भारत त्योहारों का देश

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भारत त्योहारों का देश
भारत त्योहारों का देश

दीपावली हमारे जीवन पर नकारात्मक प्रभाव डालने वाले तमाम तरह के अंधेरे दूर करने का पर्व है। किसानी संस्कृति के उल्लास और ऋतुचक्र में बदलाव के बीच यह त्योहार आता है। दुनिया की डगमगाती अर्थव्यवस्थाओं के बीच जब कई देशों में मंदी का साया है, तब हमारा बाजार दीपावली पर गुलजार दिखाई देता है। शेयर बाजार का उछाल हमारी मजबूत होती आर्थिकी का संकेत है। सही मायनों में यह त्योहार हमारी अर्थव्यवस्था में प्राणवायु का काम करता है। नया खरीदने का उत्साह न केवल उपभोक्ताओं को रोमांचित करता है, बल्कि बाजार में भी नई ऊर्जा का संचार कर जाता है। भारत त्योहारों का देश

त्योहारों का देश भारत, ऐसे उत्सवों के गहरे निहितार्थ जानता है—सामाजिकता के भी और आर्थिकी के भी। भले ही किसी राज्य या क्षेत्र में त्योहार का स्वरूप व कथा भिन्न हो, लेकिन उसका मर्म एक ही है—जीवन में उल्लास भरना और रिश्तों में अपनापन जगाना। महानगरीय समाज के एकाकी होते जीवन में ये त्योहार रंग और संवाद के अवसर बनकर आते हैं। दीपावली पर मित्रों व रिश्तेदारों को शुभकामनाएँ देना, भले ही साल में एक-दो बार ही हो, सामाजिक संबंधों की लौ जलाए रखता है। सही अर्थों में ऐसे पर्व हमारे समाज के सेफ्टी वॉल्व हैं, जो संवाद और अपनापन जीवित रखते हैं।

पश्चिमी देशों व महानगरीय समाज में बढ़ते मनोरोगों की जड़ सामाजिक कटाव है। संवाद का अभाव हमें एकाकी बनाता है, जबकि समाज का विकल्प सोशल मीडिया नहीं हो सकता। जीवंत जीवन मधुर संबंधों से चलता है, संपन्नता सामाजिकता का विकल्प नहीं बन सकती। गतिशीलता—चाहे समाज की हो या शरीर की—जीवंतता की निशानी है।विडंबना यह है कि समय के साथ हमारे प्रकाश पर्व को कृत्रिमता ने घेर लिया है। अमीरी का फूहड़ प्रदर्शन और दिखावे की प्रवृत्ति त्योहार के मर्म से छल है।

इस पर्व से जुड़ा एक स्याह पक्ष भी है—मुनाफाखोरी का बाजार। कुछ कारोबारी उपभोक्ताओं की खरीदारी की लहर का फायदा उठाकर ऐसे उत्पाद निकालते हैं जो वर्षभर नहीं बिके। नकली मावे और मिलावटी मिठाइयों का जाल हर साल फैलता है। पंजाब समेत देश के कई हिस्सों में नकली मावा बरामद होना इसका प्रमाण है। जांच एजेंसियों की निष्क्रियता और भ्रष्टाचार इस समस्या को और बढ़ाते हैं। पिछले वर्ष लंपी वायरस से बड़े पैमाने पर गौवंश की हानि के बावजूद बाजार दूध, मावे और पनीर से भरे हैं—यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि यह सब कहाँ से आ रहा है। यदि यह समृद्धि कृत्रिम स्रोतों से है तो यह समाज और स्वास्थ्य दोनों के लिए हानिकारक है।

साथ ही, पर्यावरणीय चिंता भी अनदेखी नहीं की जा सकती। दिल्ली और एनसीआर हाल के वर्षों में स्मॉग के चलते गैस चैंबर में बदल गए। अदालतों के निर्देशों के बावजूद पटाखों की आवाज़ें थम नहीं रहीं। पर्यावरण संरक्षण केवल सरकार का नहीं, हर नागरिक का दायित्व है। हमें अपने अधिकारों के साथ कर्तव्यों का भी पालन करना चाहिए—उन लोगों को याद करते हुए जो साँस की बीमारियों से जूझ रहे हैं, और उन पशु-पक्षियों को भी, जिनकी दुनिया हमारे उत्सवों की कीमत पर संकट में आती है। आख़िरकार, खुशी पटाखों की आवाज़ में नहीं, हमारे मन की स्थिति में बसती है। जब हमारे भीतर प्रकाश जलेगा, तभी दीपावली का असली उजास हमारे जीवन को आलोकित करेगा। भारत त्योहारों का देश