विद्याथियों के लिए गीता का महत्व

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विद्याथियों के लिए गीता का महत्व
विद्याथियों के लिए गीता का महत्व

डाविनोद बब्बर 

गीता केवल हमारे लिए नहीं, सम्पूर्ण विश्व के लिए है। मानवमात्र की हित चिंतक है गीता। उसे किसी काल विशेष से भी बांधा नहीं जा सकता क्योंकि सर्वकालीन है गीता।हर युग, हर देश, हर परिवेश, हर समाज, हर आयु वर्ग के समक्ष चुनौतियां अपनी उपस्थिति दर्ज कराती रहती हैं। कुछ लोग इन चुनौतियांे के समक्ष घुटने टेक देते हैं परंतु अधिकांश उनसे पार पाने का प्रयास करते हैं। न जाने क्यों, कर्म करने का उतना तनाव नहीं, जितना कर्म फल का होता है।  कुछ तनावग्रस्त होते हैं तो कुछ तनावों पर नियंत्रण करते हुए केवल कर्म करते रहने के संकल्प पर दृढ़ रहते हैं।
एक विद्यार्थी के लिए भी गीता का महत्व है। आज की शिक्षा प्रणाली में किसी भी विद्यार्थी की योग्यता, प्रतिभा को मांपने का एकमात्र तरीका परीक्षा में प्राप्त अंक हैं। अतः यह स्वाभाविक ही है कि परीक्षा, विशेष रूप से बोर्ड की परीक्षा में पहली बार भाग लेने वाले छात्रों की दशा अर्जुन जैसी होती है। पहली बार अपने विद्यालय से दूर, बिल्कुल अलग परिवेश, चारों ओर औपचारिकता जैसी कड़ी सुरक्षा व्यवस्था के बीच एक निश्चित समय में अधिकतम अंक प्राप्त करने की लड़ाई लड़ने के लिए मैदान में उतरे एक किशोर की व्यथा को समझना मुश्किल नहीं है। नये तरह के ढेरो प्रश्न।

 अधिकांश के उत्तर वह जानता है लेकिन उलझ जाता है कि किसे पहले? लेकिन कैसे आदि-आदि। उसे स्वयं की स्मरण शक्ति और क्षमता पर संदेह होने लगता है। तनावग्रस्त छात्र परेशान होता है क्योंकि वह नहीं जानता कि महात्मा गांधी ने कहा है, ‘जब शंकाएं मुझ पर हावी होती हैं, और निराशाएं मुझे घूरती हैं, आशा की कोई किरण नजर नहीं आती, तब मैं गीता की ओर देखता हूं।’
प्रतियोगिता, परीक्षा और तनाव के संबंध में सभी जानते हैं। सबने अपने अपने समय में इसका अनुभव अवश्य किया है। तनाव होना तब तक सामान्य बात है जब तक तनाव का स्तर सामान्य रहे। असामान्य तनाव का अर्थ है- हमारी अपनी बुद्धि ही हमारी सबसे बड़ी दुश्मन हो जाये।
बस इस संतुलन को बरकरार रखने की कला हमें गीता से ही मिल सकती है। वह शिक्षा व जीवन में व्यावहारिक बनने की प्रेरणा देती है। आज के प्रतियोगी जीवन में हमें एक प्रेरक चाहिए। जो हमें समय प्रबंधन सिखाये, तनाव नियंत्रण के गुर बताये। श्रीकृष्ण एक महान प्रेरक हैं। और उनके श्रीमुख से प्रवाहित गीताज्ञान अज्ञान के अंत के लिए ही है। सोशल मीडिया, स्मार्ट फोन, इंटरनेट आदि की तकनीकी तो अभी आई हैं लेकिन महाभारत काल में भी इसकी झलक मिलती है। परिस्थितियां प्रमाण है कि ‘टेलीपैथी’, ‘दिव्यदृष्टि’ प्राप्त की जा सकती है अगर हम अपने कर्तव्यों को लेकर गंभीर रहें, आत्मविकास करें। यही बात एक विद्यार्थी को समझनी है कि गीता हमें स्मार्ट बनना सिखाती है। ऐसा होकर ही हम अपने जीवन की मूर्खताओं को पहले ढकते हैं और फिर अनुभव से उनसे छुटकारा पाते हैं।

 कृष्ण कोई और नहीं, बल्कि हमारी चेतना है और तनावों, शंकाओं, विकारों से घिरा हमारा मन अर्जुन है। जो प्रश्न तब थे, वही अब भी हैं। हमारे हर सवाल का जवाब हमारे विवेक के पास है लेकिन विवेक सोया है, तो जवाब नहीं मिल सकता। गीता विवेकवान बनाती है। जिसका विवेक जागृत हो जाता है, उसका जीवन सफलता और प्रेरणा का गीत बन जाता है।
श्रीमद्भगवद् गीता हमें स्वयं में विश्वास और ईश्वर में आस्था की प्रेरणा देते हुए सिखाती है कि हमें मैदान छोड़कर भागना नहीं है, बल्कि रचनात्मक बनना है। परिणाम का तनाव छोड़कर अपने कर्तव्य पथ पर चलते रहने वाला ही जीवन का आंनद प्राप्त करता हैं। तकनीक के विकास को अपना विकास मानने के कारण ही तो हम अपना आंतरिक विकास करना भूल गये है। इसी कारण किशोर छात्र के सामने काम, क्रोध, मद, मोह, मत्सर और अहंकार रूपी भाव तो हैं ही, अपसंस्कृति, नशा, कामुकता, विदेशी शक्तियों के भ्रमजाल, देशद्रोही विचारधारा जैसे अनेक शत्रु प्रलोभन और आकर्षण के साथ विद्यमान हैं। आज भी एक अपरिपक्व युवा उस अर्जुन की तरह उन्हें अपना मानते हुए उनसे युद्ध करने को सहज तैयार नहीं है। उसे इस फिसलन भरे वातावरण से निकलने और बचाने का काम श्रीमद् भागवत गीता ही कर सकती है।विश्व के श्रेष्ठ ग्रंथों में शामिल गीता, न केवल सबसे ज्यादा पढ़ी, बल्कि कही और सुनी भी जाती है। द्वितीय अध्याय का 47 वां और सबसे अधिक प्रचलित श्लोक है-
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन। मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि।।
चतुर्थ अध्याय का 39 वां श्लोक कहता है-
श्रद्धावान्ल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः। ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति।।

भगवान श्रीकृष्ण ने गीता के दसवें अध्याय के 20वें श्लोक में कहा है –

अहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थितः। अहमादिश्च मध्यं च भूतानामन्त एव च।।

हे गुडाकेश सम्पूर्ण प्राणियों के आदि, मध्य तथा अन्त में भी मैं ही हूँ और प्राणियों के अन्तःकरण में आत्मरूप से भी मैं ही स्थित हूँ। 

यह सर्वविदित है कि अर्जुन और श्रीकृष्ण का संबंध गुरु-शिष्य का है। गुरु अपने शिष्य को गुडाकेश कहकर संबोधित कर रहे हैं। इस श्लोक में अर्जुन के लिए गुडाकेश शब्द का उपयोग किया गया है जिसका अर्थ है  नींद को जीतने वाला । हमारे सभी विद्यार्थियों को गुडाकेश अर्थात नींद को जीतने वाला होना चाहिए । विद्यार्थी के पांच लक्षणों में भी इसका उल्लेख है  –

काक: चेष्टा, बको ध्यानं, श्वान निद्रा तथैव च। अल्पाहारी, गृहत्यागी, विद्यार्थी पंचलक्षणम् ॥

विद्याार्थी की यहां श्वान निंदा शब्द का अर्थ है कुत्ते की तरह कम सोना और सतर्क रहना।

विदेश यात्रा के दौरान छात्रों के एक दल से संवाद हुआ। उन्होंने पूछा, ‘गीता क्यों जरूरी है?’ तो मैंने उनसे पश्चिमी देशों में तेजी से बढ़ रहे अवसाद और अवसाद के कारण वहां करोड़ो डालर/ यूरो की दवाओं का व्यापार होने की चर्चा करते हुए कहा, ‘आपके देशों में छात्र द्वारा परीक्षा में असफलता जैसी छोटी-छोटी बातों पर भी आत्महत्या के मामले सामने आते हैं क्योंकि वहां प्रतिकूल परिस्थितियों को सहज स्वीकार करने का अभ्यास नहीं है। जबकि गीता ने हमें सिखाया है कि तुम्हारा अधिकार केवल कर्म पर है, फल पर नहीं। यदि किसी कारण से कर्म फल आपेक्षा से कम अथवा शून्य हो तो भी हम बहुत विचलित नहीं होते। आंसू पोंछ कर आगे बढ़ना हमारे डीएनए में हैं जो हमें गीता ने सिखाया है। गीता के महत्व पर जब आप चिंतन-मनन करेंगे तो आपको समझ में आएगा कि एक ‘गीता’ का संदेश हजारों अस्पताल और टनों अवसाद की दवाओं पर भारी है।’ कहना न होगा, दुनिया भर के लोग भारतीय संस्कृति की इस अमूल्य देन से अभिभूत है इसीलिए तो दुनिया भर में आपको ‘हरे कृष्णा, हरे रामा’ गाते-झूमते लोग दिखाई देते हैं।