मुताबिक जाटों को समझाया गया कि भाजपा के खिलाफ दिया गया उनका हर वोट मुसलमानों की सरकार बनाने में मदद करेगा।बताया गया कि अमित शाह की जाट नेताओं के साथ हुई एक बैठक का ऑडियो जानबूझकर लीक किया गया जिसका जाट समुदाय पर गहरा प्रभाव पड़ा। दरअसल इस ऑडियो से जाटों को डरा दिया गया और इससे आधे से ज्यादा जाट वोट भाजपा के खेमे में चले गए। और जब 11 फरवरी को इस इलाके में चुनाव हुआ तो भाजपा के पक्ष में हिंदू वोटों का एकीकरण हो चुका था।

भाजपा फिर से 40 फीसदी वोटों के साथ राज्य में सत्ता में आ गई। एक अन्य बात जो इस चुनाव में असर डाल सकती थी, वह थी अर्थव्यवस्था। वोटिंग फरवरी 2017 में हुई, और नोटबंदी का ऐलान हुए कुछ ही सप्ताह बीते थे। पूरे देश में, खासतौर से गरीबों पर इस नोटबंदी का बेहद बुरा असर पड़ा था, लेकिन इसका भाजपा पर कोई विपरीत प्रभाव नहीं पड़ा और पार्टी का वर्चस्व कायम रहा।रोचक बात यह है कि सपा 2012 में उसे मिले वोट शेयर को बरकरार रखने में कामयाब रही, जबकि बसपा का वोट शेयर हाथों से फिसल गया। एक दूसरे के धुर विरोधी रहे सपा – बसपा 2019 में साथ आए और इससे लगा था कि भाजपा को उत्तर प्रदेश में खासा नुकसान होगा। लेकिन ऐसा नहीं हुआ और भाजपा का वोट शेयर न सिर्फ बरकरार रहा बल्कि उसने 50 फीसदी वोटों के साथ पूरे राज्य पर एक तरह से स्वीप किया। इसके पीछे कारण भारत द्वारा पाकिस्तान पर किया गया हमला माना गया। बालाकोट एयर स्ट्राइक फरवरी के अंत में हुई और वोटिंग इसके चंद सप्ताह बाद ही हुई। वैसे हम निश्चित तौर पर नहीं कह सकते कि भाजपा की जीत का यही कारण था, बिल्कुल उसी तरह जैसे हमें नहीं पता कि 2017 के चुनाव नतीजों पर नोटबंदी का कितना असर हुआ था।

हम सिर्फ अनुमान लगा सकते हैं कि भाजपा ने 2017 के चुनाव में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण पर कितना जोर दिया था, और उसकी राजनीति और वोट बैंक का यही मुख्य आधार भी है। अभी 28 जनवरी को उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री ने ट्वीट किया, “वे जिन्ना के पूजक हैं, हम सरदार पटेल के मानने वाले हैं, उन्हें पाकिस्तान प्यारा है और हम मां भारती के लिए अपने प्राण न्योछावर कर देते हैं। उत्तर प्रदेश चुनाव में इसका राजनीतिकरण करना चाहते हैं जिन्ना का नाम नहीं उछाला जाना चाहिए। इसके बजाय हमें किसानों के गन्ने की बात करना चाहिए।जिन्ना-पाकिस्तान और मुसलमानों का नाम उछालने का कारण साफ है कि भाजपा को इससे पहले भी फायदा हो चुका है और इसी कारण से वह इसे लगातार इस्तेमाल भी करती है। उत्तर प्रदेश को पूरी तरह जीतने के लिए भाजपा को अपने पिछले तीन चुनावों का वोट शेयर हासिल करना होगा। लेकिन कुछ फीसदी वोटों के नुकसान के बाद भी वह सिर्फ जीत तो हासिल कर सकती है, और शायद उसे 10 फीसदी के आसपास वोटों का नुकसान हो। समाजवादी पार्टी को रिकॉर्ड वोट शेयर हासिल होने की संभावना दिखती है, लेकिन यह स्पष्ट नहीं है कि वह भाजपा को रोक पाने में कामयाब होगी या नहीं। मेरा ऐसा कोई ग्राउंड एविडेंस का आधार नहीं है यह सिर्फ अतीत के आंकड़ों के आधार पर ही कह रहा हूं।

आखिरी बात जो देखने वाली है, वह है कि क्या कोई बाहरी फैक्टर भी इस चुनाव में है। किसानों का आंदोलन है जो एक साल चलने के बाद अभी नवंबर में ही खत्म हुआ है। उसेक अलावा केंद्र सरकार के खिलाफ रेलवे भर्तियों और केंद्रीय विभागों में नौकरियों को लेकर हो रहे ताजा विरोध प्रदर्शन हैं। कुछ समय पीछे जाएं तो कोविड की दूसरी लहर के दौरान हमें गंगा में तैरती लाशें दिखेंगी।उत्तर प्रदेश में बेरोजगारी बड़ा मुद्दा है।आज गावों में जानवरों की बड़ी समस्या किसानों के सामने है।जिस प्रकार सरकार दावा करती है कि देश-प्रदेश उन्नति कर रहा है अगर उन्नति है तो मुफ़्त रासन वितरण प्रशन चिन्ह लगता है। अब देखना यह है कि क्या सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के सामने यह सब अर्थहीन हो जाएगा….?