सेवा ही सुख है

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सेवा ही सुख है
सेवा ही सुख है

डॉ. नीरज भारद्वाज

सामान्यतः यह देखा जाता है कि एक सामान्य व्यक्ति हर समय अपने परिवार, मित्रों आदि में अपनी समस्याओं और व्यक्तिगत संघर्ष की बातें करता रहता है। वह अपने ऊपर उठने, आगे बढ़ने के संघर्ष को बताकर प्रसन्नचित्त हो जाता है। सही मायनों में व्यक्ति के पैदा होने से लेकर मृत्यु तक, कहां संघर्ष और समस्या नहीं है, यह सब बातें सबको पता है। फिर भी व्यक्ति इन्हीं चर्चाओं में लगा रहता है। व्यक्ति अपने संघर्ष, दुःख-दर्द, व्यथा को बताने में ही जीवन व्यतीत कर देता है। हरि भजन केवल दुख के समय में होता है, स्थिति ठीक होते ही वही जीवन बेला फिर शुरू। कहा गया है- दुःख में सुमरिन सब करे, सुख में करै न कोय। जो सुख में सुमिरन करे दुःख काहे को होय।।  जो व्यक्ति वास्तव में हरि भजन में लग गया, वह इस जीवन रूपी सागर से पार उतर जाता है। सेवा ही सुख है

विचार करें तो जीवन की दौड़-धूप और उधेड़बुन से भी अलग सोच, समझ और ज्ञान-विज्ञान का दायरा है। बहुत लोगों के मुख से सुना होगा कि नेकी कर दरिया में डाल अर्थात अच्छा काम कर, लोगों की भलाई कर और आगे बढ़ जा। वह अच्छाई या भलाई ही हमें धीरे-धीरे सफलता की ओर ले जाती है, जीवन को सरल बना देती है। सही मायनों में हम इस जीवन को भोगने नहीं बल्कि इस जीवन में हम दूसरों की भलाई करने के लिए आए हैं, उनकी सेवा करने आए हैं। कहा भी गया है- सेवा परमो धर्मः अर्थात सेवा ही परम धर्म है। देखा और समझा जाए तो सेवा करने से अहंकार कम होता है अर्थात समाप्त हो जाता है। सेवा करने के भाव से ही कितने ही सामान्य व्यक्ति महामानव और युगपुरुष बन गए हैं।

अपने परिवार से ही देखें तो माँ का सेवा भाव हम सभी को उत्साह से भर देता रहता है। जीवन को रोजाना नया संदेश देता रहता है। वास्तव में माँ शब्द में ब्रह्मांड छिपा है। पिता का त्याग और समर्पण परिवार को संबल देता है। परिवार का हर एक सदस्य जब सेवा, त्याग, समर्पण में उतर जाता है तो वह परिवार स्वयं में ही स्वर्ग से सुंदर नजर आता है। जहां यह तत्त्व समाप्त हो जाते हैं, अपने-अपने को भोगने में लग जाते हैं तो परिवार, समाज, देश सभी कुछ खंडित नजर आता है। राष्ट्र सेवा भी सबसे बड़ी सेवा है। अपने भारत देश को कहते ही भारत माता हैं और जयकारा लगाते हैं कि भारत माता की जय। इसीलिए राष्ट्र अर्थात् देश सेवा भी सबसे बड़ा कार्य है। हम देश की संपदा को भोगने नहीं बल्कि इसकी रक्षा, सौंदर्य, सेवा आदि के लिए ही इस भूलोक पर आए हैं।  

जीवन जीने की कला सभी को नहीं आती है। वास्तव में कोई अपने भाग्य को कहता है तो कोई कर्मों को कहता है। गीता में भगवान ने कहा है- कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन। अर्थात कर्म पर ही तुम्हारा अधिकार है, कर्म के फल पर नहीं। सही मायने में व्यक्ति को अच्छे कार्य करते हुए ही आगे बढ़ना चाहिए। जीवन सरस, सुंदर और मधुर बन जाएगा लेकिन व्यक्ति पता नहीं कहां भटक रहा है। ऐसा लगता है हर एक व्यक्ति इस धरती पर धन इकट्ठा करने आया है। चारों ओर भागम-भाग और लूट मार सी दिखाइए देती है। अध्यात्म चेतना शून्य और भोग चेतना प्रबल रूप से व्यक्ति के सिर चढ़कर बोल रही है।

 हमारे संत, महात्मा बार-बार इस भोगवाद और इस भोगवादी संस्कृति से दूर रहने की कहते हैं। साहित्य भी हमारा अध्यात्म चिंतन कहता है। हमारे शास्त्र भी हमें सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया का संदेश देते हैं लेकिन हम हैं कि इस जीवन को जीने से अधिक भोगने में लगे हुए हैं। जीवन की सार्थकता सेवा और जीवों की भलाई है। पेड़ लगाए, नदियों को साफ रखें, पर्यावरण को दूषित न करें। सेवा ही सुख है