प्रेम क्या है…..

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प्रेम क्या है.....
प्रेम क्या है.....
राजू यादव
राजू यादव

 प्रेम एक एहसास है,जो दिमाग से नहीं दिल से होता है प्रेम में अनेक भावनाओं व अलग-अलग विचारो का समावेश होता है। प्रेम का मतलब किसी दूसरे व्यक्ति के प्रति गहरा स्नेह करना है। प्रेम वस्तुतः होता नही है-हो जाता है। हम जिसे प्रेम कहते है वो वस्तूतः आवश्यकता,आदत और आकर्षण होता है। प्रेम स्नेह को लेकर खुशी की ओर धीरे-धीरे अग्रसर करता है। प्रेम एक मज़बूत आकर्षण और निजी जुड़ाव की भावना है। संसार में सच्चा प्रेम है ही नहीं। सच्चा प्रेम उसी व्यक्ति में हो सकता है जिसने अपने आत्मा को पूर्ण रूप से जान लिया है। प्रेम ही ईश्वर है और ईश्वर ही प्रेम है। प्रेम क्या है..

  आधुनिक समाज में प्रेम शब्द का दुरुपयोग इस हद तक हुआ है कि हरएक कदम पर इसके अर्थ को लेकर प्रश्न खड़े होते रहे हैं। यदि सच्चा प्रेम है तो यह ऐसा कैसे हो सकता है..? प्रेम क्या है….? किसी को पाना या खुद को खो देना…? एक बंधन या फिर मुक्ति…? जीवन या फिर जहर…? इसके बारे में सबकी अपनी-अपनी राय हो सकती हैं।

मूल रूप से प्रेम का मतलब है कि कोई और आपसे कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण हो चुका है। यह दु:खदायी भी हो सकता है, क्योंकि इससे आपके अस्तित्व को खतरा है। जैसे ही आप किसी से कहते हैं, ’मैं तुमसे प्रेम करता हूं’, आप अपनी पूरी आजादी खो देते है। आपके पास जो भी है आप उसे खो देते हैं। जीवन में आप जो भी करना चाहते हैं,वह नहीं कर सकते। बहुत सारी अड़चनें हैं, लेकिन साथ ही यह आपको अपने अंदर खींचता चला जाता है। यह एक मीठा जहर है,बेहद मीठा जहर। यह खुद को मिटा देने वाली स्थिति है। अगर आप खुद को नहीं मिटाते,तो आप कभी प्रेम को जान ही नहीं पाएंगे। आपके अंदर का कोई न कोई हिस्सा मरना ही चाहिए। आपके अंदर का वह हिस्सा,जो अभी तक ’आप’ था, उसे मिटना होगा, जिससे कि कोई और चीज या इंसान उसकी जगह ले सके। अगर आप ऐसा नहीं होने देते,तो यह प्रेम नहीं है,बस हिसाब-किताब है,लेन-देन है।

मानव जीवन में कई तरह के संबंध होते हैं, जैसे पारिवारिक संबंध,वैवाहिक संबंध,व्यापारिक संबंध,सामाजिक संबंध आदि। ये संबंध हमारे जीवन की बहुत सारी जरूरतों को पूरा करते हैं। ऐसा नहीं है कि इन संबंधों में प्रेम जताया नहीं जाता या होता ही नहीं। बिलकुल होता है। प्रेम तो आपके हर काम में झलकना चाहिए। आप हर काम प्रेमपूर्वक कर सकते हैं। लेकिन जब प्रेम की बात हम एक आध्यात्मिक प्रक्रिया के रूप में करते हैं, तो इसे खुद को मिटा देन की प्रक्रिया की तरह देखते हैं। जब हम मिटा देने की बात कहते हैं तो हो सकता है, यह नकारात्मक लगे। प्रेम क्या है…..

एक बार कान्हा जी से पूछा मैंने,कि आपने क्यों लिख दी मेरी प्रेम कहानी अधूरी…!
मुझे समझाते-समझाते वो खुद रो पड़े,कहने लगे की मुझें भी तो राधा नहीं मिली…!
फिर एक बात कही उन्होंने,कि जब मैं भगवन तरसा हूं प्रेम के खातिर…!
तो तुम अब तुम्हारा सोच लो,अगर हाथ में रिश्ता है तुम्हारे…!
तो उसे अभी जाकर दबोच लो, कर लो मुट्ठी कस कर बंद…!
क्योकि पडने वाले छाले हैं,मैने चुप रहकर भुगत लिया है…!
लेकिन तुम मुंह खोलो,क्योंकि तुम्हे खाने कड़ुए निवाले हैं…!
इस दुनिया के आगे कभी ना रोना, ये समझौते प्रेम के बताने वाले हैं…!
ये वही मित्र है वही सगे हैं,जो तुम्हारी हार पर खुशियां और खुशियों में मातम मनाने वाले हैं…!

 “प्रेम के समाप्त होने का कारण हो तो भी वह समाप्त नहीं हो तो वह प्रेम है।”

जब आप वाकई किसी से प्रेम करते हैं तो आप अपना व्यक्तित्व,अपनी पसंद-नापसंद,अपना सब कुछ समर्पित करने के लिए तैयार होते हैं। जब प्रेम नहीं होता,तो लोग कठोर हो जाते हैं। जैसे ही वे किसी से प्रेम करने लगते हैं, तो वे हर जरूरत के अनुसार खुद को ढालने के लिए तैयार हो जाते हैं। यह अपने आप में एक शानदार आध्यात्मिक प्रक्रिया है, क्योंकि इस तरह आप लचीले हो जाते हैं। प्रेम बेशक खुद को मिटाने वाला है और यही इसका सबसे खूबसूरत पहलू भी है।

प्रेम वह अहसास है जो हमे ज़िंदगी मे पहली बार एक व्यक्ति को देख कर होता है और प्रेम में दूरियां सिर्फ देह की हो सकती हैं, मगर रूह में प्रेम बसाने के बाद प्रेम अमर हो जाता है। देह की दूरियां नजदीकियों से बेहतर हैं जब प्रेम किसी से होता है। एक झलक सभी दूरियां समाप्त कर दे वो प्रेम ही है। जब कोई इंसान किसी दूसरे इंसान को देख कर अत्यधिक प्रभावित हो जाये, उसके अक्श से आकर्षित हो जाये, उससे मिल कर सर्वाधिक प्रसन्न हो जाये, उसके वचन पर मंत्रमुग्ध हो जाये, उसकी क्रिया पर फ़िदा हो जाये, उसके दृष्टि पर विलीन हो जाये, उसके मिलन पर विचलित हो जाये, उससे विरह पर सुस्त हो जाये, उससे विच्छेद पर न्यौछावर हो जाये, उसके साथ विचरण पर कटिबद्ध हो जाये, जो जीवन पर आधारित हो जाये वो प्रेम है। उसकी खुशी में संतोष प्राप्त करने लगे, उसके दुःख में सबसे ज्यादा चिंतित हो जाये, उसकी इच्छा में खुद को जला कर भस्म कर दे वो प्रेम है।

आप इसे कुछ भी कह लें-मिटाना कह लें या मुक्ति कह लें, विनाश कह लें या निर्वाण कह लें। जब हम कहते हैं, “शिव विनाशक हैं,” तो हमारा मतलब होता है कि वह मजबूर करने वाले प्रेमी हैं। जरूरी नहीं कि प्रेम खुद को मिटाने वाला ही हो, यह महज विनाशक भी हो सकता है। यह इस बात पर निर्भर करता है कि आप किसके प्रेम में पड़े हैं। तो शिव आपका विनाश करते हैं, क्योंकि अगर वह आपका विनाश नहीं करेंगे तो यह प्रेम संबंध असली नहीं है। आपके विनाश से मेरा मतलब यह नहीं है कि आपके घर का,आपके व्यापार का या किसी और चीज का विनाश। जिसे आप “मैं” कहते हैं, जो आपका सख्त व्यक्तित्व है। प्रेम की प्रक्रिया में उसका विनाश होता है और यही खुद को मिटाना है।

जब आप प्रेम में डूब जाते हैं तो आपके सोचने का तरीका,आपके महसूस करने का तरीका, आपकी पसंद-नापसंद,आपका दर्शन,आपकी विचारधारा सब कुछ बदल जाता है।आपके भीतर ऐसा अपने आप होना चाहिए, और इसके लिए आप किसी और इंसान का इंतजार मत कीजिए कि वह आकर यह सब करे। इसे अपने लिए खुद कीजिए, क्योंकि प्रेम के लिए आपको किसी दूसरे इंसान की जरूरत नहीं है। आप बस यूं ही किसी से भी प्रेम कर सकते हैं। अगर आप बस किसी के भी प्रति हद से ज़्यादा गहरा प्रेम पैदा कर लेते हैं-जो आप बिना किसी बाहरी चीज के भी कर सकते हैं-तो आप देखेंगे कि इस ”मैं” का विनाश अपने आप होता चला जाएगा।

एक बार श्रीकृष्ण अपनी रानियों के साथ गंगा जी में स्नान करने सिद्धाश्रम गए। संयोगवश वहाँ श्री राधा रानी भी उसी समय अपनी हजारों सखियों के साथ गंगा स्नान करने पहुंची। रुक्मिणी जी ने श्री राधा रानी के अद्भुत सौंदर्य के बारे में सुना था। जब​ उन्हें यह पता चला तो वे राधा रानी से मिलने के लिए उत्सुक होने लगीं । उन्होंने श्री राधा रानी को अपने परिसर में आमंत्रित किया जिसे श्री राधा रानी ने स्वीकार कर लिया। जैसे ही श्री राधा रानी ने रुक्मणी जी के परिसर में प्रवेश किया तो सभी रानियां उनके रूप माधुर्य तथा आभा को देखकर स्तब्ध रह​ गईं। उन्होंने सहर्ष​ श्री राधा रानी तथा सखियों का स्वागत किया । तब​ रुक्मिणी जी ने श्री राधा रानी से एक प्रश्न किया। सभी रानियां तथा गोपियां श्रीकृष्ण को अपना प्रियतम मानकर प्रेम करती हैं। क्या तुम्हें उनसे ईर्ष्या नहीं होती…? श्री राधारानी मुस्कुराई तथा बड़ा ही सुंदर​ उत्तर दिया।

चन्द्रो यथैको बहवश्चकोराः, सूर्यो यथैको बहवः दृशस्युः।
श्रीकृष्ण चन्द्रो भगवाँस्थैको, भक्ता भगिन्यो बहवो वयं च॥

मेरी प्यारी बहनों..! चंद्रमा तो केवल एक ही है परंतु चकोर तो बहुत हैं। कल्पना कीजिए यदि एक चकोर चंद्रमा पर अपना अधिकार कर ले तो बाकी सभी चकोर तो मर जायेंगे । इसी प्रकार सूर्य एक है हम सभी उसी के प्रकाश से दृष्टि पाते हैं। यदि कोई एक सूर्य पर अधिकार कर ले तो बाकी सब नेत्रहीन हो जाएंगे। संक्षेप में कहें, श्री कृष्ण ही प्रेम तत्व हैं । यदि मैं उन पर अपना एकाधिकार कर लूंगी तो अन्य जीव उनके प्रेम से वंचित रह जायेंगे । दूसरी बात यह है कि मेरे श्याम सुंदर अन्य जीवों से प्रेम करके सुख प्राप्त करते हैं तो मुझे कोई आपत्ति क्यों होगी…?

प्रेम करना एक कला है। आपके पास प्रेम देने की कुशलता होनी चाहिए। प्रेम देने का कौशल यानी प्यार में डूब जाना, केवल कोशिश करना नहीं। प्रेम कोई कार्य नही है, वह तो आपके मन की अवस्था है। आपको उसमें बिना कोई शर्त के रहना है।प्रेम में सबके प्रति संवेदनशील होने और उनके सुख में अपना योगदान करने का गुण भी शामिल है। प्रेम को केवल प्रेम रहने दो। उसे कोई नाम न दो। जब आप प्रेम को नाम देते हैं, तब वह एक संबंध बन जाता है, और संबंध प्रेम सीमित करता है।प्रेम ही ईश्वर है और ईश्वर ही प्रेम है। प्रेम क्या है…..