अद्वैतवादी अद्वितीय है शंकराचार्य

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अद्वैतवादी अद्वितीय है शंकराचार्य
अद्वैतवादी अद्वितीय है शंकराचार्य
हृदयनारायण दीक्षित
हृदयनारायण दीक्षित

  शंकराचार्य छठी सदी के मध्य जन्मे थे। अतिविशिष्ट महानुभावों के जन्म स्थल और जन्म तिथि पर अक्सर विवाद रहता है। आर. जी. भंडारकर के अनुसार शंकराचार्य का जन्म सन 680 में हुआ था। प्रख्यात विद्वान मैक्समूलर के अनुसार शंकर का जन्म 788 ईस्वी में हुआ था। यही तिथि मैकडनल को भी मान्य है। शंकराचार्य का जीवन अल्पकाल का था। इस अल्पकाल में उन्होंने दुनिया के सभी विद्वानों की तुलना में सभी विषयों पर बड़ा काम किया। ज्ञान और कर्म दोनों ही उनके जीवन में शीर्ष पर पहुंचे। डॉक्टर राधाकृष्णन ने ’भारतीय दर्शन’ (हिंदी अनुवाद पृष्ठ 384) में लिखा है कि, ”अपनी बाल्यावस्था में ही 8 वर्ष की आयु में उन्होंने गहन अभिलाषा प्रसन्नता के साथ सब वेदों को कंठस्थ कर लिया था। वे प्रकट रूप में वैदिक ज्ञान तथा स्वतंत्र प्रज्ञा से युक्त तेजस्वी व्यक्ति थे। वे सन्यासी हो गए थे। किन्तु वीतरागी परिव्राजक नहीं थे।” अद्वैतवादी अद्वितीय है शंकराचार्य

आचार्य गृहस्थ जीवन त्याग कर राग द्वेष से मुक्त होकर एकांतवास करने वाले सामान्य योगी नहीं थे। मजेदार बात है कि दर्शन में संसार को मिथ्या सिद्ध करने वाले आचार्य शंकर संसार और समाज को सत्य और आनंद से भरने के लिए सक्रिय थे। इसी लिए उन्होंने पूरे भारत का भ्रमण किया था। उन्होंने जगह-जगह प्रवचन किए। तर्क हुए। सत्य का विशुद्ध प्रकाश था उनके अन्तस्तल में। एक आचार्य के रूप में उन्होंने स्थान स्थान पर भ्रमण किया। विभिन्न मतों के नेताओं के साथ संवाद और शास्त्रार्थ हुए। परंपरागत वर्णनों के अनुसार, वे अपनी विजय यात्राओं में कुमारिल और मण्डन मिश्र के संपर्क में आए। आगे चलकर मण्डन मिश्र उनके शिष्य बने। अमरूक के मृत शरीर में शंकर के प्रवेश करने की कहानी यह प्रकट करती है कि शंकर योग सम्बंधी क्रियाओं में निपुण थे। उन्होंने राष्ट्र की सांस्कृतिक एकता के लिए चार मठों की स्थापना की। जिनमें मुख्य मैसूर प्रांत में श्रृंगेरी में है। अन्य तीन मठ क्रमशः पूर्व में पुरी में, पश्चिम में द्वारका में और हिमालय प्रदेश में बद्रीनाथ में है।

समूचे विश्व में दो दिन पहले प्रख्यात दार्शनिक शंकराचार्य की जयंती के उत्सव आयोजित हुए हैं। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने आदि शंकराचार्य की जयंती के अवसर पर लोगों को संबोधित करते हुए बताया कि तीन वर्ष पूर्व सितंबर में उन्हें आदि शंकराचार्य के पवित्र जन्मस्थान का दौरा करने का सौभाग्य मिला था। आदि शंकराचार्य की भव्य प्रतिमा उनके संसदीय क्षेत्र काशी में विश्वनाथ धाम परिसर में स्थापित की गई है। प्रतिमा आदि शंकराचार्य के विशाल आध्यात्मिक ज्ञान और शिक्षाओं के प्रति सम्मान है। प्रधानमंत्री ने उत्तराखंड के पवित्र केदारनाथ धाम में आदि शंकराचार्य की दिव्य प्रतिमा का अनावरण करने का भी उल्लेख किया। मोदी ने रेखांकित किया कि केरल से निकलकर आदि शंकराचार्य ने देश के विभिन्न भागों में मठों की स्थापना करके राष्ट्र की चेतना को जगाया। उन्होंने एकीकृत और आध्यात्मिक रूप से प्रबुद्ध भारत की नींव रखी। शंकराचार्य ने भारत के अद्वैत दर्शन को लेकर तमाम अभियान चलाए थे। उन्होंने देश की सांस्कृतिक एकता के लिए लगातार अभियान चलाए। उत्तर, दक्षिण, पूरब, पश्चिम एकात्म ब्रह्म-दर्शन की धूम थी। शंकराचार्य विरल थे। अविश्वसनीय शिखर ऊँचाई से भी ऊंचे। पाताल की गहराई से भी गहरे। ब्रह्म की तरह प्रज्ञानी।

उन्होंने अद्वैत दर्शन के सूक्ष्म सूत्रों का भाष्य किया। उन्होंने ज्ञान के समकालीन मानदण्डों, विश्वास व प्राचीन सूत्रों का प्राचीन परंपराओं के साथ समन्वय किया। शंकराचार्य के समय की परिस्थितियाँ विचारणीय हैं। दक्षिण भारत में बौद्ध धर्म का ह्रास हो रहा था। जैन मत शिखर पर था। वैदिक परंपरा का भी ह्रास हो रहा था। शैव मतावलंबी भक्त (उदियार) और वैष्णव मत वाले भक्त (आलवार) भक्ति मार्ग का प्रचार कर रहे थे। मंदिरों में पूजा, पाठ, पर्व, त्यौहार प्रचलित थे। कुमारिल और मण्डन मिश्र ने अपने बौद्धिक ज्ञान के बल पर ज्ञान और सन्यास के महत्व को कम किया था। दोनों ने गृहस्थ आश्रम की उपयोगिता पर अधिक बल दिया था। इसी वातावरण में शंकराचार्य की प्रतिभा का विस्फोट हुआ था। वे सनातन धर्म के रक्षक थे और रूढ़ियों के विरोध में अभियान चला रहे थे। पूरे देश में वैदिक दर्शन की जगह पुराण ले रहे थे। शंकराचार्य ने पुराणों के प्रकाशमान स्वर्ग आकांक्षी युग के स्थान पर उपनिषदों के सत्य को फिर से लौटा लाने का अभियान चलाया। उन्होंने संपूर्ण भारत में धर्मसत्य को प्रवर्तित करने का काम किया। धर्म की शक्ति को बड़ा बताया।

डॉ. राधाकृष्णन ने लिखा है कि, ”उन्होंने अपने युग को धार्मिक दिशा में मोड़ने के प्रयत्न करने में अपने को विवश पाया। इसकी सिद्धि उन्होंने एक ऐसे दर्शन व धर्म की व्यवस्था के द्वारा सम्पन्न की जो बौद्ध धर्म, मीमांसा तथा भक्ति धर्म की अपेक्षा जनता की आवश्यकताओं को कहीं अधिक सन्तोषप्रद सिद्ध हो सकती थी। आस्तिकवादी सत्य को भावावेश के कुहरे से आवृत्त किए हुए थे। रहस्यवादी अनुभव प्राप्त करनेवाली अपनी प्रतिभा से सम्पन्न वे लोग जीवन की क्रियात्मक समस्याओं के प्रति उदासीन थे। मीमांसकों द्वारा कर्म के ऊपर दिए गए बल से एक आत्मविहीन क्रियाकलाप का विकास हुआ।“

वस्तुतः धर्म जीवन के अंधकारमय संकटों का सामना करके केवल उसी अवस्था में जीवित रह सकता है जब यह उत्तम विचार का उत्तम परिणाम हो। शंकर की सम्मति में, अद्वैत दर्शन ही एकमात्र परस्पर विरोधी सम्प्रदायों में निहित सत्य है। वही उसकी न्यायोचितता का प्रतिपादन कर सकता है। उन्होंने अपने सब ग्रन्थों का निर्माण एक ही उद्देश्य को लेकर किया, अर्थात जीवात्मा को ब्रह्म के साथ अपने एकत्व को पहचानने में सहायक सिद्ध होने के लिए और यहीं इसी संसार में मोक्ष प्राप्ति का उपाय है।

उन्होंने केरल के अपने जन्म स्थान दक्षिण से उत्तर की यात्रा की। उत्तर में हिमालय तक उन्हें पूजा व उपासना के अनेक रूप देखने को मिले। उन्होंने सभी उपासना पद्धतियों को स्वीकार किया। अभियान में संपूर्ण मानवता को उच्चस्तरीय मेधा संपन्न बनाने का ध्येय था। उन्होंने सनातन धर्म के सभी देवताओं की उपासना को उचित ठहराया। विष्णु, शिव, शक्ति (देवी) और सूर्य आदि प्रकाशमान देवताओं के लिए विशेष छंदों की रचना की। तत्कालीन धर्म आचार में नए प्राण डालने का काम किया। उन्होंने दक्षिण भारत में शक्ति पूजा की मूर्त रूप अभिव्यक्ति को उचित नहीं पाया। शरीर को विविध चिन्हों से दागने की प्रथा को भी अनुचित ठहराया।

महापुरुषों के जीवन में अंतर्विरोध होते हैं। आचार्य शंकर के जीवन में, श्रीराम के जीवन की तरह विरोधी भावों का समन्वय है। श्रीराम कोमल हैं, तो युद्ध में कठोर भी हैं। वे सामान्य मानवों की तरह विचलित होते हैं और ऐश्वर्यवान देवता की तरह निर्लिप्त भी हैं। शंकराचार्य समाज सुधारक हैं। ज्ञान प्रचारक हैं। कवि हैं। परम विद्वान और ज्ञानी पंडित भी हैं। योगी हैं। शैव हैं। संत हैं और वैरागी भी हैं। तरुणाई में वे परम जिज्ञासु बौद्धिक हैं। वस्तुतः वे प्रशांत अद्वैतवादी हैं और ज्ञान को ही मुक्ति का उपाय बताते हैं, लेकिन भक्ति को त्याज्य नहीं बताते। अद्वैतवादी शंकर की प्रतिभा अद्वितीय है। डॉक्टर राधाकृष्णन ने सही कहा है कि, ”वे हमारी जानकारी से ज्यादा महान हैं। सामाजिक क्षेत्र में उनके समान मेधावी बहुत कम हैं।” अद्वैतवादी अद्वितीय है शंकराचार्य