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स्थाई अध्यक्ष बनने से राहुल ने इनकार किया तो कौन बनेगा कांग्रेस अध्यक्ष। “हिन्दी पट्टी में पिछडों,दलितों को दरकिनार कर नहीं सुधरेगी कांग्रेस की सूरत”।
राजेन्द्र सिंह
20 सितम्बर तक अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के राष्ट्रीय अध्यक्ष का चुनाव होना निर्धारित है।ऐसे में सोनिया या राहुल गांधी के अलावा कांग्रेस का कौन राष्ट्रीय अध्यक्ष होगा,इस पर तरह तरह की चर्चा है।स्वास्थ्य कारणों स सोनिया गांधी राष्ट्रीय अध्यक्ष की जिम्मेदारी से अपने को अलग करना चाहती हैं।सवाल यह है कि यदि सोनिया का विकल्प तलाशा जाए तो राहुल गाँधी से बेहतर कोई नाम नहीं है।पूर्व में राहुल गाँधी कार्यकारी अध्यक्ष की जिम्मेदारी निभा चुके हैं।उनके नेतृत्व में कांग्रेस का प्रदर्शन बेहतर रहा।पार्टी ने मध्यप्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, मणिपुर में स्पष्ट बहुमत की सरकार बनाई।कर्नाटक में भी जेडीएस के साथ गठबंधन सरकार बनी।पार्टी ने गोवा में सरकार बनाने की स्थिति में पहुंच गई थी,पर कुछ रणनीतिक कमियों के कारण सरकार बनाने से चूक गयी।कांग्रेस ने गुजरात में अच्छा प्रदर्शन किया।पर,स्थानीय नेताओं के शह-मात व खींचतान में सरकार बनाने से चूक गयी।यदि राहुल गांधी कांग्रेस का स्थायी अध्यक्ष बनने से इनकार कर देते हैं तो ऐसा लगता है कि इस बार भी सोनिया गांधी को ही कांग्रेस का स्थाई अध्यक्ष बना दिया जाएगा। कांग्रेस अध्यक्ष के चुनाव की प्रक्रिया 21 अगस्त से शुरू होकर 20 सितंबर को खत्म होगी। माना जा रहा है कि राहुल गांधी अध्यक्ष बनने को तैयार नहीं हैं।
21 अगस्त से 20 सितंबर तक चलेगी कांग्रेस अध्यक्ष पद के लिए चुनाव प्रक्रिया –
राहुल गांधी संभवतः कांग्रेस का स्थाई अध्यक्ष बनना नहीं चाहते, इसलिए बड़ी ऊहापोह की स्थिति है। संभव है कि गांधी परिवार के किसी विश्वासपात्र को अध्यक्ष की जिम्मेदारी दी जाए।एक संभावना यह भी है कि सोनिया गांंधी को ही स्थाई अध्यक्षता की कमान दे दी जाए।कुछ लोग प्रियंका गांधी को नेतृत्व की जिम्मेदारी के पक्ष में हैं।पर,सोनिया गांधी ऐसा नही चाहेंगी।कांग्रेस अध्यक्ष के चुनाव की प्रक्रिया रविवार से शुरू हो गयी है। ऐसे में पार्टी के अंदर इस बात को लेकर ऊहापोह की स्थिति पैदा हो गई है कि अगर राहुल गांधी फिर से कमान संभालने के लिए तैयार नहीं होते हैं तो फिर विकल्प क्या होगा? पार्टी सूत्रों का कहना है कि कांग्रेस के भीतर इन विकल्पों को लेकर मंथन चल रहा है कि अगर राहुल गांधी तैयार नहीं होते हैं तो गांधी परिवार के किसी विश्वासपात्र नेता को कमान सौंपी जाए या फिर सोनिया गांधी ही अगले लोकसभा चुनाव तक अध्यक्ष पद की जिम्मेदारी संभालती रहें। पहले से तय कार्यक्रम के अनुसार, कांग्रेस अध्यक्ष के चुनाव की प्रक्रिया 21 अगस्त से आरंभ हो गयी है और इसे 20 सितंबर तक पूरा होना है।
राहुल गांधी की सहमति का इंतजार–
उधर, कांग्रेस के केंद्रीय चुनाव प्राधिकरण के प्रमुख मधुसूदन मिस्त्री ने कहा, ‘मतदान के लिए डेलीगेट की सूची तैयार है।अपनी ओर से हम तैयार हैं। कांग्रेस कार्य समिति को चुनाव की तिथि तय करनी है।’ पिछले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की हार के बाद राहुल गांधी ने नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया था और इसके बाद से सोनिया गांधी पार्टी के अंतरिम अध्यक्ष की जिम्मेदारी निभा रही हैं। पार्टी सूत्रों का कहना है कि सोनिया गांधी समेत कांग्रेस के ज्यादातर नेताओं की राय है कि 2024 के लोकसभा चुनाव को देखते हुए राहुल गांधी को अध्यक्ष पद संभालना चाहिए, हालांकि राहुल गांधी की तरफ से इस पर ‘हां’ का इंतजार है।
राहुल को ही अध्यक्ष बनाना चाहते हैं ज्यादातर कांग्रेसी –
कांग्रेस के एक नेता ने कहा, ‘इसमें कोई दो राय नहीं है कि ज्यादातर नेताओं और कार्यकर्ताओं की यही भावना है कि राहुल गांधी अध्यक्ष बनें। लेकिन इसके लिए जरूरी है कि खुद वह तैयार हों। मेरी जानकारी के हिसाब से फिलहाल ऐसा कोई संकेत नहीं मिला है कि राहुल गांधी अध्यक्ष पद संभालने के लिए तैयार हैं।’ उन्होंने कहा, ‘2019 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की हार के बाद जब नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए राहुल ने अध्यक्ष पद छोड़ा था, उसके बाद से कई मौकों पर पार्टी के नेता उनसे फिर से अध्यक्ष बनने का आग्रह कर चुके हैं, लेकिन उनकी तरफ से ‘हां’ में जवाब नहीं आया। अब अध्यक्ष के चुनाव की दिशा उनकी ‘हां और ना’ पर निर्भर करती है।’ कांग्रेस नेता ने कहा, ‘अगर गांधी परिवार से इतर भी कोई अध्यक्ष बन जाता है तो ऐसी स्थिति में भी राहुल गांधी पार्टी का एक प्रमुख चेहरा बने रहेंगे।’ उनका यह भी कहना है कि अगले कुछ दिनों में अध्यक्ष पद के चुनाव को लेकर पूरी स्थिति साफ हो सकती है।
राहुल नहीं तो इन नामों पर हो रही चर्चा –
सूत्रों के अनुसार, राहुल गांधी के अध्यक्ष नहीं बनने की स्थिति में कुछ विकल्पों और नामों पर चर्चा हो रही है। कांग्रेस से जुड़े एक सूत्र ने बताया, ‘राहुल गांधी के अध्यक्ष नहीं बनने की स्थिति में जिन वैकल्पिक नामों को लेकर चर्चा है, उनमें राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत का नाम प्रमुख है। उनके नाम पर गांधी परिवार को भी शायद ही कोई आपत्ति हो। हालांकि, यह भी कहा जा रहा है कि गहलोत मुख्यमंत्री पद को छोड़कर अध्यक्ष पद की जिम्मेदारी संभालने के लिए इच्छुक नजर नहीं आते।’ उन्होंने कहा, ‘कांग्रेस अध्यक्ष पद के लिए गहलोत के अलावा मुकुल वासनिक, मल्लिकार्जुन खड़गे, कुमारी शैलजा और कुछ अन्य नामों पर भी विचार किया जा सकता है।’ अशोक गहलोत को छोड़कर जो 3 नाम हैं,वह दलित वर्ग से हैं।अंत में सोनिया गांधी को ही फिर कमान मिल सकती है।कांग्रेस के एक अन्य नेता ने कहा, ‘राहुल गांधी के अध्यक्ष नहीं बनने पर एक विकल्प यह भी हो सकता है कि सोनिया गांधी अगले लोकसभा चुनाव तक अध्यक्ष पद पर बनी रहें और दो-तीन वरिष्ठ नेताओं को कार्यकारी अध्यक्ष अथवा उपाध्यक्ष की जिम्मेदारी दी जाए।’ जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के सेंटर फॉर पोलिटकल स्टडीज के एसोसिएट प्रोफेसर मणींद्र नाथ ठाकुर का कहना है कि कांग्रेस इस समय दुबिधा की स्थिति में है। उन्होंने कहा, ‘सोनिया गांधी स्वास्थ्य संबंधी दिक्कतों का सामना कर रही हैं। राहुल गांधी को लेकर यह समस्या है कि जैसे ही उन्हें अध्यक्ष पद की कमान सौंपी जाएगी, उसी समय से वह विरोधियों के निशाने पर आ जाएंगे… एक समस्या यह भी है कि गांधी परिवार के पास मनमोहन सिंह जैसा कोई विश्वासपात्र व्यक्ति नहीं है।’ ठाकुर ने कहा कि फिलहाल कांग्रेस के पास एक बेहतर विकल्प यही है कि सोनिया गांधी अध्यक्ष रहें और उनके साथ कुछ नेता प्रमुख सहयोगी की भूमिका में हों।
आखिर राहुल क्यों नहीं…?
वरिष्ठ पत्रकार रशीद किदवई का कहना है कि राहुल गांधी ने अध्यक्ष पद नहीं संभालने के पीछे वाजिब कारण दिए हैं और देश में एक तरह का वंशवाद विरोधी माहौल भी है, जो राहुल गाँधी की दावेदारी को कमजोर बनाता है। उन्होंने कहा, ‘कुछ लोगों का मानना है कि सोनिया गांधी अध्यक्ष बनी रहें और उनके साथ दो-तीन कार्यकारी अध्यक्ष बना दिए जाएं।’यही तरीका कांग्रेस के लिए उचित रहेगा।उत्तर प्रदेश, बिहार जैसे बड़े राज्य जहाँ बहुदलीय स्थिति है,वहाँ कांग्रेस की स्थिति बहुत ही कमजोर है।बिहार विधानसभा चुनाव-2015 में कांग्रेस का राजद,जदयू से गठबंधन था,उस समय उसे 28 सीटों पर जीत मिली थी। 2020 में राजद व वामपंथी दलों के महागठबंधन में कांग्रेस 70 सीटों पर लड़कर 18 सीट जीत पाई।यदि उसका गठबंधन नहीं होता तो शायद ही 2-3 सीट जीत पाती।उत्तर प्रदेश में तो कांग्रेस का जनाधार बिल्कुल सिमट सा गया है।विगत विधानसभा चुनाव में उसका वोट शेयर मात्र 2.55 प्रतिशत रहा,जो 1952 से अब तक का न्यूनतम वोट शेयर है।उत्तर प्रदेश में 400 सीटों पर चुनाव लड़कर कांग्रेस को मात्र 2 सीटों पर जीत मिली।अगर वास्तव में देखा जाय तो फरेंदा से वीरेन्द्र चौधरी की ही असल में जीत है।बिहार विधानसभा क्षेत्र में सपा कांग्रेस को समर्थन नहीं दी होती तो आराधना ऊर्फ मोना मिश्रा तीसरे स्थान पर होतीं।
उत्तर प्रदेश, बिहार से ही होकर दिल्ली का रास्ता तय होता है।इन दोनों राज्यों से लोकसभा की 120 सीटें हैं,जिसका दिल्ली की सत्ता पाने के लिए महत्वपूर्ण भूमिका रहती है।बिहार और उत्तर प्रदेश के संगठन में एक जाति विशेष का ही वर्चस्व कायम है।1985 तक कांग्रेस के साथ कई जातियों का समूह मजबूती से जुटा हुआ था।1980 तक मुस्लिम, वैश्य, ब्राह्मण, दलित, अतिपिछड़ी जातियाँ कांग्रेस के साथ मजबूती से जुड़ी हुई थी।1985 से जहाँ दलित जातियाँ कांग्रेस से मुँह मोड़ने लगीं,वही 1989 में मुस्लिम,अतिपिछड़ी, सवर्ण जातियाँ भी इससे दूरी बना लीं।वर्तमान में उत्तर प्रदेश व बिहार में कांग्रेस के पास कोई भी जातीय वोटबैंक हैं।ये दोनों ऐसे राज्य हैं जहाँ पिछड़ी,अतिपिछड़ी जातियों के लिए सामाजिक न्याय की ललक प्रबलता से देखी जाती है।वैसे कांग्रेस के एआईसीसी, पीसीसी का पोस्टमार्टम किया जाय तो पिछड़ी, अतिपिछड़ी जातियों का प्रतिनिधित्व बहुत ही कम है।जबकि इन वर्गों की आबादी बंगाल के अलावा हर राज्य में 45 से 71 प्रतिशत है।
कांग्रेस में दिखा बदलाव,पर अभी भी संशय –
कांग्रेस नेतृत्व का ध्यान विगत कुछ वर्षों में बदलाव का दिखा।ऐसा लगने लगा था कि कांग्रेस अब सामाजिक न्याय के प्रति संवेदनशील हो रही है,पिछडों दलितों को को जोड़ने में कांग्रेस सार्थक पहल करेगी।ऐसा विश्वास छत्तीसगढ़ में भुपेश बघेल(कुर्मी),राजस्थान में अशोक गहलोत(सैनी),पंजाब में चन्नी को मुख्यमंत्री बनाने पर प्रबल हुआ था।पर,राज्यसभा चुनाव में पिछड़ी जातियों को तो बिल्कुल नकार दिया गया।पिछडों को नजरअंदाज व उपेक्षित कर कांग्रेस हिंदी पट्टी में कोई विशेष परिणाम प्राप्त नहीं कर सकती।
आज भाजपा इतनी मजबूत स्थिति में है तो उसका एकमात्र कारण उसकी सोशल इंजीनियरिंग है,जिसे वह संगठन, टिकट वितरण,मन्त्रिमण्डल गठन आदि सभी स्तरों पर दिखाई देता है।हिंदी पट्टी के राज्यों-उत्तर प्रदेश, बिहार,मध्यप्रदेश, झारखण्ड,छत्तीसगढ़, राजस्थान में यादव,निषाद/कश्यप, कुशवाहा/दांगी/कोयरी/सैनी, लोधी,गूजर, कुर्मी,साहू आदि मजबूत आधार वाली जातियाँ हैं।पर,इन राज्यों कांग्रेस की राष्ट्रीय कमेटी में मात्र 3-4 नाम बमुश्किल पिछड़ी जातियों के दिखते है।एआईसीसी में शायद ही कोई पिछड़ा महासचिव व सीडब्ल्यूसी में हो।
2009 में किसान व निषाद मुड़े थे कांग्रेस की ओर, पर फिर बिखर गए।1985 के बाद कांग्रेस का लोकसभा चुनाव-2009 में सबसे अच्छा प्रदर्शन रहा।उस समय कांग्रेस को 80 में 21 लोकसभा सीटों पर जीत हासिल हुई थी।जिसमें किसान,कुर्मी व निषाद/कश्यप जातियों की महत्वपूर्ण भूमिका थी।किसान,कुर्मी जहाँ कर्ज माँफी के वादे के कारण कांग्रेस के साथ जुड़े तो निषाद/कश्यप जातियाँ अनुसूचित जाति के आरक्षण वादा के चलते।
2009 के लोकसभा चुनाव में निषाद मछुआरा जातियाँ कांग्रेस के साथ मजबूती से खड़ी थीं- लौटनराम निषाद
निषाद मछुआ समुदाय की जातियों(मल्लाह,केवट,बिन्द, कश्यप,धीवर, धीमर, रायकवार, तुरहा, बाथम,कहार, माँझी,गोड़िया आदि) को अनुसूचित जाति में शामिल करने का मुद्दा काफी गर्म था।किसी भी जाति को अनुसूचित जाति में शामिल करने का अधिकार केन्द्र सरकार व भारतीय संसद के पास निहित है।केन्द्र में कांग्रेस युति की सरकार थी।सो,निषाद आरक्षण आंदोलन के सूत्रधार राष्ट्रीय निषाद संघ के राष्ट्रीय सचिव चौ.लौटनराम निषाद ने कांग्रेस को घेरने का अभियान छेड़ा।उत्तर प्रदेश कांग्रेस कमेटी के प्रदेश कार्यालय पर भारी संख्या में निषाद जुटे।उस समय सलमान खुर्शीद जी प्रदेश अध्यक्ष थे।वार्ताओं का दौर शुरू हुआ।सलमान जी व राजेशपति त्रिपाठी जी इस मुद्दे पर काफ़ी गम्भीर हुए।उन्होंने राष्टीय निषाद संघ के एक प्रतिनिधिमंडल को राहुल गाँधी जी से मिलवाकर चर्चा कराए।राहुल जी इस मुद्दे को हल कराने का वादा किये।विधानसभा चुनाव-2007 के घोषणा पत्र में यह मुद्दा शामिल किया गया कि निषाद/मछुआ समुदाय की जातियों को अन्य राज्यों की भाँति अनुसूचित जाति का आरक्षण दिलाया जाएगा।
इस मुद्दे को लेकर महीने दर महीने राहुलजी,सोनिया जी से वार्ता होती रही।2008 में दिग्विजय सिंह जी उत्तर प्रदेश के प्रभारी बनकर आये तो उनसे भी इस मुद्दे पर चर्चाओं का दौर शुरू हुआ।दिग्गीराजा मध्यप्रदेश का मुख्यमंत्री रहते निषादों माँझीयों की काफी मदद किये थे और वे निषाद माँझी समाज की समस्या को बहुत अच्छी तरह जानते,समझते थे।दिग्गीराजा साहब इस मामले को सोनिया जी,सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्री मीरा कुमार तक पहुंचाए और इनसे निषाद प्रतिनिधियों की वार्ता भी कराए।आश्वासन मिलता रहा कि शीघ्र इस समस्या को हल किया जाएगा।बकौल लौटनराम निषाद,27 जनवरी,2009 को राष्ट्रीय निषाद संघ के पदाधिकारी व कार्यकर्ता एनटीपीसी गेस्ट हाउस ऊँचाहार में सोनिया गांधी जी से मिलकर निषाद/मछुआरा आरक्षण मुद्दे पर वार्ता किया।सोनिया जी ने कहा कि लोकसभा चुनाव में आप लोग मदद करिए,सरकार बनने अनुसूचित जाति में जरूर शामिल कराऊंगी।इस वादे के कारण निषाद, कश्यप,बिन्द समाज ने 2009 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की एकजुट होकर मदद किया।परन्तु इन्हें एससी का आरक्षण नहीं मिला।जिससे ये जातियाँ कांग्रेस से बिदक गईं।लौटनराम निषाद ने बताया कि उत्तर प्रदेश में निषाद मछुआ जातियों की संख्या 10 प्रतिशत से अधिक है।27 लोकसभा क्षेत्रों में 2 लाख से अधिक व 42 क्षेत्रों में 1 लाख से 2 लाख तक निषाद मतदाता हैं।
भाजपा की सोशल इंजीनियरिंग के सामने कांग्रेस की सोशल इंजीनियरिंग फुस्स –
राज्यसभा चुनाव में कांग्रेस ने उदयपुर के नवसंकल्प चिंतन शिविर के संकल्पों को तोड़ दिया,वही भाजपा ने हर समुदाय को साथ जोड़ने का पूरा प्रयास किया।खस्ताहाली के दौर से गुजर रही कांग्रेस अभी भी सुधरने का नाम नहीं ले रही है। देश प्रदेश में 55-56 प्रतिशत की आबादी वाले पिछड़े वर्ग को तो कांग्रेस बिल्कुल नकार कर चल रही है।पिछडों,अतिपिछडों को दरकिनार कर काँग्रेस कैसे अपनी सूरत सुधार पाएगी।राज्यसभा के द्विवार्षिक चुनाव के लिए भाजपा ने जातिगत समीकरण को पूरी तरह साधने का प्रयास किया,वही कांग्रेस पिछडों को शत प्रतिशत नकार कर सवर्ण मोह से उबर नहीं पाई। कांग्रेस की सूची में शामिल सारे नामों को देखेंगे तो सिर्फ गांधी परिवार के वफादारों व गणेश परिक्रमा करने वालों के नाम ही मिलेंगे, तो दूसरी ओर भाजपा की सूची को देखेंगे तो कुछ वरिष्ठ मंत्रियों के नामों के अलावा बाकी सारे नाम आपको अनजाने लगेंगे। कहा जा सकता है कि कांग्रेस ने जहां वफादारों व भाट सरीखों को टिकट दिया, वहीं भाजपा ने आम कार्यकर्ताओं को सोशल इंजीनियरिंग का ध्यान रखकर अपना उम्मीदवार बनाया।
कांग्रेस ने जून महीने ही में उदयपुर के चिंतन शिविर में जो भी संकल्प लिये थे उनमें से किसी का पालन भी पार्टी ने राज्यसभा के उम्मीदवारों को तय करते हुए नहीं किया। कांग्रेस पर परिवारवाद व तुच्छ जातिवाद के जो आरोप लगते हैं,पार्टी ने शायद उसके साथ ही जीने का संकल्प लिया है। कांग्रेस ने तमिलनाडु से पी. चिदम्बरम को उम्मीदवार बनाया जो कि वर्षों से लगातार राज्यसभा और लोकसभा के सदस्य बनते रहे हैं। चिदम्बरम तमिलनाडु से राज्यसभा उम्मीदवार बनाये गये,जबकि उनके बेटे कार्ति चिदम्बरम तमिलनाडु से कांग्रेस के लोकसभा सांसद हैं। राजस्थान से कांग्रेस ने उत्तर प्रदेश के पार्टी नेता और पूर्व राज्यसभा सांसद प्रमोद तिवारी को अपना उम्मीदवार बनाया। प्रमोद तिवारी की बेटी आराधना मिश्रा मोना उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की विधायक हैं। प्रमोद तिवारी उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ के अलावा पार्टी का कहीं भी विस्तार नहीं कर पाये लेकिन उन्हें दूसरी बार राज्यसभा का टिकट थमा दिया गया।पिछड़े-वंचित वर्ग को कांग्रेस ने सिरे से खारिज कर दिया,वही भाजपा ने 23 में 14 ओबीसी,एससी को टिकट देकर सोशल इंजीनियरिंग का नट-बोल्ट कस दिया।भाजपा ने पिछले महीने राज्यसभा में जिन्हें नामित कराया,23 में 11 ओबीसी,एमबीसी व 3 दलित थे,वही कांग्रेस के 10 में 5 ब्राह्मण,1-1 वैश्य,मुस्लिम व दलित 2 सवर्ण थे।
कांग्रेस को 55-56% पिछड़ो की जरूरत नहीं-
कांग्रेस की सोशल इंजीनियरिंग भाजपा के सामने पूरी तरह फेल है।लगता है कांग्रेस से कसम खा लिया है कि कुछ भी हो जाए पिछड़ो को पीछे ही रखना है।भाजपा ने सोशल इंजीनियरिंग का ध्यान रखते हुए 3 कुर्मी/पाटीदार,1-1 निषाद, कुशवाहा/यादव,सैनी,साहू,गुजर,वोक्कालिगा,कुरुबा,बंजारा, वाल्मीकि, जाटव,कठेरिया को प्रतिनिधित्व दिया, वही कांग्रेस की सोशल इंजीनियरिंग आधारहीन व गणेश परिक्रमा करने वाले नेताओं के सामने ध्वस्त हो गयी।
क्या कांग्रेस को पिछड़ों, अतिपिछड़ों की जरूरत नहीं –
देश के अधिकांश राज्यों में ओबीसी,एमबीसी की आबादी 50 से 71 प्रतिशत है।बीच में जब कांग्रेस ने भूपेश बघेल,अशोक गहलोत, चन्नी को मुख्यमंत्री बनाया तो ऐसा लगा था कि कांग्रेस पिछली गलतियों में सुधार ला रही है।पर,उदयपुर नव संकल्प चिंतन शिविर के बाद ज्यों ही राज्यसभा उम्मीदवारों की सूची सामने आई,कांग्रेस फिर अपने पुराने रास्ते पर टहलती हुई दिखाई दी।कांग्रेस की कथनी -करनी को ये सारी चीजें स्पष्ट बयां कर देती हैं।कांग्रेस लाख कोशिश कर ले उत्तर प्रदेश, बिहार में पर ओबीसी को नकार कर वह कुछ नहीं कर पायेगी।कांग्रेस की सबसे बड़ी बुराई उसका ब्राह्मण मोह है,जो मृगमरीचिका के सिवाय कुछ नहीं।कांग्रेस कुछ भी कर ले,10,20 वर्षों तक सवर्ण उसके पाले में आने वाला नहीं।
हिंदी पट्टी में कांग्रेस को ओबीसी कॉर्ड खेलना ही पड़ेगा –
अगर कांग्रेस को वास्तव में आगे बढ़ना है और अपने जनाधार को बढ़ाना है तो उसे ब्राह्मण मोह से उबर कर उत्तर प्रदेश, बिहार,मध्यप्रदेश जैसे राज्यों में उसे ओबीसी को आगे करना होगा,अन्यथा कांग्रेस लाख कोशिश करे,इन राज्यों में यह 5 प्रतिशत से आगे नहीं बढ़ पाएगी।कारण कि उत्तर प्रदेश, बिहार मंडलवाद के प्रदेश हैं और इधर मध्यप्रदेश, झारखण्ड, छत्तीसगढ़, राजस्थान, गुजरात भी मंडलवादी विचारधारा पर आगे बढ़ रहे हैं।2024 के लोकसभा चुनाव को ध्यान में रखकर कांग्रेस क्या रणनीति बनाती है,उसके रणनीतिकारों पर निर्भर है।उत्तर प्रदेश में पार्टी के आधार को मजबूत करने के लिए अतिपिछड़ी जाति के संख्या बल वाले नेता को बेहिचक प्रदेश अध्यक्ष की जिम्मेदारी दी देनी चाहिए।कांग्रेस के पास वर्तमान में कोई बेसिक वोटबैंक नहीं रह गया है।
उत्तर प्रदेश के जातिगत समीकरण में मुस्लिम के बाद यादव,जाटव,निषाद /कश्यप/बिन्द 10 प्रतिशत से अधिक हैं,वही 4.01 प्रतिशत कुर्मी पटेल,4.56 प्रतिशत कोयरी/काछी/मौर्य/कुशवाहा/शाक्य/सैनी/माली,3.60 प्रतिशत लोधी/किसान,2.38 प्रतिशत पाल/बघेल,1.84 प्रतिशत प्रजापति,1.61 प्रतिशत साहू/तेली,1.31 प्रतिशत,1.26 प्रतिशत नोनिया/चौहान,1.11 प्रतिशत नाई/सबिता,1.01 प्रतिशत कान्दू/भुर्जी,1.94 प्रतिशत जाट,1.72 प्रतिशत विश्वकर्मा हैं।
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(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व स्वतंत्र टिप्पणीकार,राजनीतिक विश्लेषक हैं।)