मध्यमवर्गीय समाज में दिखावे का रोग

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मध्यमवर्गीय समाज में दिखावे का रोग
मध्यमवर्गीय समाज में दिखावे का रोग

विजय गर्ग

मध्यमवर्गीय समाज के कुछ लोग इन दिनों अनेक धनपतियों को देख-देख कर खुद को उनके जैसा ही दिखाने के भ्रम में कर्ज में डूबते चले जा रहे हैं। मासिक किस्त यानी ‘ईएमआइ’ के भरोसे अपने आप को ‘रिच ‘ यानी धनी महसूस करने की मानसिकता में लोग मतवाले हुए जा रहे हैं। इस व्यामोह से कुछ किशोर और यहां तक कि बच्चे भी ग्रस्त दिखते हैं। पिछले दिनों एक निजी स्कूल में पढ़ाने वाली एक शिक्षिका उच्च विद्यालय में पढ़ने वाले अपने बच्चे के बारे में अपनी सहेली को दुखी होकर बता रही थी कि मेरे बेटे को शहर के सिनेमा हाल में जाकर फिल्म देखना ही पसंद नहीं । उसे किसी माल में जाकर फिल्म देख कर ही संतुष्टि मिलती है और वहां जाने के बाद जब तक वह सात सौ रुपए वाला बड़ा पापकार्न खरीद कर न खाएं, तब तक उसे चैन नहीं पड़ता। ऐसा वह सिर्फ इसलिए करता है कि तब उसे ‘रिच फीलिंग’ ( अमीर दिखने की अनुभूति) होती है। वह खुद को अनेक धनपतियों की श्रेणी में खड़ा पाता । वह किसी सामान्य दुकान से कपड़े नहीं खरीदता, बल्कि किसी बड़े माल में जाकर मशहूर ब्रांड के पैंट-शर्ट, जूते, घड़ी आदि खरीद कर पहनने का आदी हो चुका है। उसकी मां आए दिन बेटे की आनलाइन खरीदारी से भी परेशान हैं। घर में तीन- चार चश्मे पहले से पड़े हुए हैं। मगर उसे मोबाइल में आनलाइन कारोबार वाली किसी वेबसाइट पर कोई नया चश्मा पसंद आ जाएगा, तो फौरन आर्डर कर देगा। चमकदार जूते, घड़ी आदि नजर आते ही वह आर्डर कर देगा, भले ही ये सब चीजें उसके पास पहले से ही मौजूद हों। मां समझाती है, पर वह मानता नहीं। मध्यमवर्गीय समाज में दिखावे का रोग

इस उद्धरण को सिर्फ संदर्भ के तौर पर देखा जा सकता है। सच यह है कि ऐसे बच्चे और उनकी ऐसी सोच-समझ और व्यवहार अब समाज में आम मामलों की तरह देखा जा सकता है। सक्षम तबकों से आने वाले ज्यादातर बच्चे इसी मानसिक ढांचे के तहत अपना जीवन-चक्र आगे बढ़ा रहे हैं । दिखावा एक सामाजिक मूल्य बनता जा रहा है।

मगर इस सबसे बेखबर समाज के दूसरे वर्ग भी दिखावे के इस रोग की गिरफ्त में आ रहे हैं। एक नशा बाहर के खाने का भी है। अब अनेक बच्चों को घर का खाना पसंद नहीं आता, आनलाइन पिज्जा और ठंडे पेय मंगा कर खाना-पीना उसे खूब भाता है। आनलाइन खरीदी का नशा अलग है। ऐसे तमाम बच्चे हैं, जिनकी मां की एक बड़ी राशि बेटे की आनलाइन खरीदारी में चली जाती है। वह बार-बार समझाती है, लेकिन अमीर होने के अहसास होने से मार की वजह से यह बात समझ में नहीं आती कि मां को अपनी सीमित तनख्वाह के भरोसे महीने भर घर चलाना है। मां की आर्थिक दिक्कत से बेटे का कोई सरोकार नहीं । उसे अपनी अमीर होने की अनुभूति की चिंता है। मसलन, कभी-कभी आंदोलनकर्मी नारे लगाते हैं कि ‘चाहे जो मजबूरी हो, हमारी मांगें पूरी हों’। इसी तरह, कुछ बच्चों की जिद रहती है कि भले ही माता-पिता के बैंक खाते में पैसे खत्म हो गए हों, मगर उन्हें जो चीज चाहिए तो वह चाहिए ही । इस तनाव में मां को मजबूरी में कहीं से उधार मांगना पड़ता है।

ऐसे अनेक बच्चे मध्यवर्गीय परिवारों में मौजूद हैं, जो आर्थिक हैसियत न होने के बावजूद सिर्फ इसलिए अनाप-शनाप चीजें खरीद लेते हैं कि उनकी ‘रिच फीलिंग’ बरकरार रहे। माता-पिता को कर्ज में डुबोकर बच्चे बड़े आत्मविश्वास में भरकर कहते हैं कि जब वे कमाने लगेंगे, तो महंगी कार खरीदेंगे, पूरी दुनिया की सैर करेंगे, भले ही अभी पुरानी कार खरीदने की भी आर्थिक हैसियत नहीं हो, मगर अमीरी के सपने देखने में कोई कमी नहीं । एक पिता अपने दो बेटों की इसी मानसिकता से त्रस्त थे कि उसके कारण ही वे कर्ज में डूबे हुए हैं।‘आमदनी अठन्नी, खर्चा रुपैया’ वाली स्थिति है। ऐसे अहसास के शिकार वे बच्चे अधिक हैं, जो पढ़ाई-लिखाई को गंभीरता से नहीं लेते और हर समय स्मार्टफोन में नजरें गड़ाए रखते हैं। अब तो स्मार्टवाच भी है, जिसमें मनोरंजन के बहुत से इंतजाम हैं। ऐसे बच्चों की महंगी फरमाइशों को पूरा करते-करते अभिभावक परेशान हो जाते हैं, लेकिन अपने बच्चों को समझा ही नहीं पाते कि हम तुम्हारे अमीर होने के अहसास को और बर्दाश्त नहीं कर सकते। कड़े शब्दों का प्रयोग इसलिए भी नहीं करते कि कहीं इसका दुष्परिणाम न हो । आए दिन ऐसी घटनाएं होती रहती हैं, जिसमें मां ने डांट दिया तो लड़का घर से भाग गया। महंगा मोबाइल नहीं दिलाया तो बच्चा फंदे से लटक गया।

सही है कि इस बाजारवाद की सबसे भयावह चीज यही है कि मध्यवर्गीय परिवार के अनेक बच्चे अपने अभिभावकों की परेशानियों को समझना नहीं चाहते । सिर्फ यह कि किसी भी सूरत में उनकी इच्छाओं की पूर्ति हो जाए। जबकि बाजार सामान्य इच्छाओं को भी एक बेलगाम भूख में तब्दील कर देता है। अब तो महंगा आइ- फोन ‘स्टेटस सिंबल’ या ऊंची हैसियत का प्रतीक बन चुका है। मन में यह गर्वीला भाव जागृत होता है कि हम भी कुछ हैं। बच्चे स्कूल या कालेज में अपने साथियों को दिखाते हैं कि हमारे पास भी आइ-फोन है, भले ही उसकी मासिक किस्त भरते- भरते अभिभावक परेशान रहें। एक सवाल यह भी है कि बच्चों की सोच-समझ की इस दिशा में आगे बढ़ते जाने में क्या अभिभावकों की जिम्मेदारी नहीं बनती ? क्या बच्चों के भीतर अभिरुचि के विकास और उनके एक जिद में तब्दील होने में अभिभावकों की अनदेखी की कोई भूमिका नहीं है? हालांकि समझदार बच्चे घर-परिवार की आर्थिक परेशानियों को देखते हुए कभी अनावश्यक जिद नहीं करते। वे दिखावे की होड़ में बिल्कुल नहीं पड़ते और यथार्थ में जीते हैं। जैसी चादर है, उसके हिसाब से पैर फैलाना चाहिए। मध्यमवर्गीय समाज में दिखावे का रोग