

आज हमारे समाज का चलन और परिवेश दोनों ही तेजी से बदल रहे हैं। हर कोई स्वयं को अधिक कामकाजी और व्यस्त दिखाने की होड़ में लगा हुआ है या फिर ये कहा जाये कि पहले की अपेक्षा लोग अपनों की जगह अपने आप को अधिक महत्व देने लगे हैं। मतलब मेरी पढ़ाई,मेरा कैरिअर,मेरी लाइफ,मेरी प्राइवेसी आदि तो गलत नहीं होगा और इसमें कोई खामी भी नहीं है। विकास की ओर अग्रसर होना एक अच्छी आदत है परन्तु इन सभी बातों ने जिस पर सबसे अधिक प्रहार किया है। वह है “रिश्तों की अहमियत”आज के आपा-धापी भरे जीवन में रिश्तों का वजूद बिखरता जा रहा है। रिश्तों से मिठास कहीं गायब सी होती जा रही है। आखिर क्यों घट रही है रिश्तों की अहमियत। रिश्तों की घटती अहमियत कहीं इस बात का संकेत तो नहीं कि अब हममें सामंजस्य रखने की क्षमता नहीं रही। और हम अपने रिश्तों को निभाने में अक्षम हो रहे हैं या फिर कहीं व्यस्तता का बहाना करके हम अपनी जिम्मेदारियों से भाग तो नहीं रहे,क्योंकि उन्हें उठाने में हम समर्थ नहीं हैं। ज़िम्मेदारी का अर्थ केवल परिवार का भरण-पोषण करना नहीं होता बल्कि परिवार को प्रेम और विश्वास के साथ खुशियों का आदान-प्रदान करना और आपस में आपसी समझ का होना आवश्यक होता है। सही मायने में आपसी समझ और प्यार वही होता है जो एक सदस्य का दर्द दूसरे की आँखों में आँसू बनकर निकले या फिर हम एक दूसरे की अनकही बातों को भी समझ जायें। पर आजकल ऐसा देखने को मिल रहा है कि अनकही बातों को समझना तो दूर हम अपनी ही कही हुई बातों से मुंह फेर लेते है। आखिर क्यों घट रही है रिश्तों की अहमियत…
हमें इस बात पर विचार अवश्य करना चाहिए कि वास्तव में हमारी प्राथमिकता क्या है? वो कड़वाहट जो हम अपने रिश्तों में घोल रहे हैं उसके साथ हम कितने दिन जी सकते हैं ? हमारा जीवन साथी हमारे वजूद की पहचान होता है। हमारे माता-पिता हमारे अस्तित्व के नियामक होते हैं। ऐसे में उनके लिये हमारे पास समय का न होना क्या हमारे ओछेपन की निसानी नहीं।अगर उन्होंने भी समय न होने का बहाना करके हमसे मुंह फेर लिया होता तो क्या आज हम वहाँ पहुँच पाते जहां आज हम हैं। या फिर हम इतने स्वार्थी हो गये हैं कि अपनी बुनियाद से ही अलग होने की कोशिश कर रहे है। ऐसे में एक सीधा सा प्रश्न यह उठता है कि क्या जड़ों से अलग होकर किसी पेड़ का फलना-फूलना मुमकिन है..? या फिर जिन रेशमी धागों से हमारा ताना-बना बुना है उसमें से किसी एक डोर को काटने के बाद वह ढांचा यूं ही बन रह सकता है ? और दूसरा प्रश्न जो बार-बार दिमाग में आता है कि आखिर ऐसी क्या वजह है जो हमे रिश्तों में ताल-मेल बना पाने में असमर्थ बना रही है ? क्या वास्तव में ऐसी कोई वजह है या फिर यह हमारे द्वारा बनाया हुआ भ्रम है। एक ऐसा मुद्दा है जो अधिकतर लोगों के द्वारा उठाया जाता है वह है ‘समय का अभाव’ पर यदि थोड़ी सी सूझ-बूझ से काम लिया जाय तो यह इतनी बड़ी समस्या नहीं है। हम कम समय में भी परिवार के साथ प्रेम और वैचारिक सहमति बनाकर चल सकते हैं। जितनी सहृदयता और प्रेम से हम बाहरी लोगों के साथ बात करते हैं और व्यवहार करते हैं। यदि उतना ही प्रेम घर पर भी दें तो घर स्वर्ग बन जायेगा। फिर कभी रिश्तों में कोई दरार नहीं आयेगी लेकिन हम ऐसा नहीं कर पाते…
एक बात और है जो मेरे दिमाग में अक्सर कौंधती है कि कहीं हम अनजान रिश्तों से क्षणिक आनन्द की ओर अधिक आकर्षित तो नहीं हो रहे हैं। या फिर भ्रम और दिखावे की दुनिया हम अधिक पसंद करने लगे हैं। क्योंकि जब से इंटरनेट पर सोशल नेटवर्किंग साइटों का प्रयोग बढ़ा है। लोग अंजान लोगों के साथ बात करने में अधिक दिलचस्पी रखने लगे हैं जिन बातों का कोई अर्थ नहीं होता, कोई मतलब नहीं होता उनमें वो समय को बर्बाद करते हैं। परिवार में वह क्षणिक आनन्द उन्हें नहीं मिल सकता इसलिए अपने परिवार के लिए उनके पास समय नहीं होता। अतः अपने आपको अधिक सक्रिय और व्यस्त दिखाने के बहाने अपने मूल से ही अलग हो रहे हैं। इन सभी बातों पर गहनता से विचार करने की आवश्यकता है कि जो राह हम अपने लिये चुन रहे हैं। वह कितनी सही है और उसका क्या अंजाम होगा जब हम अपने निजी जीवन में सामंजस्य बनाकर नहीं चल सकते। कुशलता पूर्वक अपने रिश्तों का निर्वाह नहीं कर सकते तो फिर हम अपने बच्चों से किस आधार पर सोचते हैं कि वे हमसे सामंजस्य बनाकर रिस्तों का निर्वाह करेंगे। उनकी जगह स्वयं को मानकर सोचिए,तो निश्चित रूप से हम सबको अपनी भूल पता लग जायेगी कि हमारे रिश्ते में दूरी की वजह क्या है..? कहने का अभिप्राय यह है कि समय रहते हमें इस बात पर विचार करना ही होगा कि रिश्तों की अस्मिता को आधुनिकता की बलि चढ़ने से बचाना होगा और यह काम इतना मुश्किल नहीं है। यदि हम अपने रिश्तों को प्रेम, विश्वास और इमानदारी के साथ निभायें तो हमारे रिश्तों की आत्मीयता बनी रहेगी और हमारा जीवन खुशहाल बना रहेगा…
रिश्तों का अर्थ केवल एक ही छत के नीचे रहना नहीं है-बल्कि एक-दूसरे की भावनाओं को समझना, बिना कहे मन की बातों को जानना, और जब एक रोए तो दूसरे की आंख नम हो जाए, यही रिश्ते की सच्ची परिभाषा है।लेकिन आज हालात ये हैं कि हम अपनी कही बातों से भी मुंह मोड़ लेते हैं। संवेदनाएँ मशीनी होती जा रही हैं, और रिश्ते “औपचारिक”।रिश्ते प्रेम, विश्वास और ईमानदारी की नींव पर टिके होते हैं। इन्हें बचाने के लिए किसी बड़े त्याग की ज़रूरत नहीं, बल्कि थोड़ी सी संवेदनशीलता, थोड़ी सी समझ और थोड़ा सा समय ही काफी है।आधुनिकता को अपनाइए, पर अपने मूल को मत भूलिए। रिश्तों की अस्मिता को बनाए रखिए, क्योंकि अंततः यही हमारे जीवन को खुशहाल और सार्थक बनाते हैं। आखिर क्यों घट रही है रिश्तों की अहमियत…