गांधी,भगत,अम्बेडकर में समन्वय: समय की मांग

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गांधी,भगत,अम्बेडकर में समन्वय: समय की मांग
गांधी,भगत,अम्बेडकर में समन्वय: समय की मांग

अंबुज कुमार

प्राचीन काल में शैव और वैष्णव संप्रदाय के बीच संघर्ष और मतभेद चलते थे। दोनों की सोच और मान्यताएं अलग अलग थी। इसके अलावा धार्मिक भक्ति आंदोलन के दौरान भी बहुत से संप्रदाय बने हुए थे। जब इस्लामिक आक्रमण हुआ और सूफियों का प्रभाव समाज पर पड़ने लगा तब इन संप्रदायों में एकता की चर्चा होने लगी। रामचन्द्र शुक्ल ने भक्ति आंदोलन को इस्लामिक प्रतिक्रिया माना है जबकि हजारी प्रसाद द्विवेदी ने इसे स्वाभाविक प्रक्रिया बताया है। बहरहाल गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरितमानस की रचना के माध्यम से समन्वय बनाकर एकता स्थापित करने की बात की है। ये अलग बात है कि जातीय श्रेष्ठता के भाव से वे भी बाहर नहीं निकल पाए लेकिन शैव और वैष्णव संप्रदाय को एक कर व्यापक स्वरूप देने का काम किया। ये अलग बात है कि समाज जातीय भेदभाव के साथ चलता रहा और विदेशियों के आने तक अस्मिता बोध के कई केंद्र बने रहे। श्रेष्ठि लोग और सत्ताधारी लोग अपने लोगों पर अत्याचार कर पुरुषार्थ साबित करते रहे और विदेशी हुकूमत स्थापित होती रही। गांधी,भगत,अम्बेडकर में समन्वय: समय की मांग

    वर्तमान समय में गांधी, अम्बेडकर और भगत सिंह, ये तीन विचारधारा समाज में प्रबल तरीके से विद्यमान हैं। तीनों की मंजिल एक ही है। गांधीवादी विचारधारा शांति और अहिंसा के रास्ते समाज को लोकतांत्रिक,गणराज्य बनाए रखने पर जोर देती है। संघर्ष के लिए सत्याग्रह इसके प्रमुख हथियार हैं। अम्बेडकर विचारधारा धर्म के वर्णाश्रम व्यवस्था को चुनौती देते हुए समानता और भाईचारे पर जोर देते हुए कल्याणकारी लोकतांत्रिक समाज पर जोर देती है। भगत सिंह क्रांतिकारी लोकतांत्रिक समाजवादी समाज की कल्पना करते हैं जिसमें मजदूरों, किसानों की भी समान भागीदारी हो। वे भी क्रांति के लिए बम,बंदूक को आवश्यक नहीं मानते हैं। इनका कहना था कि क्रांति विचारधारा की सान पर तेज होती है।

   अमूमन हम देखें तो भारत जैसे विविधता सम्पन्न देश में हथियारबंद क्रांति प्रासंगिक नहीं है। इसे किसी भी कीमत पर आम जनता का समर्थन हासिल नहीं होता है। यही कारण है कि राष्ट्रीय आंदोलन में गांधी जी का अभियान जन जन तक फैल गया लेकिन भगत सिंह का अभियान जन जन तक नहीं फैला। आज भी लोग शांति पूर्ण संघर्ष में ज्यादा भाग लेते हैं। हथियारयुक्त क्रांति में राजसत्ता की असीम ताकत और दमन के आगे टिकना मुश्किल होता है। वामपंथी लेखक सुधीर सिंह की किताब ” बिहार में भगत सिंह” उस दौर के क्रांतिकारियों की अनेक चुनौतियों को इंगित करती हैं। ये लोग सामाजिक,आर्थिक, राजनीतिक,मुखबिरी की समस्याओं से गुजरते हुए राजसत्ता और आम जनता के भी नजरों पर चढ़े रहते थे। रात या दिन, भूमिगत रहकर ही मिशन की कामयाबी में लगे रहते थे। आज के दौर में इस तरह की क्रांति की परिकल्पना हम नहीं कर सकते।।

   राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान भी इनके बीच मतभेदों के बावजूद समन्वय का उदाहरण मिलता है। इस किताब से मालूम होता है कि क्रांति की गतिविधियों के दौरान भी साथी कांग्रेस से जुड़े होते थे, अधिवेशनों में भाग लेते थे और किसी से मिलने के लिए भी कांग्रेस के दफ्तर का इस्तेमाल करते थे। गांधी जी का अछूतोद्धार कार्यक्रम भी अम्बेडकर से जुड़ा हुआ था। वे मुस्लिमों और सिखों के पृथक निर्वाचन के भी विरोधी थे। यही कारण है कि जब द्वितीय गोलमेज सम्मेलन में दलितों को पृथक निर्वाचन दिया जाने लगा तो उन्होंने विरोध किया। वे पृथक निर्वाचन को राष्ट्र का विभाजन मानते थे। 1909 के मार्ले मिंटो अधिनियम में मुस्लिमों के पृथक निर्वाचन के कारण ही पाकिस्तान राष्ट्रवाद की बीज पड़ी थी। गांधी जी ने पृथक निर्वाचन की जगह विधायिका में सीट आरक्षित करने का समर्थन किया था जो संविधान में दर्ज है और आज भी जारी है।।

   राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान ही गोलवलकर और हेडगेवार की हिंदुत्ववादी विचारधारा भी परवान चढ़ने लगी थी। आज हिंदुत्व की विचारधारा सबसे तीव्र गति से बढ़ी है। यह सब पर भारी है। हिंदू महासभा, आरएसएस जनसंघ से होते हुए यह बीजेपी के रूप में राजसत्ता तक की यात्रा कर चुकी है। उक्त तीनों विचारधारा संघ की विचारधारा से सहमत नहीं हैं। वे इसे विभाजनकारी और लोकतांत्रिक समाज के अनुकूल नहीं मानती हैं। व्यक्तिगत स्वतंत्रता, समाजवाद, धर्म निरपेक्षता पर खतरे के रूप में देखती है। व्यक्तिगत पूंजी संकेद्रण को राष्ट्र पर खतरे के रूप में आगाह कर रही हैं। दिल्ली के मुख्यमंत्री कार्यालय से भगत सिंह और डॉ अम्बेडकर की प्रतिमा को हटाने की घटना को प्रेक्षक इसी नजरिए से विश्लेषित कर रहे हैं।।

    गांधी, भगत सिंह, अम्बेडकर की तीनों विचारधारा को विश्लेषण करने और उनके कार्यक्रमों में शामिल होने के बाद मैंने महसूस किया कि तीनों में भिन्नता के बावजूद एक समानता है। इस समानता को ताकत बनाकर आपसी समन्वय बनाया जा सकता है। ऐसा करने से एक सामान्य विचारधारा का जन्म होगा, जो सर्वमान्य भी होगा और भारत के मन मिजाज के अनुकूल भी होगा। इससे सैकड़ों साल के आजादी, समानता,भाईचारे, समाजवाद,लोकतंत्र, धर्म निरपेक्षता के संघर्ष को सफलीभूत किया जा सकता है। गांधी,भगत,अम्बेडकर में समन्वय: समय की मांग