कलयुग केवल नाम अधारा, सुमिर सुमिर नर उतरहिं पारा ll तुलसीदास रचित रामायण की इस चौपाई के अनुसार आज के युग में ऐसे क्या साधन उपलब्ध हैं, जिनके द्वारा आसानी से आत्मज्ञान अर्थात मोक्ष पाया जा सकता है..! कलयुग केवल नाम अधारा
अवधेश यादव
इस कलयुग में भगवान का नाम ही आधार है। केवल नाम सुनने व जपने से ही मानव भव सागर से पार उतर जाता है। नाम जप में किसी विधिविधान, देश, काल, अवस्था की कोई बाधा नहीं है। किसी प्रकार से, कैसी भी अवस्था में, किसी भी परिस्थिति में, कहीं भी, कैसे भी नाम जप किया जा सकता है। इस नाम जप से हर युग में भक्तों का भला हुआ। शास्त्र कहते हैं कि कलियुग ने आने के लिए राजा परीक्षित से बहुत अनुनय-विनय की; कहा कि “घबराइए नहीं महाराज, हम किसी को तंग नहीं करेंगे, बस ‘स्वर्ण’ में घर बसाएंगे।”
“हमारे साथ दो-चार संगी, साथी होंगे- राग, द्वेष, ईर्ष्या, काम-वासना आदि।”
अपने गुण बताते हुए कलियुग ने कहा- “सुनो हमारी महिमा! हमारे राज में जो प्रभु का ‘केवल’ नाम ले लेगा, उसकी मुक्ति निश्चित है। और तो और, मन से सोचे गए पाप की हम सजा नहीं देंगे, पर मन से सोचे गए पुण्य का फल जरूर देंगे।” राजा परीक्षित ने कलियुग को आने दिया तो सबसे पहले वह राजा के सोने के मुकुट में ही विराजमान हुआ और सबसे पहले उन्हें ही मृत्यु की ओर धकेल दिया। कलियुग को सभी कोसते हैं, सभी क्रोध, राग, द्वेष और वासना से ग्रस्त हैं। कोई कहता है काश, हम सतयुग में पैदा हुए होते। कोई त्रेता और द्वापर युग के गुण गाता है।
तुलसीदास ने जन-मानस की हालत देखकर समझाया कि “कलियुग में बेशक बहुत सी गड़बडि़याँ हैं, मगर उन सबसे बचने का उपाय जितनी सरलता से कलियुग में मिल सकता है, उतनी सरलता से किसी और काल में नहीं मिला।” पहले के युगों में प्रभु को पाने के लिए ध्यान, घोर तपस्या, बड़े-बड़े यज्ञ, अनुष्ठान करना पड़ता था। ये सभी मार्ग नितांत कठिन और घोर तपस्या के बाद ही फलीभूत होते हैं। पर कलियुग में ईश्वर को प्राप्त करना पहले के मुकाबले बड़ा ही सरल हो गया है। केवल भगवान नाम जप प्रभु को पाया जा सकता है। हर मत और संप्रदाय ने गुण गाया है ‘नाम’ का। यह वह मार्ग है जहाँ विविध संप्रदाय एकमत हो जाते हैं। तभी तो गोस्वामी तुलसीदास ने कहा: “कलियुग केवल नाम अधारा। सुमिरि सुमिरि नर उतरहिं पारा।।”नाम जप में किसी विधिविधान, देश, काल, अवस्था की कोई बाधा नहीं है। किसी प्रकार से, कैसी भी अवस्था में, किसी भी परिस्थिति में, कहीं भी, कैसे भी नाम जप किया जा सकता है।
इस नाम जप से हर युग में भक्तों का भला हुआ। श्रीभद् भागवत में कथा आती है अजामिल ब्राह्माण की जिसने सतयुग में घोर पाप किया। पत्नी के होते हुए वेश्या के पास रहा। वेश्या के पुत्र का नाम नारायण रख दिया। मरते समय पुत्र को पुकारा- ‘नारायण!’ तो स्वयं नारायण आ गए। ऐसी ही एक और कथा है गज ग्राह युद्ध की। गज ने अपनी सूंड तक अपने को डूबते पाया तो पुकारा ‘रा!’ इतनी भी शक्ति नहीं थी कि पूरा ‘राम’ कह दे। पर प्रभु ने भाव समझ लिया और गज के प्राण बचा लिए।
त्रेता में वाल्मीकि ने नाम जप किया तो उल्टा। ‘राम’ कह न सके, डाकू थे, मांसाहारी थे, सो ‘मरा’ कहना सरल लगा, तोते की तरह रटते रहे तो स्वयं श्री राम पधारे कुटिया में। ‘उलटा नाम जपत जग जाना। वाल्मीकि भए ब्रह्मा समाना।” द्वापर युग में द्रोपदी ने भरी सभा में रोते हुए हाथ खड़े कर दिए। सभी का सहारा छोड़ दिया तो कृष्ण की याद आई। श्रीकृष्ण चीर रूप में प्रकट हुए।
कलियुग में तो नाम जप के भक्तों की भरमार है। कबीर, मीरा, रैदास, तुलसीदास, रहीम, रसखान, नानक, रामकृष्ण परमहंस, रमण महर्षि आदि। राजा परीक्षित के वैद्य धन्वन्तरि तो कहते थे कि ‘नाम जप’ औषधि है, जिससे सभी रोग नष्ट हो जाते हैं। इस औषधि का लाभ अनेक संतों ने उठाया है। हर अवस्था में, चिंता में, रोग में उन्होंने ‘राम नाम’ का आश्रय लिया। लेकिन नाम जप का यह अर्थ नहीं कि पाप करने की छूट मिल गई। नाम से पापों का विनाश होता तो है, पर तभी जब व्यक्ति के हृदय में पिछले पापों के प्रति प्रायश्चित और उन्हें दोबारा न करने का संकल्प हो।
नाम जप की औषधि के साथ परहेज भी आवश्यक है। नाम जपते रहो, क्रोध स्वत: दूर हो जाएगा। जप में बुरी प्रवृत्तियां पीछे हटती जाती हैं। उन्हें जबरन हटाने का प्रयास न करो, बस नाम जपो, प्रेम से। नाम जप माया रूपी संसार से उबरने का अमोघ मंत्र है। किन्तु इसके लिए हृदय का योग भी होना चाहिए।
ईश्वर को पुकारने के लिए जब दिल से आवाज उठती है, तभी उस तक पहुंचती है। अतः आइए हम सब पूर्ण भाव से ईश्वर के पवित्र नामों का जप करें। कलयुग केवल नाम अधारा