उम्मीद बोता समाजवादी…
डॉ. अम्बरीष राय
एक शख़्स उम्मीद बोता है. एक शख़्स हौसला होता है. एक शख़्स भरोसा होता है. एक शख़्स के अंदर बहुत बवंडर होता है. एक शख़्स समाज के लिए, अपने लोगों के लिए कुछ करना चाहता है. अंहकार नहीं कि लोगों को दिखाऊं कि मैं कर रहा हूं. ये स्वभाव में है. गंगा में कितना पानी बह चुका इसका अंदाज़ा भी नहीं है किसी को. किसी को नहीं तो दरअसल किसी को भी नहीं. कर वही सकता है जो सामर्थ्यवान हो. अब सामर्थ्यवान तो अपनी सुविधा देखता है, सहूलियत देखता है, अपना इन्तज़ाम देखता है. लेकिन वो एक शख़्स है दरअसल शख़्सियत है. वो राजीव राय है. वो माटी का सपूत है और अपने परिवार का सपूत है.
याद करिए वो मौसम. याद करिए वो वक़्त जब सैटेलाइट चैनल्स चीख चीख कर 2012 में अखिलेश यादव की जीत के, उनके मुख्यमंत्री बनने की इनसाइड स्टोरी चला रहे थे. तमाम समाजवादी पुरोधा अपनी पेंशन और अपनी ज़रूरतों के लिए ऊपर वाले का शुक्र जता रहे थे. वक़्त के उसी दौर में कई नाम उभरे. समाजवादी पार्टी सत्ता में आई, अपने बलबूते आई. समाजवादी अपने अपने हिस्से की मलाई की जद्दोजहद में थे. उस दौर में राजीव राय चैनल्स की सुर्खियों में थे. बताया गया कि समाजवादी पार्टी की इस क़ामयाबी के पीछे, अखिलेश यादव के मुख्यमंत्री बनने के पीछे राजीव राय एक महत्वपूर्ण प्लेयर हैं. लेकिन ये भी हुआ की ये ज़हीन शख्सियत सत्ता की बंदरबांट में चुपचाप किनारे हो गई. चलो छोड़ो की कैफ़ियत को जीने वाले राजीव राय अखिलेश यादव के बगलगीर बने रहे. ना कुछ पाने की जद्दोजहद और ना ही कुछ ना पाने का मलाल. राजीव राय बने रहे. सत्ता चली गई. समाजवादी पार्टी अर्श से फ़र्श पर आ गई.
फिर आया साल 2022. उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनावों का बिगुल बज गया. समाजवादी पार्टी फिर से सरकार बनने की उम्मीद में थी. जैसा कि अब सबको पता है मोदी सरकार सियासत में उसके खिलाफ़ खड़े लोगों का सब कुछ लील जाना चाहती है. मौजूदा सियासी पैटर्न देखें तो यही सामने निकलकर आता है कि विरोधी मज़बूत हो तो उसके खेमे में आ जाए या फिर उसको तबाह कर दिया जाए. राजीव राय के साथ दोनों ही हथकंडे अपनाये गए. अपने सामर्थ्य और कौशल से उद्यमी बने राजीव राय को मौजूदा अराजक सत्ता से ज़रा भी डर नहीं लग रहा था. नतीजतन भारत सरकार उनके खिलाफ़ हो गई. मोदी सरकार उनके खिलाफ़ हो गई.
हम लोगों ने उस दौर को भी देखा है, जब इंदिरा इज इंडिया & इंडिया इज इंदिरा था. हम लोग इस दौर को भी देख रहे हैं जब मोदी मोदी के नारे के बीच दूसरा कोई नहीं है. कितने ही कांग्रेसी, समाजवादी और तमाम फुटकर क्षेत्रीय दलों के नेता त्राहिमाम त्राहिमाम करते मोदी सरकार की चौखट पर दम तोड़ गए. वज़ह बस इतनी कि राजनीति से पैसा कमाया है, ग़ैरकानूनी कमाया है तो सरेंडर करो, भाजपाई बनो. और एक बड़ी जमात ये मान भी गई. सरेंडर हुई, आत्मसमर्पित हुई, ये पब्लिक डोमेन में है.
2012 के बाद 2022 में राजीव राय फिर सुर्खियों में आए. 2012 में वो अखिलेश यादव के बगलगीर, उनकी क़ामयाबी के किस्सों के क़िरदार थे तो 2022 में फिर से ना अखिलेश यादव सरकार हो जाएं, इसकी कवायद के किरदार. दिल्ली के निज़ाम ने अपनी एक एजेंसी को इशारा किया. इनकम टैक्स डिपार्टमेंट ने राजीव राय पर छापा डाला. कागज़ों के बोझ से, सवालों की कॉर्पेट बाम्बिंग से उनको तोड़ने की कोशिश की गई. लेकिन राजीव टूटे नहीं. अखिलेश यादव फिर से सरकार तो नहीं बन पाए लेकिन राजीव राय को सीबीआई, ईडी, और इनकम टैक्स के नाम पर डराने वाली सरकार डरा नही पाई. ना राजीव राय की समाजवादी प्रतिबद्धता टूटी और ना ही समाज के प्रति सीमित संसाधनों से सहायता करने वाली प्रवृति को रोका जा सका.
सांच को आंच क्या के फार्मूले को आत्मसात करने वाले, जीने वाले राजीव राय अभी भी संघर्ष के चौराहे पर खड़े हैं. और पूरी शिद्दत के साथ खड़े हैं. अखिलेश यादव के साथ खड़े हैं, अपनी पार्टी समाजवादी पार्टी के साथ खड़े हैं. समाजवादी चिंतक जनेश्वर मिश्रा के विचारों को जीता ये समाजवादी योद्धा सत्ता की दुरभिसंधियों के विरुद्ध खड़ा है. राजीव कहते हैं कि हमें भूलना नहीं चाहिए कि एक भूमिहार जाति के नेता राजनारायण जी ने इंदिरा गांधी को दो बार पटखनी दी थी. एक बार कोर्ट में हराया तो दूसरी बार उनके संसदीय क्षेत्र रायबरेली से उनको मात दी.
राजीव कहते हैं कि जब तक हूं अड़ा हूं, लड़ा हूं, भिड़ा हूं और मेरा ये समाजवादी नज़रिया बदलने वाला नहीं है, चाहे सरकार कितना भी जोर लगा ले. उड़ीसा से हिन्दी अख़बार जनाग्रह निकाल चुके राजीव राय बनावट से कोसों दूर चुपचाप अपना काम करने में विश्वास रखते हैं. देखना दिलचस्प होगा कि शिक्षा, पत्रकारिता, उद्यम से होता राजीव राय का सफ़र समाजवादी सियासत में कहां तक पहुंचता है. उम्मीद बोता समाजवादी