

लखनऊ। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने पिछले दिनों अपनी स्थापना के सौ साल पूरे कर लिये। किसी भी संस्था के लिये सौ साल का कार्यकाल एक माइल स्टोन की तरह है। इसी लिये सौ वर्ष पूरे होने पर पूरे देश में तरह तरह की चर्चाएं और बहसें सुर्खियों में रहीं। संघ ने अपने सौ वर्षों की उपलब्धियाँ गिनाईं, संगठन के विस्तार, अनुशासन और राष्ट्रनिर्माण में योगदान जैसे पहलुओं को बड़ी मजबूती से रखा। उसने यह बताया कि किस तरह से एक छोटे से समूह के रूप में 1925 में नागपुर से शुरू हुई यह यात्रा आज करोड़ों कार्यकर्ताओं तक फैली है। सौ वर्ष के लंबे सफर में संघ राजनीति, शिक्षा, समाज सेवा, धार्मिक-सांस्कृतिक क्षेत्र, आपदा प्रबंधन और ग्रामीण विकास तक हर क्षेत्र में सक्रिय भूमिका निभाता रहा है। किंतु इस शताब्दी पर्व की चमकदार तस्वीर में एक सवाल स्थायी रूप से उपस्थित रहा इन सौ वर्षों में देश की आजादी में संघ का कितना योगदान रहा। सौ साल के दौरान महिलाओं के हितों और उनकी भागीदारी के लिये संघ ने क्या किया। सौ साल के संघ पर आधी आबादी से दूरी का आरोप
दरअसल, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की संरचना और कार्यप्रणाली को देखने पर यह आभास होता है कि यह पूरी तरह पुरुषों के लिये बनाया गया संगठन है। शाखाओं में सुबह की प्रार्थना से लेकर शारीरिक व्यायाम, परंपराओं की चर्चा और वैचारिक प्रशिक्षण तक सभी कार्यक्रमों में पुरुषों की उपस्थिति ही दिखती है। संस्थापक डॉक्टर हेडगेवार से लेकर आज तक संघ का स्वरूप मुख्यतः पुरुष केन्द्रित रहा है। आरंभ में ही यह मान लिया गया था कि संगठन अनुशासन, राष्ट्रभक्ति और मूल्यबोध के आधार पर राष्ट्र निर्माण का एक माध्यम बनेगा, लेकिन महिलाओं की समान भागीदारी उसमें कहीं शामिल नहीं की गयी। यही कारण है कि जब हम इन सौ वर्षों को देखते हैं तो महिलाओं के योगदान की तस्वीर या तो धुंधली दिखाई देती है या फिर बिल्कुल अलग संस्थाओं के माध्यम से सामने आती है।
यह सच है कि महिलाओं के लिये प्रत्यक्ष संगठनात्मक रूप से ’राष्ट्रीय सेविका समिति’ की स्थापना की गई, जो संघ से वैचारिक रूप से जुड़ी हुई एक समानांतर संरचना है। परंतु यह अलगाव भी यह संकेत करता है कि महिलाओं को मुख्य संगठन में प्रवेश नहीं मिला। स्वयं सेवक संघ आज भी केवल पुरुषों के लिये शाखाएँ आयोजित करता है, वहीं सेविका समिति महिलाओं के लिये समान भूमिका निभाती है, लेकिन दोनों संगठनों की कार्यशैली और सामाजिक प्रभाव में भारी अंतर बना रहा। सेविका समिति भी अपनी जगह कार्यरत है, उसने कई क्षेत्रों में अपनी उपस्थिति दर्ज कराई है, लेकिन उसकी पहचान हमेशा संघ की ही छाया में रही। इसी लिये समाज में एक वर्ग ऐसा भी है जो कहता है कि किसी भी संस्था के सौ वर्ष पूरे होने का अर्थ केवल विस्तार और उपलब्धियों का आंकलन करना नहीं है, बल्कि पीछे मुड़कर यह देखना भी जरूरी है कि किन क्षेत्रों की उपेक्षा हुई और क्यों हुई।
उधर, संघ दावा करता है कि उसने तमाम आलोचनाओं के बाद भी देश भर में लाखों की संख्या में स्वयंसेवकों को प्रशिक्षित कर समाज सेवा में लगाया है। आपदाओं के समय राहत कार्य, शैक्षिक संस्थानों के संचालन, सांस्कृतिक आयोजनों और ग्रामीण क्षेत्रों में सेवा कार्यों में उसकी सक्रियता किसी से छिपी नहीं है। लेकिन जब यह सवाल उठता है कि महिलाओं के लिये संघ ने क्या किया, तो जवाब सीमित और टालमटोल भरा लगता है। महिलाओं के सशक्तिकरण, उनके रोजगार, शिक्षा, सुरक्षा और सामाजिक स्थानों पर सम्मान को सुनिश्चित करने के लिये संघ की कोई ठोस कार्ययोजना सामने नहीं आती। हाँ, वैचारिक स्तर पर वह कहता है कि ’नारी समाज का सम्मान है’, हिंदू परंपरा में स्त्रियों को माता का स्थान दिया गया है, और उन्हें संस्कृति की धुरी माना गया है। किंतु यह विचार व्यवहार और संगठनात्मक ढांचे में दिखाई नहीं देता।
आज के समाज में यह तथ्य सर्वमान्य है कि बिना महिलाओं की समान और सक्रिय भागीदारी के कोई भी आंदोलन या संगठन सम्पूर्ण नहीं माना जा सकता। फिर संघ जैसे विशाल संगठन में यह असमानता और भी गहरी दिखती है। इतने लंबे समय में, जब महिला शिक्षा से लेकर राजनीति और विज्ञान तक हर क्षेत्र में महिलाओं ने अद्वितीय उपलब्धियाँ हासिल कीं, तब संघ उस प्रवाह से खुद को दूर क्यों रखता रहा। यह प्रश्न आज अधिक गंभीर लगता है जब संगठन शताब्दी समारोह में अपनी उपलब्धियों का बखान करता है। इस पर कई विद्वानों और आलोचकों का मानना है कि संघ की परंपरागत सोच ने महिलाओं को संगठन के केन्द्र से दूर रखा है। पौराणिक कथाओं का हवाला देकर यह बताया जाता है कि स्त्री मुख्यतः गृह और परिवार की संरक्षिका है, वह पुरुष के साथ खड़ी होकर उसे समर्थ बनाती है, किंतु नेतृत्व और निर्णायक भूमिकाएँ पुरुषों को ही मिलती रही हैं। इसी दृष्टिकोण का परिणाम है कि शाखाओं में अब तक भी महिलाओं का स्थान तय नहीं हो पाया।
संघ से जुड़े लोगों से जब इस मुद्दे पर बातचीत की जाती है तो वह दलील देते हैं कि उनकी सेविका समिति अलग संस्था होने के बावजूद समान उद्देश्य लेकर काम कर रही है और महिलाओं की गतिविधियाँ उनके समाज में योगदान को स्पष्ट करती हैं। किंतु यह तर्क अधूरा लगता है क्योंकि कोई भी संगठन तभी स्पष्ट रूप से समानता का दावा कर सकता है जब वह पुरुष और महिला दोनों को एक ही मंच पर अवसर दे। समानांतर संगठन बनाना उस विभाजन को और गहरा ही करता है। आरएसएस को यह समझना चाहिए कि किसी संस्था के भीतर महिलाओं की गैर-मौजूदगी का असर उसके व्यापक सामाजिक अभियान पर भी पड़ता है। जब संगठन शिक्षा, संस्कृति और राजनीति तक हर ओर अपनी वैचारिक छाप छोड़ना चाहता है, तब उसकी शाखाओं में आधी आबादी की अनुपस्थिति सवाल खड़े करती है। ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में महिलाएँ आज सामाजिक और आर्थिक गतिविधियों की धुरी बनी हैं। उनकी शिक्षा, रोजगार और आत्मनिर्भरता को लेकर चले आंदोलनों ने भारतीय समाज की तस्वीर बदली है। ऐसे समय में संघ जैसी संस्था यदि उन्हें बराबरी का स्थान नहीं देती, तो यह कमी और भी स्पष्ट हो जाती है।
सवाल यह भी है कि महिला सहभागिता केवल संगठनात्मक स्तर तक सीमित क्यों रहे। संघ के वैचारिक दायरे में महिलाओं के लिये क्या दृष्टिकोण है, यह भी स्पष्ट होना चाहिए। क्या वे केवल सांस्कृतिक धरोहर की संरक्षिका हैं या स्वतंत्र नेतृत्व कर सकती हैं। क्या वे केवल गृहस्थ जीवन की परंपरागत भूमिका तक सीमित रहेंगी या सामाजिक और राजनीतिक मोर्चों पर आगे बढ़ेंगी। ऐसे सवालों पर संघ की चुप्पी कई बार उसे आलोचकों के कटघरे में खड़ा करती है। इतिहास गवाह है कि स्वतंत्रता आंदोलन से लेकर लोकतंत्र की मजबूती तक के हर संघर्ष में महिलाओं की सक्रिय भूमिका रही। उन्होंने जेल यात्राएँ कीं, सत्याग्रह में भाग लिया, शिक्षा और सामाजिक सुधार में योगदान दिया। किंतु संघ का इतिहास इस लिहाज से अलग दिखाई देता है। वहाँ महिला योगदान की कहानियाँ सामने नहीं आतीं। यह भी कहा जाता है कि संघ की शाखाओं में जो अनुशासन और प्रशिक्षण दिए जाते हैं, उससे महिलाओं के बजाय पुरुषों को राष्ट्र निर्माण की धुरी मान लिया गया। इस कारण महिलाएँ संगठन के मुख्य प्रवाह से दूर रह गईं।
आज जब संघ खुद को केवल एक सांस्कृतिक संगठन नहीं बल्कि राष्ट्र जीवन के हर क्षेत्र में सक्रिय शक्ति के रूप में प्रस्तुत करता है, तब यह प्रश्न और भी गंभीर हो जाता है कि महिलाओं को कब तक अलग-थलग रखा जाएगा। सौ वर्ष पूरे होने के उत्सव में यदि यह आत्म मूल्यांकन नहीं हुआ तो इसका अर्थ यह है कि संगठन अभी भी पुरानी सोच को ही ढो रहा है। भारत जैसे विशाल देश की सामाजिक संरचना में बराबरी, न्याय और सभी वर्गों की भागीदारी की अपेक्षा है। लोकतंत्र की मजबूती तभी होगी जब महिला और पुरुष समान रूप से नेतृत्व करें। संघ यदि स्वयं को राष्ट्र निर्माण की धुरी मानता है तो उसके लिए यह स्वीकार करना अनिवार्य है कि आधी आबादी को अलग नहीं रखा जा सकता। इस दिशा में परिवर्तन बिना देर किये करना ही समय की मांग है। संघ आलाकमान द्वारा संगठन के भीतर या बाहर से आये सुझावों को यदि गंभीरता से लिया जाए तो यह स्पष्ट होगा कि नारी शक्ति को केवल सम्मान की बातों में नहीं बल्कि वास्तविक नेतृत्व में स्थान देना होगा। यदि महिलाएं केवल भाषणों में ‘देवी स्वरूपा‘ कही जाती रहेंगी और शाखाओं में उनके लिये जगह नहीं होगी, तो यह विरोधाभास ही रहेगा।
लब्बोलुआब यह है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने अपने सौ वर्षों में बहुत कुछ हासिल किया, इसमें कोई संदेह नहीं। किंतु राष्ट्र के भविष्य की दृष्टि से आवश्यक है कि वह यह स्वीकार करे कि उसके सफर में महिलाओं की भागीदारी न के बराबर रही है और इसे बदलना ही होगा। एक नयी दृष्टि और नये संकल्प के साथ यदि संगठन अपने सौ वर्ष पूरे होने के अवसर को आत्ममंथन और सुधार का क्षण माने, तभी यह यात्रा आगामी शताब्दी में अधिक व्यापक और संतुलित हो पाएगी। अन्यथा यह प्रश्न हमेशा रहेगा कि इतने बड़े संगठन ने आधी आबादी को क्यों हाशिये पर रखा।
यह प्रश्न केवल संघ की कमियों का उल्लेख नहीं करता बल्कि पूरे समाज को यह आईना दिखाता है कि जब तक हम महिलाओं की भागीदारी को औपचारिक और वास्तविक रूप से बराबरी पर नहीं लाते, तब तक प्रगति का दावा अधूरा ही रहेगा। संघ की सौ साल की यात्रा इस दृष्टि से प्रेरणा के साथ-साथ चेतावनी भी है कि कौन-से रास्ते अधूरे छोड़ दिए गए हैं और आगे की सुध किस प्रकार ली जानी चाहिए। बहरहाल, आने वाले समय में महिलाओं की अनदेखी के प्रति संघ की ओर से इसका उत्तर यही होना चाहियें कि संगठन महिलाओं को बराबर की जगह दे और उनके नेतृत्व को मान्यता दे। वरना इतिहास यह लिखेगा कि देश का सबसे विशाल संगठन सौ वर्षों की यात्रा तय करने के बाद भी आधी आबादी को अपनी शाखाओं और नेतृत्व से दूर रखता रहा। सौ साल के संघ पर आधी आबादी से दूरी का आरोप