भारत में संविधान का शासन है। संविधान निर्माताओं ने न्यायपालिका, विधायिका और कार्यपालिका में खूबसूरत अधिकार विभाजन किए हैं। लेकिन आपातकाल आधुनिक इतिहास में संविधान को तहस नहस करने की भयावह त्रासदी है। तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी ने आज से 48 वर्ष पूर्व (25 जून 1975) पूरे देश को कैदखाना बना दिया था। संविधान (अनुच्छेद 352) में वाह्य आक्रमणों और देश के भीतर गंभीर आतंरिक अशांति के आधार पर आपातकाल घोषित करने की व्यवस्था थी। लेकिन तब देश में कोई आतंरिक अशांति नहीं थी। प्रधानमंत्री स्वयं आतंरिक अशांति से पीड़ित थीं। इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने 12 जून 1975 को उनका संसदीय चुनाव अवैध घोषित कर दिया था। न्यायालय के अनुसार वे अनुचित साधनों द्वारा चुनाव जीती थीं। रायबरेली (उत्तर प्रदेश) की उनकी संसदीय सीट रिक्त घोषित कर दी गई थी। सत्ता पक्ष का एक धड़ा और संपूर्ण विपक्ष त्यागपत्र मांग रहा था। उन्होंने पद से न हटने का निश्चय किया। आपातकालीन प्राविधान का दुरूपयोग किया और आपातकाल थोप दिया। संवैधानिक व्यवस्था का प्राण है मौलिक अधिकार
संविधान के रास्ते तानाशाही थोपने का ऐसा ही कृत्य एडोल्फ हिटलर ने 28 फरवरी 1933 को जर्मनी में किया था। हिटलर जर्मनी के चांसलर (सत्ता प्रमुख) थे। आपातकाल पर जर्मनी की संसद में मतदान हुआ। संसद का बहुमत हिटलर के पक्ष में था। 444 मत आपातकाल के पक्ष में पड़े। विपक्ष में 94 वोट पड़े। 109 लोगों ने मतदान में हिस्सा नहीं लिया। इसी तरह भारत में भी सत्ता पक्ष प्रधानमंत्री के पक्ष में था। जान पड़ता है कि श्रीमती गाँधी हिटलर से प्रेरित थीं। यहाँ पूरा विपक्ष जेल में डाल दिया गया था। जर्मनी की तर्ज पर यहाँ कांग्रेस संसदीय दल और पार्टी ने इस तानाशाही का समर्थन किया। कांग्रेस अध्यक्ष ने इंदिरा को इंडिया बताया और इंडिया को इंदिरा। स्वाधीनता आंदोलन के महान नेता जयप्रकाश नारायण को भी गिरफ्तार किया गया। अटल बिहारी वाजपेयी सहित सभी राष्ट्रवादी नेता भी जेल में थे। मानवता कुचली गई। पुलिस अंग्रेजी शासन की पुलिस की भूमिका में थी। विचार अभिव्यक्ति का गला घोट दिया गया। प्रतिष्ठित पत्रकार पीड़ित किए गए। प्रधानमंत्री न्यायालयों की शक्ति पर आक्रामक थीं।
श्रीमती गाँधी ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय के निर्णय के विरुद्ध सुप्रीम कोर्ट में अपील की थी। लेकिन उन्होंने सुप्रीम कोर्ट के निर्णय की प्रतीक्षा नहीं की। संविधान में हास्यास्पद संशोधन हुआ। प्रधानमंत्री के संसदीय चुनाव को न्यायायिक निर्वचन से मुक्त कराने का संशोधन कराया गया और इस संविधान संशोधन को पिछली तारीखों से लागू कराया गया। आपातकाल का बयालिसवां संशोधन ध्यान देने योग्य है। संविधान में संसदीय अधिनियम पर भी न्यायायिक पुनर्विलोकन की व्यवस्था है। लेकिन आपातकाल में संविधान के उल्लंघन के आधार पर चुनौती देने के लिए संघ और राज्यों के कानूनों में भेद किया गया। यह व्यवस्था की गई कि सर्वोच्च न्यायपीठ अनुच्छेद 32 के अधीन अपनी अधिकारिता में किसी राज्य के कानून को तब तक असंवैधानिक घोषित नहीं कर सकता जब तक ऐसी कार्यवाहियों में केन्द्रीय विधि भी प्रश्नवाचक न हो। व्यवस्था की गई कि नीति निदेशक तत्वों को लागू करने के लिए अधिनियमित कानूनों को मौलिक अधिकारों के आधार पर चुनौती नहीं दी जाएगी। इसी तरह उच्च न्यायालयों कोे केन्द्रीय विधि की असंवैधानिकता के विरुद्ध सुनवाई से रोक दिया गया। किसी कानून को असंवैधानिक घोषित करने के लिए न्यायमूर्तियों के विशेष बहुमत की अपेक्षा के प्राविधान किए गए। ऐसे सारे संशोधन न्यायपालिका का गला घोंटने वाले थे।
न्यायालय के पास संविधान संशोधनों को भी संविधान की मूल भावना के विपरीत होने अथवा अन्य कारणों से असंवैधानिक घोषित करने की शक्ति है। आपातकाल में संविधान संशोधन के अनुच्छेद 368 का भी संशोधन किया गया। व्यवस्था की गई कि संविधान संशोधन विधि के नाम से घोषित विधि को किसी न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकती। सामाजिक राजनैतिक कार्यकर्ताओं को अकारण जेल भेजा गया। लाखों कार्यकर्ता जेल में थे। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ विशेष निशाने पर था। न्याय का नैसर्गिक सिद्धांत कुचला गया। किसी भी व्यक्ति को किसी भी आरोप में जेल भेजने के बाद अदालत उसका पक्ष सुनती है। लेकिन आपातकाल में कुख्यात ‘मेंटेनेंस ऑफ इंटर्नल सिक्योरिटी एक्ट‘ (मीसा) में नैसर्गिक कानून का यह सूत्र नहीं था। मीसा में जिला प्रशासन द्वारा व्यक्ति को उठाकर जेल भेज दिया जाता था। न्यायालय में उसका मुकदमा नहीं चलता था। ऐसा कानून दुनिया के किसी भी सभ्य देश में नहीं है। लेकिन भारत में पुलिस राज था। पुलिस अनावश्यक रूप से पीटती थी। हजारों सामाजिक कार्यकर्ताओं के अंग भंग किए गए। संविधान संशोधनों की झड़ी लग गई। 53 अनुच्छेद एक साथ बदले गए। सातवीं अनुसूची बदली गई। प्रेस का मुँह कुचल दिया गया था। सब तरफ उत्पीड़न व सरकार प्रायोजित हिंसा का चीत्कार था।
मौलिक अधिकार भारत की संवैधानिक व्यवस्था के प्राण हैं। वे स्थापित सरकार के अत्याचारों से रक्षा करने के उपकरण हैं। राजव्यवस्था की निरंकुशता से संरक्षण देने के लिए मौलिक अधिकार अधिनियमित किए गए थे। श्रीमती इंदिरा गाँधी मौलिक अधिकारों में भी काट छांट कर रहीं थीं। संविधान (भाग 4) में उल्लिखित राज्य के नीति निदेशक तत्वों को क्रियान्वित करने के बहाने बनाई गई विधियों को न्यायायिक निर्वचन से अलग रख दिया गया था। सरकारी अत्याचारों से देश उबल रहा था। मुझे मीसा बंदी के रूप में उत्पीड़न का अनुभव है। उस समय लागू ‘डिफेन्स ऑफ इंडिया रूल‘ (डी०आई०आर०) का भी अनुभव है। डी०आई०आर० के मुकदमे में मुझे कचहरी लाया गया था। कचहरी में भारत माता की जय बोलने वाले 10-12 कार्यकर्ताओं को पुलिस ने पीटा। सभी कार्यकर्ता खून से लथपथ थे। यह हृदय विदारक था। देश के अनेक हिस्सों में ऐसी ही घटनाएं थीं। जनरोष बढ़ रहा था। जनता में उद्वेलन था। पुलिस राज बर्दाश्त के बाहर था। सत्ताधीशों को जनरोष की जानकारियां मिल रहीं थीं। आम चुनाव प्रस्तावित थे। जनता से डरी सरकार ने आम चुनाव की तारीखें बढ़ाई। जो चुनाव 1976 में प्रस्तावित थे वे 1977 में कराए गए। जनता ने कांग्रेस को स्वयं हराया। श्रीमती इंदिरा गाँधी स्वयं रायबरेली से चुनाव हार गईं। कांग्रेस साफ हो गई। यह सब तब हुआ जब संपूर्ण विपक्ष जेल में था। देश ने आपातकाल के अत्याचारों का बदला लिया श्रीमती इंदिरा गाँधी के हारते ही आपातकाल हटा।
आज 48 वर्ष हो गए हैं। लेकिन आपातकाल की याद अभी भी सिहरन पैदा करती है। नई पीढ़ी आपातकाल के सरकारी अत्याचारों के बारे में कम जानती है। यह एक दुःस्वप्न था। जन उत्पीड़न था। निर्दोषों पर पुलिस के हमले थे। सारी लोकतंत्री संस्थाएं तहस नहस की गई थीं। स्वाधीनता संग्राम सेनानियों ने भारी संघर्ष के बाद आजादी पाई थी। यहाँ लोकतंत्र और संविधान की गरिमा महिमा में राष्ट्र का विकास हो रहा था। संविधान आधारित संसदीय लोकतंत्र फल फूल रहा था। लेकिन तत्कालीन प्रधानमंत्री ने इस खूबसूरत व्यवस्था को रौंदा। यद्यपि आपातकाल का स्मरण दुखदायी है लेकिन संविधान और लोकतंत्र की रक्षा के लिए इसका पुनर्स्मरण बहुत जरूरी है। ऐसी प्रवत्ति के विरुद्ध सजगता और भी जरूरी है। सम्प्रति कांग्रेस जब कब लोकतंत्र के खात्मे की बात करती है। उसे आपातकाल का पुराना पाठ याद रखना चाहिए। सम्यक आत्मनिरीक्षण भी करना चाहिए और देश से माफी मांगनी चाहिए। संवैधानिक व्यवस्था का प्राण है मौलिक अधिकार