गैसचैम्बर बनी अनाथ दिल्ली की व्यथा

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गैसचैम्बर बनी अनाथ दिल्ली की व्यथा
गैसचैम्बर बनी अनाथ दिल्ली की व्यथा

डा. विनोद बब्बर 

अजीब दुर्योग है जब हमारे नेता स्वयं को श्रेष्ठ और दूसरो को नाकारा साबित करने के लिए मीडिया से सोशल मीडिया तक, मंच से महफिल तक बहुत चतुराई से शब्द बाण चला रहे हैं ठीक उसी समय अनेक नाथों वाली अनाथ दिल्ली को धुएं और जहरीली गैसों ने ढक लिया है मगर किसी के पास भी आत्मघात की ओर तरफ बढ़ते इस वातावरण से बचाव की कोई योजना नहीं है। कुछ वर्ष पूर्व दिल्ली की जहरीली दवाओं के लिए पंजाब को दोषी ठहरने वाले पंजाब में अपनी सरकार बनने के बाद से जिम्मेवारी हरियाणा पर डाल कर अपना पल्ला झाड़ रहे हैं। लेकिन घुट्टी सांसों के बीच दिल्ली वाले क्या करें..?  गैस चैम्बर बनी अनाथ दिल्ली की व्यथा

यूं उत्तर भारत में सर्दी में घना कोहरा होना सामान्य बात है लेकिन  सर्दी से पूर्व ही  कोहरे का कोहराम मचा दिखाई दे तो यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि हर तरफ जहरीला धुआं क्यों है? पंजाब और हरियाणा के किसानों द्वारा धान की फसल के बाद पराली जलाने को इसका तत्कालिक कारण बताया जा रहा हैं। सामान्य से कई गुना से भी अधिक प्रदूषित दिल्ली में आंखों में जलन, सांस लेने में कठिनाई के समाचार से बाहर से आने वाले पर्यटक तो अपना कार्यक्रम रद्द कर सकते है लेकिन दिल्ली वाले कहां जाये इसके बारे में सोचने की जरूरत न तो सत्ता वालों को है, न विपक्ष को और न ही उन लोगों को है जो बात-बेबात टीवी चैनलों पर तूफान खड़ा करते हैं।

विशेषज्ञों के अनुसार इस बार पवनों की दिशा भिन्न होने के कारण पंजाब में पराली जलाने से उत्पन्न धुआं पाकिस्तान की तरफ चला गया। इसी कारण इस बार लाहौर की स्थिति बहुत खराब रही। वहां ग्रीन लॉकडाउन के नाम पर मास्क पहनना अनिवार्य किया गया लेकिन अब सुनते हैं कि हवाओं का रुख उत्तर से दक्षिण की ओर होने के कारण से पाकिस्तान और पंजाब का धुआं दिल्ली की ओर बढ़ चुका है । इसलिए दिल्ली और दिल्ली एनसीआर में हवाएं अत्यंत जहरीली है लेकिन हमारे नेता फरवरी में होने वाले चुनाव जीतने के लिए एक बार फिर से दिल्ली को जन्नत बनाने के वादों में व्यस्त हैं।

पिछले वर्ष की भांति इस बार भी दिल्ली की हवाओं में बढ़ता प्रदूषण बताता है कि केवल दिवाली पर पटाखें बेचने पर प्रतिबंध के आदेश से प्रदूषण की समस्या हल होने वाली नहीं है। इसके लिए प्रदूषण बढ़ाने वाले प्रत्येक कारण की पहचान और उस पर नियंत्रण के लिए किये जाने वाले उपायों पर अध्ययन जरूरी है। एक अध्ययन के अनुसार विश्व में प्रदूषण से होने वाली कुल मौतों में  28 प्रतिशत भारत में होती हैं। यहां के अस्पतालों में अधिकांश मरीज दमा, अस्थमा और सांस की बीमारियों से रोगी आते हैं। सांस और फेफड़े संबंधी रोगों के कारण होने वाली मौतों की दर भी सर्वाधिक है। आंखो में जलन, सांस लेने में कठिनाई, घुटन से परेशान लोगों को कोई राहत देने वाला नहीं। केवल पटाखे ही नहीं, अनेक स्थानों पर वैध, अवैध फैक्ट्रियों की चिमनियों अपनी भूमिका का निर्वहन कर ही हैं तो सैनेट्री लैंड फिल पर कूड़े के जलते पहाड़ हैं।  लाखो वाहनों का प्रदूषण है। 

‘लांसेट कमीशन ऑन पॉल्यूशन एंड हेल्थ’ के अनुसार वर्ष 2015 में भारत में प्रदूषण के कारण लगभग 25 लाख लोग असमय काल के गाल में समा गये। लेकिन तब से अब तो स्थित कई गुनाभयंकर हो चुकी है।

 यह भी उतना ही सत्य है कि जिस गति से हमारे देश की जनसंख्या बढ़ रही है उसकी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए रफ्तार से विकास की ओर बढ़ रहा  प्रदूषण फैलाने वाले कारकों पर नियंत्रण सहज नहीं है। दुर्भाग्य  यह है कि आज वोट बैंक की राजनीति के दौर में किसी भी दल में इतना नैतिक साहस नहीं कि वह सभी समस्याओं के मूल कारण अर्थात् जनसंख्या नियंत्रण के लिए कानून बनाने की दिशा में आगे बढ़ सके। स्पष्ट है कि समस्याओं की चर्चा करना और उनका समाधान करना दो अलग -अलग विषय हैं। चर्चा के लिए तो मात्र कुछ शब्द चाहिए लेकिन समाधान के लिए दृढ़ इच्छा शक्ति चाहिए। दुर्भाग्य से इस मामले में हम  दीन- हीन है।  अनेक बार दीर्घकालिक समाज हित में शासक को अपनी लोकप्रियता की चिंता तक को ताक पर रखना पड़ता है। राजनैतिक लाभ-हानि से ऊपर उठने का साहस चाहिए। एक अगर समाधान की सोचे भी तो दूसरा उसकी खामियां ढ़ूंढ़ने लगता है। उसे जनविरोधी, लोकतंत्र विरोधी, फाजीवादी घोषित करने में जरा भी देरी नहीं करता। 

स्वयं को देश की समस्याओं के समाधान का एकमात्र विकल्प बताने वाले तथाकथित जननायकों से यह पूछना मना है कि केन्द्रित विकास क्यों? क्यों देश के हर जिले में रोजगार के अवसर उपलब्ध नहीं कराये गये? उनके इस अपराध के लिए रोजगार के लिए होने वाले पलायन के कारण ही दिल्ली तथा अन्य महानगरों पर दबाव बढ़ा है। नगरों में तेजी से घटते हरित क्षेत्र और बढ़ती झुग्गी बस्तियों और स्लम को बढ़ावा देने वाले अपना अपराध स्वीकारना तो दूर, इस संबंध में चर्चा को भी गरीब विरोध की ओर मोड़ने में माहिर हैं। वोट बैंक के मालिक बने रहने की चाह उन्हें मजबूर करती है कि स्वयं को नारे तक सीमित रखते हुए अमानवीय स्थितियों में रहने को विवश करोड़ों लोगों के जीवन स्तर में सुधार से स्वयं को दूर रखें। दिल्ली का जहरीली गैसों का चैम्बर बनना उसी सस्ती लोकप्रियता का प्रतिफल है। आज दिल्ली की हर सड़क रेहड़ी, पटरी, ई-रिक्शा से सकरी हो रही है। रही सही कसर लाखों वाहन पूरी कर रहे हैं। केवल प्रशासन ही नहीं, नागरिक के रूप में हम सब भी नियमों को पालन न करने के दोषी है। लगता है जैसे हमने कभी न सुधरने की कसम खायी है। हमारे रहनुमाओं को स्वयं को निरपराध साबित करने में विशेष दक्षता प्राप्त है। हम समस्याएं खड़ी करने के विशेषज्ञ हैं लेकिन उन समस्याओं के प्रभाव के समक्ष हमारी स्थिति मूकदर्शक वाली है। 

निजी वाहनों की भीड़ से दिल्ली की सड़कें परेशान हैं। मिनटों का सफर घंटों में तय होना रूलाता तो है पर चौकाता नहीं है क्योंकि अब यह सामान्य बात है। पर्यावरण में सुधार के लिए केवल इवन-ओड के प्रयोग काफी नहीं है। सड़कों के कम से कम दो लेन सार्वजनिक यातायात के लिए सुरक्षित करने तथा बसों की संख्या बढ़ाना आवश्यक है। बसों और मैट्रो किराये में कमी कर सड़को से निजी वाहनों की भीड़ और प्रदूषण को कुछ कम किया जा सकता है। बजट स्थिति का रोना रोने वालों को अपनी छवि चमकाने के लिए देशभर के समाचार पत्रों को दिए जाने विज्ञापनों पर होने वाले भारी भरकम खर्च का नहीं तो कम से कम प्रदूषण से होने वाले रोगों के उपचार पर होने वाले खर्च का तो हिसाब अवश्य लगाना चाहिए। इन आवश्यक सेवाओं की प्राथमिकता लाभ कमाना नहीं अपितु जनता को कम मूल्य पर अधिक से अधिक सुविधाएं प्रदान करना होना चाहिए।

बहुत संभव है एक फिर माननीय न्यायालय अथवा हमारे उदारमना शासक वर्तमान स्थिति पर चिंता व्यक्त करते हुए कोई नोटिस जारी कर दें अथवा विशेषज्ञों की उच्च अधिकार प्राप्त समिति बनाने की घोषणा करें जो यह दौर बीत जाने के बाद उपाय सुझायेगी कि प्रदूषण से मुक्ति के लिए क्या किया जाये लेकिन यह कोई नहीं बताया कि अब तक बनी समितियों के सुझावों का क्या हुआ? शायद वह निश्चिंत है कि पिछले सुझावों को लागू न कर पाने के लिए जब आज तक किसी को  जिम्मेवार नहीं ठहराया गया  और न ही किसी को दंडित किया। तो इस बार भी  कुछ होने वाला नहीं है। इसलिए दूसरों को जिम्मेवार ठहराकर स्वयं को पाक-साफ साबित करने में पूरी शक्ति लगाओ बेशक प्रदूषण का स्तर लगातार ऊंचा उठता जाये।

बड़े-बड़े वादों के बावजूद यमुना तो डुबकी लगाने लायक नहीं बना सके लेकिन दिल्ली की हवा को भी सांस लेने लायक न बना पाने पर शायद ही कोई शर्मसार होकर स्वयं को दोषी माने। चेहरे पर मास्क लगाना अथवा पानी की बोतल की तरह आक्सीजन की बोतले बाजार में उतारना कुछ लोगों को रूचिकर लग सकता है लेकिन खतरे की यह घंटी चिल्ला- चिल्ला कर कह रही है कि अब लोक लुभावन नहीं – कठोर कदम उठाने की आवश्यकता है। यदि चुनाव जीतना ही एकमात्र लक्ष्य है तो दिल्ली की हवा को सांस लेने लायक बनाने की भूल जाओ। 

पृथ्वी नदियां और आकाश में बढ़ते प्रदूषण को लगाम लगाने ही हो तो  सबसे जरूरी है बेलगाम बढ़ती जनसंख्या पर लगाम लगाना। इसके बिना न तो कानून का शासन संभव है और न ही पर्यावरण को सुधारा जा सकता है। स्वच्छ शुद्ध हवा में सांस लेना हर मनुष्य का अधिकार है। इसे जाति, धर्म, अमीर- गरीब अथवा ऊंच-नीच के नाम पर बाधित करने वालों को अयोग्य घोषित करने की पहल होनी ही चाहिए। वरना दिल्ली के बाद देश का हर नगर, गांव स्थाई रूप से जहरीली गैसों का घर बनकर बिना किसी भेदभाव के हम सभी को  अस्वस्थ, अक्षम और फिर हमेशा के लिए अनुपस्थित कर सकता है। वोट बैंक की राजनीति से भारत को मुक्ति मिले बिना धरती आकाश और जल में जहर बढ़ता ही रहेगा। माननीय उच्चतम न्यायालय कुछ को फटकार लगाएगा – नेता एक दूसरे को कटघरे में खड़ा करेंगे लेकिन परनाला वही का वही रहेगा। हे प्रभु ! आपने वादा किया था कि जब-जब अधर्म बढ़ेगा मैं आऊंगा । मृदा जल और  हवाओं में लगातार बढ़ रहे जहर को घटाने की कोशिश न करना भी तो अधर्म है। हे प्रभु एक बार फिर आकर प्रदूषणासुर – और उसको रोकने की अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ने वालों का जरूर कुछ करो। गैस चैम्बर बनी अनाथ दिल्ली की व्यथा