क्या इससे बदल जाएंगे युद्ध के तरीके-भारत को भी रहना होगा चौकन्ना। युद्ध में अब ऐसी युक्तियों का उपयोग होता है, जिनमें न तो संपर्क की ज़रूरत होती है और न ही बहुत भाग-दौड़ की। इसके साथ ही युद्ध क्षेत्र का स्थान के लिहाज़ से अस्थाई रूप से विस्तार हुआ है। भारत को चौकन्ना रहना होगा
अशोक भाटिया
लेबनान में सीरियल पेजर व वॉकी-टॉकी अटैक दुनिया में हमले का नया तरीका बताया जा रहा है। फ़िलहाल इस तरीके के हमलों के लिए कई देश तैयार नहीं है , भारत तो बिलकुल नहीं। लिहाजा,भारत की सुरक्षा एजेंसियां भी चौकन्ना हो गई है। एक्सपर्ट का कहना है कि पेजर व वॉकी-टॉकी अटैक से युद्ध के तरीके बदल सकते है। एक्सपर्ट का कहना है कि पेजर व वॉकी – टॉकी इस्तेमाल करने वाले टारगेट पहचान करने के लिए इनकी इलेक्ट्रोनिक सर्विलांस की गई हो गई सकती है। एक्सपर्ट के अनुसार अब ऐतिहासिक रूप से इस बात को मान लिया गया है कि जब भी युद्ध होता है, तो उसकी प्रकृति एक तरह की रहती है, उसमें कोई परिवर्तन नहीं होता है, यानी युद्ध में विरोधी को अपने मन मुताबिक़ झुकाने के लिए हिंसा का सहारा लिया जाता है। इसके साथ ही यह भी कहा जाता रहा है कि टेक्नोलॉजी, संगठन, राजनीति और संस्कृति के साथ-साथ युद्ध का स्वरूप बदल जाता है। लेकिन अब यह धारणा बदल चुकी है। देखा जाए तो पिछले एक दशक में युद्ध का तरीक़ा पूरी तरह से बदल गया है।
युद्ध में अब ऐसी युक्तियों का उपयोग होता है, जिनमें न तो संपर्क की ज़रूरत होती है और न ही बहुत भाग-दौड़ की। इसके साथ ही युद्ध क्षेत्र का स्थान के लिहाज़ से अस्थाई रूप से विस्तार हुआ है। आज युद्ध और शांति की परिभाषित अवधियों को एक ऐसी निरंतर होने वाली प्रतिस्पर्धा से बदल दिया गया है। जिसमें सशस्त्र संघर्ष के स्थान पर दुश्मन को अन्य तरीक़ों से घेरने और मात देने की रणनीतियों का इस्तेमाल किया जाता है। कहा जा सकता है कि इस तरह के युद्ध का लक्ष्य विरोधी का विनाश करने का कम और उसके रास्ते में तरह-तरह के अवरोध पैदा करने का ज़्यादा होता है। युद्ध के स्वरूप में इस बदलाव के लिए दोहरे उपयोग वाली प्रौद्योगिकियां, जो सस्ती और दूर तक फैली हुई हैं, काफ़ी अहम रही हैं। इस बदले हुए परिवेश में भारतीय सशस्त्र बलों के लिए प्रौद्योगिकी के उपयोग में सक्षम कमांडरों को तैयार करना अनिवार्य हो गया है। यानी ऐसे सैन्य कमांडरों को तैयार करना, जो न सिर्फ़ नई-नई टेक्नोलॉजी के बारे में गहरी समझ रखते हों, बल्कि जिनके पास विरोधियों के विरुद्ध नए-नए तीरक़ों से इन तक़नीकों का उपयोग करने के लिए रचनात्मक सोच और काबीलियत भी हो।
समय के साथ-साथ युद्ध में आने वाले परिवर्तन को वर्गीकृत करने की कोशिश करने वाले सिद्धांतकार, युद्ध की ‘जेनरेशन्स या पीढ़ी’ का उल्लेख करते हैं। पहली पीढ़ी के युद्धों में यानी शुरूआती काल के युद्धों में बड़े पैमाने पर जनशक्ति और लाइन-ऑफ़-कॉलम, अर्थात एक ही दिशा में हमला करने की रणनीति पर ज़ोर दिया गया। दूसरी जेनरेशन के युद्ध में मशीन गन और परोक्ष गोलीबारी की रणनीति थी, तीसरे जेनरेशन के युद्धों में छल-कपट, पैंतरेबाज़ी और साझा हथियारों की जंग का बोलबाला था, जबकि चौथी पीढ़ी में नॉन-स्टेट दुश्मन शामिल थे। वर्तमान पांचवीं जेनरेशन के युद्ध की विशेषता नॉन-काइनेटिक कार्रवाई यानी कि जानलेवा सैन्य कार्रवाइयों की जगह पर गलत सूचनाओं का प्रसार, साइबर-हमले और सोशल इंजीनियरिंग के साथ-साथ आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस (AI) और ऑटोनॉमस प्रणालियों का उपयोग है।
पिछले कई वर्षों में हुई कई घटनाओं ने यह भी दिखाया है कि युद्ध लड़ने और राजनीतिक उद्देश्यों की प्राप्ति के बीच संबंध बेहद कमज़ोर हो गया है। जब तक राजनीतिक उद्देश्यों को पूरा करने की इच्छाशक्ति मज़बूत नहीं हो, तब तक विरोधी की युद्ध लड़ने की ताक़त को कमज़ोर करना या दुश्मन के इलाक़े में कब्जा करने जैसे सैन्य उद्देश्यों को हासिल करना संभव नहीं हो सकता है।’जेनरेशन या पीढ़ी’ शब्द की उत्पत्ति के पीछे एक अंतर्निहित धारणा है, जिसके अनुसार प्रत्येक नई पीढ़ी का युद्ध, हमले के पिछले तरीक़ों और तक़नीकों को छोड़कर आगे बढ़ जाता है। हालांकि, पिछले दशक की घटनाओं ने दिखाया है कि ये पीढ़ियां एक-दूसरे का ख़ून बहाती हैं। आर्मेनिया-अज़रबैजान युद्ध, ऑपरेशन इराक़ी फ्रीडम,ऑपरेशन एंड्योरिंग फ्रीडम और वर्तमान में जारी रूस-यूक्रेन संघर्ष ने इस नज़रिए को मज़बूती प्रदान की है।
दुश्मन को कमज़ोर करने वाले युद्ध ने आतंकवादी रोधी अभियानों, मानव रहित प्रणालियों और कॉम्बैट बायोमेट्रिक्स जैसी प्रौद्योगिकियों के उपयोग एवं साइबर हमलों व दुष्प्रचार के साथ मिलकर एक अराजकतापूर्ण ‘युद्धक्षेत्र’ बनाने का काम किया है। पिछले कई वर्षों में हुई कई घटनाओं ने यह भी दिखाया है कि युद्ध लड़ने और राजनीतिक उद्देश्यों की प्राप्ति के बीच संबंध बेहद कमज़ोर हो गया है। जब तक राजनीतिक उद्देश्यों को पूरा करने की इच्छाशक्ति मज़बूत नहीं हो, तब तक विरोधी की युद्ध लड़ने की ताक़त को कमज़ोर करना या दुश्मन के इलाक़े में कब्जा करने जैसे सैन्य उद्देश्यों को हासिल करना संभव नहीं हो सकता है। कहने का तात्पर्य यह है कि सहयोग और संघर्ष का चोली-दामन का साथ है, यानी इन्हें अलग नहीं किया जा सकता है। अमेरिका एवं चीन, भारत एवं चीन और दूसरे अन्य जोड़ीदारों का मामला इस विचार को पुख्ता करने का काम करता है।
इसके फलस्वरूप युद्ध संचालति करने के दो समानांतर तरीक़ों की परिकल्पना की जा रही है, पहला नॉन-कॉन्टैक्ट और दूसरा नॉन-काइनेटिक युद्ध। गैर-संपर्क यानी नॉन-कॉन्टैक्ट वाले युद्ध में लंबी दूरी तक निशाना साधने वाले हथियार, जैसे कि रॉकेट और मिसाइल, इलेक्ट्रोमैग्नेटिक स्पेक्ट्रम, मानव रहित एरियल सिस्टम और साइबर अटैक आदि शामिल हैं, जबकि नॉन-काइनेटिक युद्ध संचालन में सोशल मीडिया के ज़रिए दुष्प्रचार करना, एक्सपोर्ट पर नियंत्रण, प्रोपेगंडा फैलाना और साइबर अटैक जैसी युक्तियां शामिल हैं। युद्ध के ये सभी तरीक़े ऐसे हैं, जिनमें प्रौद्योगिकी का उपयोग आवश्यक है। ये सभी विशेष रूप से डेटा के संग्रह, उसके मिलान एवं विश्लेषण, विकसित सेमीकंडक्टर्स, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और एन्क्रिप्टेड कम्युनिकेशन पर आधारित हैं।
दरअसल, लड़ाई अब फिजिकल डोमेन के कहीं आगे बढ़कर संरचनात्मक क्षेत्र तक पहुंच गई है। अब युद्ध में देशों की प्रक्रिया संबंधी कमज़ोरियों को निशाना बनाते हुए, उनके राजनीतिक निर्णय लेने की प्रक्रियाओं में दख़ल समेत देश के भीतर पड़ी दरारों का फायदा उठाते हुए सरकार एवं नागरिकों के बीच अविश्वास को बढ़ावा दिया जाता है। ज़ाहिर है कि इस तरह की नए दौर की लड़ाई का सामना करने के लिए ऐसे सैन्य कमांडरों की आवश्यकता होती है, जो प्रौद्योगिकी की जानकारी से लैस हों और जो यह पहचान सकें कि भविष्य की चुनौतियों का मुक़ाबला हमेशा पुराने हथकंडों का इस्तेमाल करके नहीं किया जा सकता है। इन कमांडरों के पास सक्षम जूनियर अफ़सरों को तैयार करने और नवीनतम तक़नीकों की गहरी समझ-बूझ के आधार पर नए-नए युद्ध समाधान विकसित करने के लिए मानसिक योग्यता और क्षमता होनी चाहिए। ज़ाहिर है कि इसके लिए सैन्य नेतृत्व के भीतर सैद्धांतिक, संगठनात्मक और सबसे महत्त्वपूर्ण, संज्ञानात्मक बदलाव शामिल करने होंगे।
युद्ध अब ग्रे-ज़ोन ऑपरेशन्स,मल्टी-डोमेन ऑपरेशन्स और न्यू जेनरेशन वारफेयर को कवर करने के लिए विस्तारित हो गया है। तक़नीकी नवाचारों के प्रभावी उपयोग के ज़रिए फोकस गैर-संपर्क और नॉन-काइनेटिक साधनों को तैनात करने पर है, ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि अपने विरोधी पर ध्यान केंद्रित करने के बजाए दुश्मन पक्ष अपनी सामाजिक और संगठनात्मक कमज़ोरियों में ही उलझा रहे है।
संदर्भ यह है कि भारत संभावित रूप से दो ऐसे कपटी, धूर्त और चालाक किस्म के पड़ोसी देशों से घिरा हुआ है, जो संशोधनवादी प्रवृत्ति के हैं। आज ज़्यादातर सैन्य ख़तरे प्रौद्योगिकियों की वजह से ही हैं, जैसे कि AI और साइबर अटैक जैसे आंकड़ों की प्रमुखता वाली तक़नीक के ख़तरे, इलेक्ट्रोमैग्नेटिक स्पेक्ट्रम का हेरफेर, लंबी और छोटी दूरी वाली मिसाइलें एवं मानव रहित प्रणालियां, अंतरिक्ष आधारित इंटेलिजेंस, निगरानी और जासूसी प्रणालियां। सेना में ऐसे प्रशिक्षित और योग्य सैन्य कर्मियों को विभिन्न रैंकों पर नियुक्त करना कभी भी अधिक महत्त्वपूर्ण नहीं रहा है, जिनके पास न केवल उभरती हुई और ख़ास तरह की प्रौद्योगिकियों की समझ हो, बल्कि विरोधियों का सामना करने के लिए नए-नए समाधानों के लिए उन टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल करने की रचनात्मक काबीलियत भी हो। इसके अलावा भारतीय सशस्त्र बलों के भीतर संरचनात्मक बदलावों की भी सख़्त ज़रूरत है। ताकि अफ़सरों को वर्तमान में चल रहे विवादों और भविष्य के युद्धों के लिए बेहतर ढंग से तैयार किया जा सके।
यह विशेष रूप से अहम है कि उभरती हुई प्रौद्योगिकियों की प्रकृति इन तक़नीकी नवाचारों का लाभ उठाने के लिए फ्लैट, विकेंद्रीकृत और मॉड्यूलर संगठनों को सबसे अच्छी स्थिति में रखती है। ज़ाहिर है कि भविष्य के युद्धों का सफल संचालन तीव्र संचार, तत्काल निर्णय लेने, सैन्य बलों को भौतिक रूप से एकत्र किए बगैर मारक क्षमता का बेहतर इस्तेमाल, नॉन-काइनेटिक सैन्य उपकरणों के उपयोग और लक्ष्य पर सटीक निशाना साधने की क्षमता पर निर्भर करेगा। इन सभी विशेषताओं के लिए एक अपेक्षाकृत फ्लैट ऑर्गेनाइजेशन की ज़रूरत होती है, जहां हर जेनरेशन के लोग मौज़ूद होते हैं और किसी भी तरह का निर्णय लेने में एवं समय सीमा के भीतर संदेश के त्वरित संचार में कोई अड़चन नहीं होती है। यानी एक ऐसा संगठन जो मॉड्युलर और स्वायत्त भी होता है।
हमें यह देखना है कि क्या भारतीय सशस्त्र बल इस परिवर्तन के लिए तैयार हैं..? प्रौद्योगिकी के उपयोग के लिहाज़ से देखा जाए, तो तीनों सेनाएं एक समान नहीं हैं। एक तरफ नौसेना और वायु सेना अपने स्वरूप की वजह से तक़नीकी रूप से कहीं अधिक दक्ष और सक्षम हैं, जबकि दूसरी तरफ हथियार प्रणालियों और प्लेटफार्मों के उपयोग के मामले में थल सेना आज अपनी क्षमता बढ़ाने के लिए प्रौद्योगिकियों को शामिल करने का प्रयास कर रही है। एजेंसियों का कहना है कि अब न केवल पेजर वॉकी-टॉकी अटैक,बल्कि मोबाइल फोन,एलसीडी,लेपटोप या ऐसी कोई भी डिवाइस जिसका कनेक्शन डायरेक्ट या इनडायरेक्ट ये किसी भी सर्वर से हो,उसे उड़ाया जा सकता है।अब भारत समेत तमाम देशों को इसे लेकर तैयार रहना होगा और सुरक्षात्मक तरीका अपनाना होगा। भारत को चौकन्ना रहना होगा