अवध की शान सुमित्रा नन्दन लक्ष्मण,अयोध्या की शान दशरथ और सुमित्रा नन्दन लक्ष्मण का उल्लेख सबसे पहले वाल्मीकि रामायण में ही मिलता है ।यद्यपि वे राम और भरत के अनुज के रूप में ही सर्वर्त्र हैं। परन्तु अनेक स्थलों पर वे पर ऐसे भी उल्लेख मिलते है जहां वे भरत के ज्येष्ठ भ्राता कहे गये हैं। दशरथ जातक में भी यह उल्लेख मिलता हैं कि भरत कनिष्ठ और लक्ष्मण ज्येष्ठ भ्राता। है।भास कृत ‘प्रतिमा नाटकम्’ में भरत की कनिष्ठता का उल्लेख मिलता है। इन उल्लेखों का कारण राम और लक्ष्मण की प्रीति और प्रवास,सहवास ही है। इसी कारण ‘सेरी राम खेतानी रामायण ‘में राम को भाई नहीं सखा कहा गया है। इन उल्लेखों में राम और लक्ष्मण के प्रेम की अनन्यता निश्चित रूप से सूचित होती हैं। अवतारवाद की प्रतिष्ठा हो जाने के बाद पृथ्वी पर लक्ष्मण के अवतार लेने की कल्पना की गई है। सर्वप्रथम उनके अवतार धारण करने की सूचना ‘उदार राघव’ में मिलती है। यही नहीं पुराणों से भी उनके अवतार लेने की बात की पुष्टि होती है।‘पांच रात्र’ सिद्धांत के चतुर्व्यूह से संकर्षण के लक्ष्मण रूप में अवतार लेने की बात कही गयी है। ‘आध्यात्म रामायण’ में उन्हें ‘शेष’ का अवतार कहा गया है ।परवर्ती भक्ति साहित्य में उनका यही व्यक्तित्व निरन्तर स्वीकृत रहा है।
लक्ष्मण और भरत की माँ किसी विशेष देश की राजकुमारी नहीं है, जबकि केकयी केकय देश की और कौसल्या कोशल देश की राजकुमारी थी। परन्तु सुमित्रा जी देश काल की सीमा लांघ कर सबको अपने अच्छे व्यवहार से मंत्र मुग्ध कर लेती हैं। सुमित्रा सबक़े हृदय की अधिष्ठात्री श्री देवी की प्रतिकृति है। केकयी और कौसल्या के बीच सामंजस्य करने वाली सुमित्रा आदि कवि वाल्मीकि की अलौकिक सृष्टि है । दशरथ के तीनों रानियाँ सबसे रोचक सुमित्रा जी का ही है। वह कम बोलने वाली राजपरिवार की प्रतिष्ठित बहू हैं।सुमित्रा रानियों में न सबसे बड़ी,न सबसे छोटी हैं, पर राजा दशरथ तीनों रानियों में सबसे ज़्यादा प्यार सुमित्रा जी को ही करते हैं। जैसा कि हम सभी सुनते आ रहे हैं कि राजा दशरथ ने दो बार पायस रानी सुमित्रा को ही दिया था। वे कम बोलती हैं और अपने लिए कुछ नहीं कहती हैं,और न कुछ चाहती ही हैं, जो उन्हें मिलता है वह उसे यदुच्छिक के रूप से मिला है, ले लेती हैं।
छोटी रानी के कहने से जब राम जी वन जाने के लिए तैयार होजाते हैं , तो माता कौसल्या की ममता उनके मन को विचलित कर देती हैं। तब वे राजा राम जी से कहती हैं कि इस बात का घोर विरोध होना चाहिए। पर जब उनके अपने बेटे लक्ष्मण को राम जी के साथ चलने को तैयार देखती हैं। तब वह इतनी स्वस्थ, संयत और शांत दिखती हैं और अपने पुत्र को,आशीर्वाद देने के अलावा, आवेग सूचक एक शब्द भी नहीं कहती हैं।सुमित्रा जी इस बात पर गर्व करती हैं कि उनका,अपना बेटा महान राजवंश की परम्परा को प्रतिष्ठित बनाए रखने के लिए संयम और त्याग के बल पर ही बढ़ रहा है।
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विशाल हृदय वाली,संस्कार वाली लक्ष्मण की माँ लक्ष्मण को बिदा करते पहली बार बोली, वैसे पहले भी कई अवसर आये, पर वे हमेशा चुप रहीं,वे कहतीं हैं,” सृष्ट स्त्ंत्र वनवासाये स्वानुरक्ता:- सुहज्जने,रामप्रसादम् माँ कार्षी:पुत्र भ्रातरिगच्छति।”{बेटा तुम केवल वनवास के लिए पैदा हुए हो। अपने लोगों के लिए तुम्हारे मन में सात्विक अनुराग है। राम तुम्हारे बड़े भाई हैं, वन में तुम साथ देने चल पड़े हो। जाओ अपना कर्तव्य कहानिभाओ । देखो राम को कोई दिक़्क़त न हो।}” वे अपने हृदय पर कठोर नियंत्रण रखते हुए कहती हैं “गच्छ तात ‘यह केवल वन चारी लक्ष्मण के लिए नहीं है ,बल्कि जीवन चारी हर व्यक्ति के लिए है,बेटे राम को अपने पिता और जनक की बेटी सीता को अपनी माँ को सुमित्रा) और विशाल वन को अपने नगरी अयोध्या समान समझो, जहाँ सुखी रहो।“) माँ बेटे का दिल पहचानती हैं, यही नहीं लक्ष्मण भी माँ का इशारा किधर है समझते हैं। वह राम की अनुमति वन जाने के लिए आवश्यक नहीं समझते हैं । क्योंकि किसी प्रसंग वंश कभी राम ने कहा था मेरी सम्मति के अनुसार चलो।
यही बात राम ने लक्ष्मण से उस समय कही थी जब केकयी के अधर्म निर्णय को डट कर विरोध करना चाहते थे । उनके धर्म के रहस्य को समझने के लिए राम ने कहा था, “मेरे कहे अनुसार चलो “ इसी परामर्श से लक्ष्मण ने उसे दिल से लगा लिया था । उन्होंने सोचा कि अगर राम वन जा रहे हैं, और वे उनके साथ जा रहे हैं , तो अनुमति तो मिल ही जायेगी । बस यही संकेत मात्र लक्ष्मण के लिए बहुत था । और जब राम उनको साथ ले चलने केलिए तैयार नहीं होते हैं तब लक्ष्मण इसी संकेत की ओर उनका ध्यान दिलाते हुए कहते है,“अनुज्ञातस्तु भवता पूर्वमेव यदस्यहम्कि मिदार्नी पुनरपि क्रियते में निवारणम्।” (आपने पहले ही मुझे इस बात की अनुमति देती थी , फिर अब क्यों मना कर रहे हैं?)स्पष्ट है कि माँ से मिले संस्कार लक्ष्मण में कूट कूट कर भरे हुए हैं । जो उनके चरित्र और व्यक्तित्व को बहुत ही ऊँचा स्तर प्रदान करते हैं।
सम्पूर्ण राम साहित्य में लक्ष्मण का व्यक्तित्व एक ही प्रकार का पाया जाता है वाल्मीकि ने उन्हें राम के अनुज के पराक्रमी योद्धा के रूप में चित्रित किया है क्रोध उनके व्यक्तित्व का विशेष अंग है। जीवन भर वे राम के छाया बन रहते हैं । इस प्रकार वे राम के प्रति उनकी अगाध निष्ठा और अनन्य प्रेम के कारण, वे आगे चल कर भक्ति के आदर्श रूप में चित्रित हुए हैं। संस्कृत के ललित साहित्य में लक्ष्मण को वाल्मीकि रामायण की भाँति उन्हें एक कुशल योद्धा के रूप में ही चित्रित किया गया है । वे हर समय वे राम के आज्ञानुवर्ती और हर कार्य में राम के सहगामी हैं। अवध की शान सुमित्रा नन्दन लक्ष्मण
रघुवंशम् और उत्तरमचरित्रम्, आदि के अनुसार वे राम जी की आज्ञा के अनुसार वे सीता जी को वन में छोड़ आते है। पुराणों में लक्ष्मण की इस एकान्त निष्ठा को ही उनकी मृत्यु का कारण कहा गया है। अध्यात्म रामायण में उनके अवतार वाद के साथ साथ उनके भक्त होने का उल्लेख मिलता है। लक्ष्मण के चरित्र की समस्त परिचित विशिष्टताएं रामचरितमानस में भी वर्णित है। एक ओर उनकी चारित्रिक मर्यादा,दया, विवेक,संकोच,गम्भीरता आदि से परिपूर्ण हैं, तो दूसरी तरफ़ सहज क्रोध, स्पष्टवादिता आदि गुण भी उनमें मिलते हैं। तुलसीदास द्वारा वर्णित परशुराम लक्ष्मण संवाद में जहां उनकी विचारशीलता,गम्भीरता, स्पष्टवादिता का प्रमाण मिलता है, वहीं निषाद से उनके संवाद में,उनकी विचारशीलता, और उनके दार्शनिक चिंतन का परिचय भी मिलता है । अरण्यकांड में राम -लक्ष्मण की परस्पर वार्ता को मानस के विशेषज्ञों ने ‘लक्ष्मण-गीता’ के नाम से सम्बोधित किया है। इस तरह से हम देखते हैं कि वाल्मीकि जी ने धैर्य, पराक्रम, उदारता, विवेकशीलता,गंभीरता आदि गुणों का तो वर्णन किया ही है, साथ में उन्हें भक्त दार्शनिक विचारक के रूप में भी प्रस्तुत किया है।
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जब भी बात श्री राम या रामायण की आती है तो लक्ष्मण भैय्या भी याद आ जाते हैं। जिन्होंने भाई और भाभी की सेवा के लिए न सिर्फ राज महल के सभी सुखों को त्यागा था बल्कि पत्नी उर्मिला को माता कौशल्या की सेवा के लिए छोड़ 14 वर्ष का वनवास बिना सोए बोगा था। भगवान लक्ष्मण एक आदर्श अनुज हैं। राम को पिता ने वनवास दिया किंतु लक्ष्मण राम के साथ स्वेच्छा से वन गमन करते हैं। श्रीराम के साथ उनकी पत्नी सीता के होने से उन्हें आमोद-प्रमोद के साधन प्राप्त है किन्तु लक्ष्मण जी ने समस्त आमोदों का त्याग कर केवल सेवाभाव को ही अपनाया। वास्तव में लक्ष्मण जी का वनवास श्रीराम के वनवास से भी अधिक महान है। लक्ष्मण जी सीता स्वयंवर में अपने बड़े भाई राम पर परशुराम के क्रोध को स्वयं में समाहित कर लिए थे, और वाद-विवाद में परशुराम के क्रोध और घमंड को चकनाचूर कर दिये थे। जिसमें लक्ष्मण जी का तर्क था की शिवधनुष के लिए अगर परशुराम प्रहार करेंगे तो श्री राम की रक्षा के लिए लक्ष्मण भी प्रहार करेंगे। यह प्रसंग आज के आधुनिक युग में बहुत सार्थक सिद्ध होती है की हमें अपने से अधिक शक्तिशाली लोगों के दबाव में नहीं रहना चाहिए और जहाँ विरोध करना स्वभाविक हो अवश्य विरोध करना चाहिए। अवध की शान सुमित्रा नन्दन लक्ष्मण
लक्ष्मण संयम और मर्यादा के साक्षात्क अवतार हैं। इस प्रकार लक्ष्मण का पूरा व्यक्तित्व गरिमापूर्णहै। यही नहीं तुलसी दास के अलावा , महाकवि केशव ने लक्ष्मण के चरित्र को उभारने की कोशिश की है। परन्तु रामचन्द्रिका में कवि ने चरित्र चित्रण सम्बंधित मौलिकता के लक्षण को स्पष्ट नहीं कर सके है। आधुनिक युग में लक्ष्मण के चरित्र को उर्मिला के संदर्भ में पुनः आँकने की कोशिश की गयी है इस प्रयास में मैथिली शरण गुप्त ने महाकाव्य ‘साकेत’ लिखकर महान ग्रन्थ को भारत के सम्मुख प्रस्तुत किया था । यद्यपि ‘पंचवटी’ में गुप्त जी ने लक्ष्मण के साहस, संयम, पराक्रम मर्यादा का वर्णन कर चुके थे । परन्तु एक विशिष्ट रूप अभी तक वाड्मय में नहीं आ सका था , प्रणयी रूप का वर्णन अभी नहीं हो सका था । गुप्त जी ने साकेत के प्रारम्भ में उर्मिला और लक्ष्मण के संवाद द्वारा उनके प्रिति जनित सुख का वर्णन किया है इसके अलावा चित्रकूट के रामकुटी में वियोग के अन्तर्गत क्षणिक संयोग सुख का मार्मिक चित्रण भी कवि ने प्रस्तुत किया है । बाल कृष्ण शर्मा नवीन ने अपने खण्ड काव्य उर्मिला में उससे सुन्दर वर्णन सफलता प्राप्त की है । इसमें लक्ष्मण के चरित्र की ललित स्वभावशीलता स्पष्ट प्रकट हो जाती हैं।
आज तक लक्ष्मण के चरित्र को लेकर भी लिखा जा चुका है और उनका चरित्र कई दिशाओं में मोड़ भी ले चुका है। मधुसूदन दत्त ने अपने (बंगला काव्य ) ‘मेघनाद वध’ में लक्ष्मण को नायकत्व के पद से च्युत करने का काफ़ी प्रयास किया है, परन्तु उनके चरित्र चित्रण की एकरूपता ने इस दिशा में कृति कारी होने का अवसर नहीं दिया था। धन्य हैं सुमित्रा नन्दन लक्ष्मण, जिनके चरित्र से हमें बहुत प्रेरणा मिलती है।
भगवान लक्ष्मण रामायण के एक आदर्श पात्र हैं। इनको शेषनाग का अवतार माना जाता है। रामायण के अनुसार राजा दशरथ के तीसरे पुत्र थे।उनकी माता सुमित्रा थी। वे भगवान राम के छोटे भाई थे। इनकी पत्नी उर्मिला थी जो की सीता की छोटी बहन थी। इन दोनों भाईयों राम-लक्ष्मण में अपार प्रेम था। उन्होंने राम-सीता के साथ 14 वर्षों का वनवास भोगा था। भगवान लक्ष्मण आदर्श के उदाहरण हैं । यद्यपि भगवान लक्ष्मण को अत्यधिक भ्राताप्रेमी होने का आरोप लगाया जाता है। परंतु भगवान लक्ष्मण धर्मयोगी और निष्पक्ष थे । इसका प्रमाण उनके जीवनकाल के कई घटनाओं को तर्कपूर्ण विचार करने से ज्ञात होता है। जैसे माता सीता के अग्निपरीक्षा के समय श्री राम पर उनका क्रोध और विद्रोह करना उनके निष्पक्षता को प्रमाणित करता है। पत्नी उर्मिला को वन के कष्टों से दूर रख राजकुमारी की तरह अयोध्या में छोड़ना, 14 वर्ष के वनवास काल में ब्रम्हचर्य का पालन करना उनकी सच्चे प्रेम की निशानी है। माताओं के सेवा हेतु पत्नी उर्मिला को अयोध्या में छोड़ना मातृप्रेम को भी दर्शाता है। मेघनाथ (इंद्रजीत) जैसे योद्धा जिसने स्वयं लक्ष्मण सहित राम और हनुमान को भी युद्ध में पराजित किया था। उस योद्धा से दो बार पराजित होने के बाद भी युद्ध करना और विजय प्राप्त करना भगवान लक्ष्मण की निडरता,सामर्थता और श्रेष्ठ युद्धकौशल को इंगित करता है।
राम रावण युद्ध में राम ही विजयी हुए थे जबकि रावण राम की अपेक्षा बहुत अधिक शक्तिशाली और उसका साम्राज्य भी अयोध्या से कहीं अधिक बड़ा था । रावण का सगा भाई विभीषण था। दोनों एक ही माँ की कोख से जन्मे थे। पर रावण के साथ नहीं था। जबकि राम के भाई लक्ष्मण राम जी की माता कौसल्या के कोख से नहीं जन्मे थे, सुमित्रा जी के कोख से जन्मे थे पर हमेशा उनके साथ थे। लक्ष्मण का भाई राम के प्रति अनुराग, लगाव, झुकाव, और प्रतिबद्धता हर पल थी ।सूर्य वंशी, वीर प्रतापी, सुमित्रा जी पुत्र लक्ष्मण की परिकल्पना लक्ष्मण पुरी बन कर अवतीर्ण हुई , जो अनेक राजवंशों के क्षत्र छाया में पल कर लखनावती बन कर पल्लवित हुई परन्तु यह नहीं कहा जा सकता है कि कब लखनावती से लक्ष्मण पुरी और कब लक्ष्मण पुरी से लखनऊ हो गया । भारतीय परम्परा के अनुसार चरण छूकर माथे तक ले जाने की प्रक्रिया का संक्षिप्त संस्करण लखनऊ सलाम की अदा है । इस गंगा जमुना तहज़ीब के शहर लखनऊ के नींव डालने वाले सुमित्राजी और राजा दशरथ के नन्दन,लक्ष्मण जी को शत शत प्रणाम।