अधिकांश छात्र का यह सपना होता है कि स्कूली शिक्षा के बाद वह डाक्टर या इंजीनियर बने या उच्च शिक्षा प्राप्त करने के बाद उसका स्वप्न होता है। कि आइएएस या अन्य सरकारी सेवाओं की परीक्षा उत्तीर्ण करके अपनी जिंदगी में आगे बढ़े। यह भी सही है कि सभी लोग ये परीक्षाएं उत्तीर्ण नहीं कर पाते, लेकिन यदि व्यवस्था में ईमानदारी हो तो कुछ सक्षम विद्यार्थी अवश्य ऐसा कर पाते हैं। हाल ही में राष्ट्रीय मेडिकल प्रवेश परीक्षा (नीट) में प्रश्न पत्र लीक होने के मामले प्रकाश में आ रहे हैं। ऐसी भी आवाज उठने लगी है कि नीट की परीक्षा होनी ही नहीं चाहिए। दिलचस्प बात यह है कि यह मांग परीक्षार्थियों की और से नहीं, बल्कि कुछ राजनेताओं की और से उठ रही है। अब सवाल यह है कि यदि मेडिकल प्रवेश परीक्षा नीट की व्यवस्था को भंग कर दिया जाता है तो उसके स्थान पर कौन से व्यवस्था लागू होगी? इसमें यह सवाल भी महत्वपूर्ण है कि नीट की व्यवस्था लागू होने से पहले मेडिकल प्रवेश परीक्षाएं कैसे होती थीं, और उसके क्या गुण दोष थे? नीट की परीक्षा लागू करने की जरूरत ही क्यों पड़ी? यदि नीट के स्थान पर पुनः पुरानी व्यवस्था लागू होती है तो उसका मेडिकल कालेजों में उम्मीदवारों के भविष्य पर क्या असर पड़ सकता है? पेपर लीक की घटना को आधार बनाकर नीट व्यवस्था को भंग करना कितना उचित होगा, इस पर विचार करना जरूरी है। कायम रहे ‘नीट युजी’ की व्यवस्था
मेडिकल प्रवेश परीक्षा का इतिहास
नीट लागू होने से पहले अखिल भारतीय स्तर पर केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड (सीबीएससी) द्वारा परीक्ष आयोजित की जाती थी जिसमें केंद्र सरकार, राज्य सरकारों और अन्य सरकारी प्राधिकरणों द्वारा चलाए जा रहे विभिन्न मेडिकल एवं डेंटल कालेजों के एमबीबीएस एवं बीडीएस डिग्री कोर्स में प्रवेश हेतु कम से कम 15 प्रतिशत सीटें इस परीक्षा में पास होने वाले विद्यार्थियों के लिए आरक्षित की जाती थी। यह सही है कि कुछ बेईमान तत्वों के कारण नीट और यूपीएससी परीक्षाओं में कुछ स्थानों पर पेपर लीक होने के कारण विद्यार्थियों को धक्का लगा है। वैसे निजी शिक्षण संस्थानों में प्रवेश प्रक्रिया हमेशा ही विवाद का विषय रही है। नीट से पहले प्राइवेट मेडिकल संस्थान प्रवेश परीक्षा आयोजित तो करते थे, लेकिन उनमें अधिकांश नामांकन कालेजों को दी जाने वाली राशि के आधार पर होता था। कुछ अपवाद को छोड़ मोटी फीस के अलावा भारी नकद रकम अलग से चुका कर प्राइवेट मेडिकल कालेजों में प्रवेश मिलता था, तो ऐसे में यह व्यवस्था मेडिकल की पढ़ाई में असमानता का एक बड़ा कारण हुआ करती थी। ऐसे में हालांकि वर्ष 2012 में सरकार द्वारा अलग-अलग प्रांतों और कालेजों के आधार पर विविध प्रकार की परीक्षाओं से निजात पाने के लिए देश में एक साझी परीक्षा आयोजित करने का फैसला लिया गया, जिसके खिलाफ प्राइवेट कालेजों के प्रबंधन ने अदालत में आपत्ति दर्ज की। इस मुकदमे में न्यायालय ने दुर्भाग्यपूर्ण तरीके से प्राइवेट मेडिकल कालेजों के प्रबंधन के हित में फैसला देते हुए साझी परीक्षा को यह कहकर निरस्त कर दिया कि यह प्राइवेट कालेजों के अधिकारों का उल्लंघन है।
नई व्यवस्था
केंद्र में नरेन्द्र मोद सरकार आने के बाद इंडियन मेडिकल काउंसिल और डेंटल काउंसिल आफ इंडिया ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर कर 2013 के उसके निर्णय पर पुनर्विचार करने के लिए निवेदन किया। पांच जजों की बेंच ने निर्णय को पलटते हुए ‘नीट’ परीक्षा को संवैधानिक ठहराते हुए साझी परीक्षा का रास्ता साफ किया। यह अनुभव किया गया कि ‘नीट’ की सझी परीक्षा के बाद सरकारी कालेजों में ही नहीं, बल्कि प्राइवेट कालेजों में भी योग्यता के आधार पर एमबीबीएस में प्रवेश हो पा रहा है। लेकिन जबसे ‘नेट’ की परीक्षा शुरू हुई है, मेडिकल कालेजों में भ्रष्टाचार के माध्यम से कमाई का स्रोत बंद हो चुका है। कुछ समय पहले ‘नीट’ की परीक्षा में पेपर लीक होने की घटना प्रकाश में आई तो कुछ राजनीतिक पार्टियों ने नोट परीक्षा समाप्त करने की मांग करनी शुरू कर दें हैं। यह नहीं भूलना चाहिए कि पूरे देश में जितने भी मेडिकल या डेंटल कालेज हैं, उनमें एक बड़ी संख्या राजनेताओं द्वारा स्थापित संस्थानों की है ऐसे में प्राइवेट मेडिकल कालेजों के प्रबंधक नीट की परीक्षा समाप्त कर मेडिकल प्रवेश को उसी पूराने ढर्रे पर ले जाना चाहते हैं, जहां उन्हें मनमाने तरीके से प्रवेश परीक्षा आयोजित कर भारी रकम कमाने का मौका मिल सके। पेपर लीक की कुछ घटनाओं से प्रभावित होकर इन निहित स्वार्थ वाले लोगों के बहकावे में आकर नीट की परीक्षा को समाप्त करना हमें फिर से उसी अंधे कुएं में धकेल देगा और मेडिकल में प्रवेश फिर से पैसे वाले लोगों का खेल बनकर रह जाएगा। कायम रहे ‘नीट युजी’ की व्यवस्था