कमलेश पांडेय
सियासत की तरह वैश्विक कूटनीति में भी न तो कोई किसी का स्थायी दोस्त होता है और न ही चिरस्थायी दुश्मन, कुछेक अपवादों को छोड़कर। शायद यही सोचकर भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने चीन के राष्ट्रपति शी चिनफिंग से एक बार फिर हाथ मिलाने की रस्म पूरी कर ली। वो भी मित्र देश रूस के उस कजान शहर में जहां ब्रिक्स देशों की समिट हुई। इससे हमारे प्राकृतिक मित्र और स्थायी शुभचिंतक देश रूस को सबसे ज्यादा खुशी हुई क्योंकि इस स्थिति को पैदा करने का अहम सूत्रधार वही है। आज दुनिया जिस विकट स्थिति से गुजर रही है, उसके दृष्टिगत भी भारत-चीन का निकट आना अहम है, क्योंकि इससे दोनों देशों के बीच युद्ध की संभावनाएं निर्मूल साबित होंगे। ब्रेक के बाद चीन से पुनः दोस्ती के वैश्विक मायने
इस बात में कोई दो राय नहीं कि भारत-चीन की दोस्ती के वैश्विक मायने अहम हैं।यह शांति, स्थिरता और विकास की गारंटी है। वैसे तमाम ऐतिहासिक सम्बन्धों, पंचशील सिद्धांतों और मोदी-चिनफिंग मित्रता के बावजूद कभी भारत चीन युद्ध 1962, तो कभी लद्दाख में गलवान घाटी हिंसक झड़प की जो नौबत आई, वैसी स्थिति निकट भविष्य में पैदा न हो, और यदि हो भी तो भारत अपनी ओर से पुख्ता प्रतिरक्षात्मक तैयारी रखे, इसी रणनीति के साथ भारत-चीन सम्बन्धों को आगे बढ़ाने में कोई हर्ज नहीं है। हां, उससे इस बात की गारंटी लेनी होगी कि सिर्फ भारत-चीन सीमा पर ही नहीं, बल्कि भारत के पड़ोसी देशों यथा पाकिस्तान, अफगानिस्तान, नेपाल, भूटान, म्यांमार, श्रीलंका और मालदीव के अलावा ईरान में भी उसे भारतीय हितों के आगे नहीं जाना होगा, अन्यथा स्थायी मित्रता मुश्किल है!
आज जिस तरह से रूस-यूक्रेन युद्ध और इजरायल-फिलिस्तीन युद्ध को पश्चिमी देशों द्वारा हवा दी जा रही है, भारत-कनाडा के तल्ख होते रिश्तों और भारत-अमेरिका और भारत-ब्रिटेन के दांवपेंच भरे रिश्तों को नियंत्रित करने के लिए भी भारत-चीन के मधुर सम्बन्ध बेहद अहम साबित हो सकते हैं। इसके अलावा, बेकाबू हो रहे इस्लामिक देशों जैसे पाकिस्तान-बंगलादेश आदि को नियंत्रित करने के लिहाज से भी भारत-चीन एक दूसरे के काम आ सकते हैं। आज जिस तरीके से कहीं ईसाइयत तो कहीं इस्लाम हावी होते जा रहे हैं, उसके दृष्टिगत भी हिन्दू मिजाज वाला देश हिंदुस्तान और बौद्ध मिजाज वाला देश चीन परस्पर मिलकर बहुत कुछ उम्दा कर सकते हैं। शायद यही सोच दोनों देशों का नेतृत्व थोड़ा झुका और दोस्ती की बात आगे बढ़ाई जा सकी।
भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा भी है कि भारत-चीन के सम्बन्धों का महत्व सिर्फ हमारे लोगों के लिए ही नहीं, बल्कि वैश्विक शांति, स्थिरता और प्रगति के लिए भी अहम हैं। सीमा पर उभरे मुद्दों पर बनी सहमति का स्वागत है।शांति-स्थिरता रखना हमारी प्राथमिकता रहनी चाहिए।आपसी विश्वास, साझा सम्मान और पारस्परिक संवेदनशीलता सम्बन्धों का आधार बने रहना चाहिए। मुझे विश्वास है कि हम खुले मन से बातचीत करेंगे।
वहीं, चीनी राष्ट्रपति शी चिनफिंग का यह कहना है कि भारत और चीन को सम्बन्ध स्थिर बनाए रखने के लिए एक दूसरे के साथ मिलकर काम करना चाहिए, जिससे दोनों देशों के विकास लक्ष्यों को पूरा करने में मदद मिल सके। इसके लिए हमें मतभेद दूर करने के लिए कम्युनिकेशन और साथ मजबूत करना चाहिए। दोनों ही प्राचीन सभ्यताएं और विकासशील देश हैं। इसलिए पारस्परिक हितों को आगे बढ़ाने का सबसे अच्छा तरीका सम्बन्धों की सही दिशा को बनाये रखना है।
ऐसे में सम्बन्धों की सही दिशा क्या होगी, विचारणीय पहलू है। इस बात में कोई दो राय नहीं कि कई एक मसलों पर आज भारत की दिशा कुछ और है और चीन की दिशा कुछ और, इसलिए खुले मन से ही इस पर पारस्परिक विचार किया जा सकता है। इस क्रम में सम्प्रभुता और क्षेत्रीय अखंडता का ध्यान रखना सर्वोपरि होना चाहिए। फिर व्यापार संतुलन को तरजीह दिया जाना चाहिए, जो अभी चीन के पक्ष में एकतरफा है। इसके अलावा, एक-दूसरे को घेरने की रणनीति के विचार को त्याग देना चाहिए। क्योंकि इससे पश्चिमी देशों को फायदा होगा और भारत-चीन को काफी क्षति!
वहीं, चीन के साथ सम्बन्धों के विकास में भारत को हिंदूवादी नजरिया अपनाना होगा, क्योंकि यही वो दृष्टिकोण है जो पारस्परिक सभ्यता-संस्कृति के विकास से लेकर आर्थिक व्यवहार में समृद्धि की गारंटी दे सकते हैं। भारत भगवान बुद्ध की जन्मस्थली है, कर्मस्थली है, इसलिए पर्यटन विकास के द्वारा हमलोग दक्षिण-पूर्वी एशियाई देशों को पारस्परिक सूत्र में पिरो सकते हैं। वहीं, भारत-चीन सीमा पर स्थित हिमालय, जो नेपाल, भूटान से भी जुड़ा हुआ है, के विकास में अपार पर्यटकीय संभावनाएं छिपी हुआ हैं, जिसे आसेतु हिमालयी देशों के बीच उभारने की जरूरत है। इससे पूरी दुनिया भारत की ओर खिंचेगी। इससे होने वाली अकूत आय से भी भारत-चीन सीमा की निगरानी और रखरखाव में भी दिक्कत नहीं आएगी। सबकुछ पारदर्शी हो जाएगा।
एक बात और, अरब देशों से भारत के सम्बन्ध हमेशा से अच्छे रहे हैं। लेकिन जब से मुस्लिम आक्रमणकारियों और आतंकवादियों ने भारत को धार्मिक नजरिए से रौंदना शुरू किया, तब से उसके साथ सम्बन्धों में हमें फूंक-फूंक कर चलना होता है। खासकर पाकिस्तान और बंगलादेश के अभ्युदय से भारतीय विदेशनीति की चुनौती बढ़ी है। पहले अमेरिका ने अरब मुल्कों से अच्छे सम्बन्ध बनाए। लेकिन इजरायल के मुद्दे पर जब विरोधाभास बढ़ा तो ईरान की मुखरता देख चीन और रूस ने अरब देशों में अपनी जड़ें गहरी जमा लीं। ऐसे में भारत को अपने राष्ट्रीय हितों के मुताबिक सतर्कता पूर्वक अरब देशों से सम्बन्ध विकसित करने होंगे, क्योंकि आज अमेरिकी गुट और रूसी गुट, दोनों से भारत के सम्बन्ध मधुर हैं। वहीं, सऊदी अरब और ईरान से भी अच्छी दोस्ती है, क्योंकि ये पाक परस्त नहीं हैं। इसे भी संतुलित रखने में चीनी मित्रता काम आ सकती है।
खास बात यह है कि भारत-चीन में एलएसी विवाद पर सुलझते रिश्तों के बीच केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने कहा है कि चीन पर निवेश प्रतिबंध लागू रहेंगे। क्योंकि भारत आंखें बंद करके किसी भी देश से निवेश नहीं ले सकता है। उन्होंने प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) पर सावधानी बरतने की आवश्यकता पर भी जोर दिया। उन्होंने स्पष्ट कहा कि राष्ट्रीय हित की सुरक्षा सबसे जरूरी है। हम देश में निवेश के लिए आंख बंद करके किसी भी देश से पैसा नहीं ले सकते और आंखें मूंदकर एफडीआई स्वीकार नहीं कर सकती। यह भूलकर या इस बात से बेखबर रहकर कि यह कहां से आ रहा है। उन्होंने ठीक ही कहा कि संवेदनशील भू-राजनीतिक परिदृश्य के कारण कुछ प्रतिबंध लागू रहने चाहिए। हम व्यापार चाहते हैं। हम निवेश चाहते हैं। लेकिन हमें कुछ सुरक्षा उपायों की जरूरत है, क्योंकि भारत ऐसे पड़ोस के बीच स्थित है जो बहुत ही संवेदनशील है।
उधर, पूर्वी लद्दाख में एलएसी पर गश्त को लेकर चीन के साथ समझौते के ऐलान पर भी कांग्रेस ने कहा है कि इस बारे में सरकार को देश को भरोसे में लेना चाहिए। हम आशा करते हैं कि दशकों में विदेश नीति को लगे इस झटके का सम्मानजनक ढंग से हल भारत के प्रावधानों के तहत ही निकाला जा रहा है। हम उम्मीद करते हैं कि सैनिकों वापसी से पहले वही स्थिति बहाल होगी, जैसी मार्च 2020 में थी। पार्टी ने कटाक्ष किया कि यह दुखद गाथा पूरी तरह से चीन के संबंध में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की नासमझी और भोलेपन नतीजा है। क्योंकि गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में मोदी की चीन ने तीन बार भव्य मेजबानी की थी। जबकि प्रधानमंत्री के रूप में उन्होंने चीन की पांच आधिकारिक यात्राओं के साथ 18 बैठकें की। वहीं, वैश्विक नजरिए से भारत का पक्ष तब सबसे अधिक कमजोर हुआ जब प्रधानमंत्री ने चीन को ‘क्लीन चिट’ देते हुए कहा था कि, ‘ना कोई हमारी सीमा में घुस आया है, न ही कोई घुसा है। इसलिए अब सोच-समझकर ही सारे कदम उठाने होंगे। ब्रेक के बाद चीन से पुनः दोस्ती के वैश्विक मायने