

देश की राजधानी होने के नाते दिल्ली की जनता के लिए स्वास्थ्य और शिक्षा जैसी बुनियादी सुविधाएँ हमेशा से अहम रही हैं। ये अलग बात है कि जनता को हमेशा झुनझुना ही मिलता रहा है। दिल्ली की सत्ता पर 11 साल काबिज रहे अरविंद केजरीवाल की अगुवाई वाली आप सरकार ने जनहित के कामों को करने की जगह ढिंढोरा ही पीटा क्योंकि अब नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (सीएजी) की रिपोर्ट्स आ रही हैं जिससे केजरीवाल सरकार की करतूतें उजागर हो रही हैं। इन रिपोर्ट्स को अरविंद केजरीवाल या आतिशी के मुख्यमंत्री रहते विधानसभा में पेश ही नहीं किया गया। केजरीवाल सरकार की कर्मठता और सीएजी रिपोर्ट के काले पन्ने
सीएजी की दो नई रिपोर्ट्स ने दिल्ली की स्वास्थ्य सेवाओं और सामाजिक योजनाओं की पोल खोल दी है। पहली रिपोर्ट में दिल्ली की स्वास्थ्य व्यवस्था की बदहाली सामने आई है जिसमें सरकारी अस्पतालों में आईसीयू , एंबुलेंस और बेड की कमी से लेकर कोविड-19 के दौरान फंड के दुरुपयोग तक की बातें शामिल हैं। दूसरी सीएजी रिपोर्ट ने दिल्ली सरकार की लाडली योजना में 220 करोड़ रुपये से ज्यादा की गड़बड़ियाँ उजागर की हैं जिसमें फर्जी पंजीकरण, वित्तीय लापरवाही और लाभार्थियों तक फायदा न पहुँचने जैसे गंभीर मुद्दे हैं।
ये दोनों रिपोर्ट्स बताती हैं कि दिल्ली सरकार ने जनता की भलाई के लिए मिले संसाधनों का सही इस्तेमाल नहीं किया और कुप्रबंधन के चलते आम लोग परेशान रहे। इन रिपोर्ट्स ने सरकार की कार्यशैली पर सवाल उठाए हैं और सुधार की सख्त जरूरत को रेखांकित किया है। आइए इन दोनों मुद्दों को विस्तार से समझते हैं और जानते हैं कि आखिर दिल्ली की जनता के साथ क्या-क्या हुआ। सीएजी की रिपोर्ट ने दिल्ली के सरकारी अस्पतालों की हालत को पूरी तरह बेपर्दा कर दिया है। कुल 27 अस्पतालों में से 14 में आईसीयू की सुविधा तक नहीं है, जो गंभीर मरीजों के लिए जानलेवा साबित हो सकता है। इसके अलावा 12 अस्पतालों में एंबुलेंस नहीं हैं, यानी जरूरत पड़ने पर मरीजों को समय पर अस्पताल पहुँचाना भी मुश्किल है। 16 अस्पतालों में ब्लड बैंक की कमी है जिससे आपात स्थिति में खून की व्यवस्था करना एक बड़ा संकट बन जाता है।
दिल्ली की आप सरकार जिन मोहल्ला क्लीनिकों को अपनी बड़ी उपलब्धि बताती रही है, उनकी हालत भी दयनीय है। ऐसी 21 क्लीनिकों में शौचालय नहीं हैं, 15 में बिजली बैकअप की सुविधा नहीं है और 6 में तो डॉक्टरों के लिए टेबल तक नहीं है। 12 क्लीनिकों में दिव्यांगों के लिए कोई व्यवस्था नहीं है जो आप सरकार के कथित विकास दावों की हवा निकाल देता है। ये हालात साफ दिखाते हैं कि बुनियादी स्वास्थ्य सुविधाएँ भी दिल्ली की जनता से कोसों दूर हैं। कोविड-19 महामारी के दौरान जब पूरी दुनिया जूझ रही थी, दिल्ली में भी हालात भयावह थे। केंद्र सरकार ने दिल्ली को इस संकट से निपटने के लिए 787.91 करोड़ रुपये का फंड दिया था लेकिन हैरानी की बात है कि इसमें से सिर्फ 582.84 करोड़ रुपये ही खर्च किए गए। बाकी 205.07 करोड़ रुपये बिना इस्तेमाल के पड़े रहे जिसका नतीजा ये हुआ कि मरीजों को जरूरी सुविधाएँ नहीं मिल सकीं।
दिल्ली सरकार को स्वास्थ्य कर्मियों की भर्ती और वेतन के लिए 52 करोड़ रुपये मिले थे लेकिन इसमें से 30.52 करोड़ रुपये खर्च नहीं हुए। इसका मतलब साफ है कि डॉक्टरों और नर्सों की कमी को दूर करने के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठाया गया। दवाइयाँ, पीपीई किट्स और दूसरी मेडिकल सप्लाई के लिए 119.85 करोड़ रुपये आवंटित हुए थे लेकिन 83.14 करोड़ रुपये का उपयोग नहीं हुआ। इस लापरवाही की कीमत दिल्ली की जनता को अपनी जान देकर चुकानी पड़ी क्योंकि उस वक्त ऑक्सीजन, बेड और दवाइयों की भारी किल्लत थी।
दिल्ली सरकार ने 2016-17 से 2020-21 तक 32,000 नए बेड जोड़ने का बड़ा वादा किया था लेकिन असल में सिर्फ 1,357 बेड ही जोड़े गए, जो लक्ष्य का महज 4.24 प्रतिशतहै। इस कमी का असर ये हुआ कि कई अस्पतालों में बेड की ऑक्यूपेंसी 101 प्रतिशत से 189 प्रतिशत तक रही, यानी एक बेड पर दो-दो मरीजों को रखना पड़ा या कई मरीजों को फर्श पर इलाज लेना पड़ा। स्टाफ की स्थिति भी कम चिंताजनक नहीं है।
दिल्ली के सरकारी अस्पतालों और स्वास्थ्य विभागों में 8,194 पद खाली पड़े हैं। नर्सिंग स्टाफ में 21प्रतिशत और पैरामेडिकल स्टाफ में 38 प्रतिशत की कमी है। खास तौर पर राजीव गाँधी सुपर स्पेशलिटी हॉस्पिटल और जनकपुरी सुपर स्पेशलिटी हॉस्पिटल में हालात बदतर हैं जहाँ डॉक्टरों की 50-74 प्रतिशत और नर्सिंग स्टाफ की 73-96 प्रतिशत कमी पाई गई। इस कमी के चलते मरीजों को इलाज के लिए लंबा इंतजार करना पड़ता है और कई बार सही देखभाल भी नहीं मिल पाती।

दिल्ली में तीन नए अस्पताल बनाने की परियोजनाएँ शुरू हुई थीं लेकिन इनमें भारी देरी और लागत में इजाफा हुआ। इंदिरा गाँधी अस्पताल में 5 साल की देरी हुई और लागत 314.9 करोड़ रुपये बढ़ गई। बुराड़ी अस्पताल 6 साल लेट हुआ जिसकी लागत में 41.26 करोड़ रुपये का इजाफा हुआ। वहीं, एमए डेंटल अस्पताल (फेज-2) में 3 साल की देरी हुई और 26.36 करोड़ रुपये अतिरिक्त खर्च हुए। ये प्रोजेक्ट पिछली सरकार के वक्त शुरू हुए थे लेकिन मौजूदा सरकार इन्हें पूरा करने में नाकाम रही। इसके अलावा, कई अस्पतालों में जरूरी उपकरण भी खराब पड़े हैं। सीएजी की रिपोर्ट के मुताबिक, मरीजों को लोक नायक अस्पताल में बड़ी सर्जरी के लिए 2-3 महीने और बर्न व प्लास्टिक सर्जरी के लिए 6-8 महीने का इंतजार करना पड़ा। चाचा नेहरू बाल चिकित्सालय में पीडियाट्रिक सर्जरी के लिए 12 महीने की वेटिंग थी। कई जगहों पर एक्स-रे, सीटी स्कैन और अल्ट्रासाउंड मशीनें बेकार पड़ी रहीं जिससे मरीजों को सही समय पर डायग्नोसिस भी नहीं मिल सका।
कोविड के दौरान ऑक्सीजन की किल्लत ने दिल्ली को हिलाकर रख दिया था और सीएजी रिपोर्ट बताती है कि 8 अस्पतालों में ऑक्सीजन सप्लाई की व्यवस्था ही नहीं थी। ये वो वक्त था जब लोग सड़कों पर ऑक्सीजन सिलेंडर ढूंढते फिर रहे थे। इसके साथ ही, 12 अस्पतालों में एंबुलेंस की सुविधा नहीं थी और जो सीएटीएस एंबुलेंस चल रही थीं, उनमें भी जरूरी उपकरणों की कमी थी। मरीजों को समय पर अस्पताल पहुँचाने के लिए कोई ठोस इंतजाम नहीं था जिसके चलते कई लोगों की जान चली गई। मोहल्ला क्लीनिकों में भी हालात बद से बदतर थे। 15 क्लीनिकों में बिजली बैकअप नहीं था, यानी बिजली जाने पर मरीजों का इलाज ठप हो जाता था। इन सबके बीच सरकार के दावे हवाई साबित हुए और जनता को भारी परेशानी उठानी पड़ी।
यही नहीं, लाडली योजना को 2008 में तत्कालीन मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने शुरू किया था जिसका मकसद लड़कियों की शिक्षा को बढ़ावा देना और 18 साल की उम्र पर 1 लाख रुपये तक की मदद देना था लेकिन अरविंद केजरीवाल की सरकार ने इस योजना में भी धाँधलियों को अंजाम दे दिया। सीएजी की रिपोर्ट ने इसमें 220 करोड़ रुपये से ज्यादा की अनियमितताएँ उजागर की हैं। रिपोर्ट के मुताबिक, 41 करोड़ रुपये का अधिक भुगतान हुआ और 618.38 करोड़ रुपये की राशि अघोषित पड़ी है। महिला एवं बाल विकास विभाग ने लाभार्थियों के विवरण को सत्यापित करने में ढिलाई बरती जिसके चलते बड़े पैमाने पर डुप्लिकेशन हुआ। 36,000 से ज्यादा ऐसे मामले सामने आए जहाँ नाम, जन्मतिथि और माता-पिता का विवरण एक जैसा था। दिसंबर 2022 तक 8.84 लाख सक्रिय लाभार्थियों में 16,546 डुप्लिकेट और 131 ट्रिपल पंजीकरण पाए गए, जिससे 11.49 करोड़ रुपये का नुकसान हुआ।
ऑडिट में ये भी पता चला कि 20,127 मामलों में जहाँ नाम या जन्मतिथि मिलती थी, वहाँ 29.23 करोड़ रुपये गलत तरीके से वितरित किए गए। सबसे बड़ी खामी ये थी कि मई 2023 तक आधार सत्यापन को योजना में शामिल नहीं किया गया था। इसके चलते एक ही लाभार्थी के कई पंजीकरण हो गए और फर्जीवाड़ा बढ़ता गया। करीब 9 प्रतिशत लाभार्थियों ने 18 साल की उम्र के बाद नामांकन कराया जिससे 180.92 करोड़ रुपये का वित्तीय नुकसान हुआ। 78,065 ऐसे लाभार्थी थे जो पंजीकरण के समय पात्र उम्र पार कर चुके थे, फिर भी उनके खातों में पैसे जमा किए गए। कई मामलों में जन्मतिथि का कॉलम खाली था जिससे ये साफ हो गया कि सिस्टम में पारदर्शिता और जवाबदेही की भारी कमी थी।
दिल्ली में 8.84 लाख सक्रिय लाभार्थियों में से 4.9 लाख लड़कियाँ यानी 55 प्रतिशत, पात्र होने के बावजूद योजना का लाभ नहीं ले सकीं। 18-20 साल की उम्र के 1.26 लाख लाभार्थियों के 236.03 करोड़ रुपये, 20-26 साल के 1.18 लाख के 224.56 करोड़ रुपये, और 26 साल से ऊपर की 77,000 लड़कियों के 157.78 करोड़ रुपये अभी तक वितरित नहीं हुए हैं। इसके अलावा 1 लाख 74 हजार 960 ऐसे मामले थे जिनमें लाभार्थी समाप्ति मानदंड को पूरा करते थे लेकिन उनका निपटारा नहीं हुआ। विभाग का कहना है कि उसने पात्र लाभार्थियों तक पहुँचने के लिए सार्वजनिक नोटिस जारी किए थे लेकिन ऑडिट में पाया गया कि सिर्फ दो बार 10 सितंबर 2020 और 17 जून 2022 को नोटिस जारी हुए। इतने बड़े पैमाने पर योजना चलाने के लिए ये कोशिश नाकाफी थी और लाभार्थियों तक जानकारी नहीं पहुँच सकी।
लाडली योजना में हर साल पंजीकरण की संख्या में भारी गिरावट आई है। 2009-10 में 1,39,773 लाभार्थी पंजीकृत हुए थे जो 2020-21 में घटकर सिर्फ 43,415 रह गए, यानी 69 प्रतिशत की कमी। जन्म के समय पंजीकरण भी 23,871 से घटकर 3,153 हो गया। ये आँकड़े बताते हैं कि योजना धीरे-धीरे अपनी अहमियत खोती जा रही है। लड़कियों की शिक्षा और सशक्तिकरण के जिस मकसद के लिए इसे शुरू किया गया था, वो पूरा नहीं हो सका। फंड की बर्बादी, फर्जी पंजीकरण और कुप्रबंधन ने इस योजना को नाकाम कर दिया। सरकार ने इसे ठीक करने के लिए मई 2023 में प्रत्यक्ष लाभ हस्तांतरण (डीबीटी) सिस्टम में शामिल करने की कोशिश शुरू की लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी।
सीएजी रिपोर्ट के अनुसार लाडली योजना में इतनी बड़ी गड़बड़ियों के बावजूद जिम्मेदारी तय करने की कोई कोशिश नहीं दिखती। विभाग ने न तो लाभार्थियों के डेटा को सही करने की जहमत उठाई और न ही फंड के सही इस्तेमाल पर ध्यान दिया। 618.38 करोड़ रुपये जैसे भारी-भरकम फंड का इस्तेमाल न होना बताता है कि योजना को लेकर गंभीरता की कमी थी। इसका सबसे ज्यादा नुकसान उन लड़कियों को हुआ जो इस मदद की हकदार थीं लेकिन उन्हें कुछ नहीं मिला।
सीएजी की दोनों रिपोर्ट्स ने केजरीवाल सरकार की कार्यप्रणाली पर बड़ा सवालिया निशान लगा दिया है। स्वास्थ्य सेवाओं में सुविधाओं की कमी और कोविड फंड की बर्बादी से लेकर लाडली योजना में फर्जीवाड़ा और लापरवाही तक, ये सब दिखाता है कि जनता के हितों को कितना नजरअंदाज किया गया। दिल्ली की जनता ने इन कमियों की भारी कीमत चुकाई है, चाहे वो इलाज के लिए तरसना हो या शिक्षा के लिए मदद न मिलना हो। केजरीवाल सरकार की कर्मठता और सीएजी रिपोर्ट के काले पन्ने