गुरु के चरणों में सदा, बसता है संसार।
विद्या का विस्तार कर, उपजाते संस्कार।।1।।
कच्ची मिट्टी शिष्य है, गुरु देते आकार।
सोना आभूषण करे, जैसे कुशल सुनार।।2।।
गुरु के अद्भुत तेज से, जगमग तीनों लोक।
इनकी शीतल छाँव में, मिटे ताप भय शोक।।3।।
परिभाषा गुरुदेव की, बदल गई है आज।
स्वार्थ सिद्धि से जोड़कर, देखे सकल समाज।।4।।
जब तक देते ज्ञान वह, तब तक हैं गुरुदेव।
शेष समय इक मित्र सा, बन जाते स्वयमेव।।5।।
ऐसे गुरु को क्या कहें, जिसको ना हो खेद।
मान और अपमान का, समझे ना जो भेद।।6।।
कुछ घूमें बन के सखा, गर्दन डाले हाथ।
ये ना गुरु ना शिष्य हैं, करें नशा जो साथ।।7।।
गुरु की गरिमा ध्यान से, पहले तुम लो जान।
तब इस पावन रूप को, धारण कर नादान।।8।।