

अस्तित्व की अभिव्यक्ति है प्रकृति। अस्तित्व है अंतहीन। सृजन प्रकृति का धर्म है। प्रतिपल नई कोंपल, नई कली, नव पराग, नव मकरंद। कीट-पतिंग भी नवसृजन हैं। नन्हीं गौरैय्या के मुँह में दाना डालती गौरैय्या माता या अपने बच्चे को पेट में चिपकाए इस डाल से उस डाल पर छलांग लगाती बन्दरिया। बछड़े को चाट-चूमकर शक्तिशाली गोवंश तैयार करती गोमाता। सृजन के विध्ााता देव ब्रह्मा हैं। वे कभी थकते नहीं। बार-बार अथक सृजन। अकथ विस्तार। गीत, काव्य, संगीत और समूचा साहित्य प्रकृति की सृजन शक्ति ही विस्तार है। प्रकृति रचती-गढ़ती है तो यह कर्म प्रकृति है और मनुष्य रचता है तो संस्कृति। प्रकृति में सत् चित् आनन्द की त्रयी है तो संस्कृति में सत्य, शिव और सुन्दर की त्रय-दिव्यता है। प्रकृति में सुन्दरतम् सृजन की गहन अभीप्सा है। मनुष्य प्रकृति का भाग है। इसलिए मनुष्य भी सुन्दरतम् सृजन की कामना से भरापूरा है। बस चित्त प्रशांत होना चाहिए। सृजन से लोकमंगल
आनन्द हमारी सर्वोत्तम अभीप्सा है। हरेक सृजन का लक्ष्य आनन्द है। यह आनन्द स्वयं तक ही सीमित नहीं है। सृजन धर्म स्वयं का अतिक्रमण करता है और लोकआनन्द व लोकमंगल का हेतु सेतु बनता है। प्रकृति के पास असीम अभिव्यक्ति स्वातन्त्र्य है। प्रकृति का अभिव्यक्ति स्वातन्त्र्य संविधान की देन नहीं। वह वर्षा रचती है, कभी आंधी के साथ, कभी आंधी के पूर्व और कभी आंधी के बाद भी। वह गहन उमस के बीच भी वर्षा ले आती है। आकाश में इन्द्रधनुष रचने के लिए उसे इन्द्र या वरुण देवों की अनुमति नहीं चाहिए। मनुष्य को भी अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता है। इस स्वतन्त्रता का सदुपयोग लोकमंगल के लिए ही होना चाहिए। अन्तस् में सत् चित् आनन्द का गीत है। सत्य, शिव और सुन्दर इसी की अभिव्यक्ति है। भारतीय परंपरा में सृजन का दिक्सूचक यही केन्द्र है।
शाश्वत तत्वों को सृजन का विषय बनाने की भारतीय परम्परा महत्वपूर्ण है। तात्कालिक विकृतियों को हटाना और शाश्वत मूल्यों की प्रतिष्ठा जरूरी है। संस्कृति के सारगर्भ से जुड़ने की यह बात महत्वपूर्ण है। साहित्य का प्रभाव समाज पर पड़ता है और समाज का साहित्य पर भी। रामकथा में रावण के चरित्र वर्णन का समाज पर गहरा असर पड़ा है, कोई भी व्यक्ति अपने बच्चों का नाम रावण नहीं रखता। विभीषण भी नहीं रखता, यद्यपि विभीषण ने राम का सहयोग किया था लेकिन देशभक्ति प्रश्नवाचक थी। लोक ने अच्छे कार्य के बावजूद उसे ‘घर का भेदी‘ ही कहा।
लेखन सृजन निरुद्देश्य नहीं होते। तुलसीदास ने अपने सृजन को ‘स्वान्तः सुखाय‘ बताया था। स्वसुख के लिए काम करना उचित भी है। सबके अपने सुख होते हैं। तुलसी का सुख लोकमंगल का विस्तार है। प्रत्यक्ष भूमण्डल के सभी लोगों और लोकों का मंगल। फिर स्व सुख और स्वान्तः सुख में अन्तर भी है। स्वान्तः में अन्तस् का अन्तिम छोर है। भारतीय चिन्तन में स्व अन्तस् का अन्तिम छोर विराट से जुड़ा हुआ है। तुलसी के राम अखिल लोकदायक विश्रामा हैं, उनकी राम कथा ‘सुरसरि सम सबका हित होई‘ से ध्येयबद्ध है। सृजन का उद्देश्य लोकमंगल ही है। होना भी चाहिए।
सृजन आनन्दवर्द्धन होता है। इसका लक्ष्य लोकमंगल है। यह निराशा की तमस् में आशा का दीप प्रज्वलन है। शाश्वत और चिरन्तन का नूतन आख्यान है। दृश्यमान विभाजित अनेकता के भीतर एकता का दर्शन है और सामूहिक उल्लास का संयोजन भी। भरत मुनि ने नाट्यशास्त्र में सुखान्त पर जोर दिया था। सांस्कृतिक मर्यादा का संवर्द्धन और शीलरस का संवर्द्धन भी साहित्यकार का दायित्व है। कथित प्रगतिशीलता में नेह-स्नेह के आत्मीय रिश्तों के प्रति आक्रामकता है। पिता भारतीय परम्परा में देव कहे गए हैं। हम सब माता-पिता का विस्तार हैं। वे न होते तो हम न होते लेकिन नवलेखन में प्रायः माता-पिता की वैसी प्रतिष्ठा नहीं है। महाभारतकार भी कवि या साहित्यकार थे। उनके सृजन में यक्ष प्रश्न हैं। यक्ष ने पूछा, ”युधिष्ठिर। धरती से भी भारी क्या है? और आकाश से भी ऊँचा क्या?” युधिष्ठिर ने कहा, ”माता पृथ्वी से भारी है और पिता आकाश से भी ऊँचा।” ऐसे लेखन में माता-पिता की प्रतिष्ठा है। परिवार प्रीतिकर संस्था है। प्रगतिशीलता उसे तोड़ रही है।
परिवार का विकल्प नहीं। परिवार को मजबूत करने वाला लेखन समय की आवश्यकता है। ऋग्वेद में नदियों को प्रणाम किया गया है। नदियाँ प्रणाम के योग्य हैं भी। वे जलमाताएँ हैं। विज्ञान भी नदियों की महत्ता स्वीकार कर चुका है। वैदिक साहित्य में विश्वामित्र और नदी का संवाद अनूठा है। विश्वामित्र जैसे पूर्वजों ने नदियों से संवाद में भरतवंशियों की तरफ से तमाम आश्वासन दिए थे। वे आश्वासन हमारे साहित्य का हिरण्य कोष हैं। लेकिन हम सबने वे आश्वासन तोड़े हैं। नदी और मनुष्य की प्रीति शून्य हो चुकी है। नदियों ने कहा था, ”यह संवाद याद रखना, हमारा ध्यान रखना। तुम पार उतरो, हम वैसे ही नीचे झुक रही हैं जैसे बच्चे को स्तनपान कराने के लिए माँ झुकती है।” विश्वामित्र ने कहा था, ”हे नदियों, मैं आपकी स्तुति करता रहूँगा।” सामन्ती काल में अनेक चारण राजाओं की प्रशंसा गाते थे। लेकिन वे स्तोता नहीं थे, उनके गायन स्तुति नहीं थे और न ही स्तोत्र। स्तोता होना बड़ी कठिन साधना है। मन, क्रम, वचन और अन्तस् से उगा सृजन ही किसी को स्तोता बनाता है। विश्वामित्र ने नदियों को आश्वासन दिया था हम भारत के लोग आपके स्तोता रहेंगे, जलमाताओं का पोषण करेंगे, तन से, मन से।
वैदिक साहित्य में प्रकृति के कण-कण के प्रति आत्मीयता है। कथित प्रगतिशील दृष्टि में प्रकृति उपभोक्ता सामग्री है और भारतीय परम्परा में यही प्रकृति नमस्कारों के योग्य है। तुलसीदास के सृजन में भौतिक जगत सीयराममय है और बारम्बार प्रणम्य है-सीयराम मय सब जग जानी करूऊँ प्रणाम जोरि जुग पानी। प्रकृति के प्रति अंगांगी भाव की सतत् अभिव्यक्ति जरूरी है। भारतीय संविधान में राज्य के नीति निदेशक तत्व हैं। लेखन, सृजन के भी नीति निदेशक तत्व हैं। भले ही वे संहिताबद्ध नहीं हैं, लेकिन उनका अस्तित्व है। माँ-पिता की प्रतिष्ठा महत्वपूर्ण तत्व है। कथा, कहानी और काव्य में इस तत्व को ध्यान में रखना चाहिए। स्त्री आदरणीया है, माँ है, बहन है, पुत्री है, श्रद्धेय है। सम्पूर्णता का भाग है। उसे अलग करके देखना-लिखना अनुचित है। भारतीय काम सेक्स नहीं, सृजन अभिलाषा है। यहाँ काम भी अध्यात्म है।
हम सांस्कृतिक राष्ट्र हैं। करोड़ों भरतवंशी एक जन हैं। इनकी एक एकात्म अनुभूत संस्कृति है। इस संस्कृति का विकास दर्शन और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से परिपूर्ण हमारे पूर्वजों ने ही किया था। उन पूर्वजों, अग्रजों, मार्गदर्शकों के प्रति आदरभाव का पुरश्चरण अपरिहार्य है और सांस्कृतिक तत्वों का भी। लेखन में हम कल्पना के पंख लगाकर उड़ते हैं, यथार्थवादी भी हो सकते हैं लेकिन भारतीय शील-मर्यादा के गंधमादन क्षेत्र के मधुरसा का उल्लंघन उचित नहीं। मधुरसा सांस्कृतिक प्रवाह का संवर्द्धन ही सृजन का ध्येय है। विचार अभिव्यक्ति की बातें ठीक हैं, लेकिन विकार-अभिव्यक्ति की नहीं। सृजन से लोकमंगल