राजनीति में ब्राह्मणों की वापसी या रणनीति?

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उत्तर प्रदेश विधानसभा में अपनी कम ताकत को लेकर चुनाव पूर्व पार्टियों पर दबाव बनाने वाले ब्राह्मण समुदाय के लिए खुशखबरी यह रही कि इस बार विभिन्न पार्टियों से कुल 52 ब्राह्मण जीतकर विधानसभा पहुंचे हैं। ब्राह्मण प्रभावशाली वर्ग है, वह जिसका साथ देता है, उसकी चुनावों में बेहतर स्थिति होती है। यही वजह है कि सभी उसका साथ पाना चाहते हैं। जबकि राजपूत विधायकों की संख्या घटी है। कुल 49 ठाकुर एमएलए बनने में कामयाब हुए हैं। तीसरे नंबर पर कुर्मी बिरादरी है। पटेल और वर्मा जाति से कुल 41 सदस्य विधायक बनने में कामयाब हुए हैं। इसके बाद किसी एक जाति से सर्वाधिक विधायकों की संख्या मुसलमानों की है। इस समाज से इस बार 34 विधायक बने हैं। पंडितों का जलवा एक बार फिर कायम हो रहा है। संख्याबल की बात करें तो 46 ब्राह्मण विधायक भाजपा गठबंधन से जीते हैं, जबकि पांच सपा से और एक कांग्रेस से। इस तरह कुल 52 ब्राह्मण विधायक विधानसभा में पहुंचे हैं।

दरअसल सभी राजनीतिक दल ब्राह्मणों की ताकत को समझते हैं। ब्राह्मण वोकल होता है और अपने आसपास के दस वोटरों को प्रभावित कर सकता है। भले ही ब्राह्मणों की संख्या यूपी में 11-12 प्रतिशत हो, पर दमदारी से अपनी बात रखने की वजह से वह जहां भी रहे हैं, प्रभावशाली रहते हैं। क्या भाजपा लीडरशिप ने भी मान लिया है कि यूपी में ब्राह्मण उससे नाराज हैं? लेकिन उससे भी बड़ा सवाल यह खड़ा हुआ कि योगी सरकार में 10 ब्राह्मण मंत्री और विधानसभा में पार्टी के 46 ब्राह्मण विधायक होने के बावजूद भाजपा को अलग से ब्राह्मण कमिटी क्यों बनानी पड़ी? दरअसल सभी राजनीतिक दल ब्राह्मणों की ताकत को समझते हैं। ब्राह्मण वोकल होता है और अपने आसपास के दस वोटरों को प्रभावित कर सकता है। भले ही ब्राह्मणों की संख्या यूपी में 11-12 प्रतिशत हो, पर दमदारी से अपनी बात रखने की वजह से वह जहां भी रहे हैं, प्रभावशाली रहे हैं।

यही वजह है कि आजादी के बाद से 1989 तक यूपी को छह ब्राह्मण मुख्यमंत्री मिले। पहले की सियासत ही ब्राह्मण-मुस्लिम और दलित फैक्टर पर केंद्रित थी। पर मंडल आंदोलन से पिछड़ों का उभार हुआ और नारायण दत्त तिवारी के बाद कोई ब्राह्मण मुख्यमंत्री उत्तर प्रदेश को नहीं मिला। पर राम मंदिर आंदोलन के बाद से ब्राह्मण फिर से महत्वपूर्ण भूमिका में आ गए, वह जिसके साथ रहे, सत्ता उनके साथ रही।

सोशल इंजिनियरिंग का महत्वपूर्ण हिस्सा


2007 में बीएसपी पूर्ण बहुमत में ब्राह्मण दलित गठजोड़ से ही सत्ता में आ पाई थी। उस वक्त बीएसपी प्रमुख मायावती ने ब्राह्मण और दलित की सोशल इंजिनियरिंग का फॉर्म्युला बनाया और यह यूपी के सियासी इतिहास का सफलतम फॉर्म्युला साबित हुआ। पहली बार मायावती की पूर्ण बहुमत के साथ सरकार बनी। कहा जाता है कि 80 से 90 फीसदी तक ब्राह्मण बसपा के साथ जुड़ गए। दलितों की पार्टी कही जाने वाली बसपा में सतीश चंद्र मिश्रा को दूसरे नंबर का दर्जा दे दिया गया। आरोप लगते हैं कि 2009 में बसपा सरकार में तमाम लोगों पर एससी-एसटी के मुकदमे दर्ज हुए, जिनमें ब्राह्मण नाराज हो गए और वह 2012 के विधानसभा चुनावों में सपा प्रमुख अखिलेश यादव के साथ आ गए। 2017 में उन्होंने भाजपा का साथ दिया और उनकी पूर्ण बहुमत की सरकार बनाने में मदद की। विधानसभा में भाजपा के 46 ब्राह्मण विधायक जीतकर पहुंचे।

“ब्राह्मण समाज आज भी राजनीति में निर्णायक भूमिका निभाने वाला प्रभावशाली वर्ग है। जिस दल या नेता का झुकाव उसकी ओर होता है, उसकी चुनावी संभावनाएँ स्वतः प्रबल हो जाती हैं। शायद यही कारण है कि हर राजनीतिक दल उसके साथ खड़ा दिखना चाहता है।”

विपक्ष लगातार बीजेपी सरकार में ब्राह्मणों के उत्पीड़न का मुद्दा उठाते हुए उन्हें रिझाने की कोशिश में जुटा हुआ है। एसपी सरकार में मंत्री रहे पवन पांडेय आरोप लगाते हैं कि बीजेपी सरकार में ब्राह्मणों का सबसे ज्यादा उत्पीड़न हुआ है। योगी सरकार में उपमुख्यमंत्री बृजेश पाठक इन सारे आरोपों को खारिज करते हैं। वह कहते हैं कि सरकार से ब्राह्मणों की कोई नाराजगी नहीं है। संकट में सरकार हमेशा उनके साथ खड़ी रही है।