महर्षि वाल्मीकि: ज्ञान से जागरण तक

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महर्षि वाल्मीकि: ज्ञान से जागरण तक
महर्षि वाल्मीकि: ज्ञान से जागरण तक

 डॉ.सत्यवान सौरभ

अंधकार था मन भरा, पापी जीवन खेत। 

ज्ञान-सूर्य जब उग गया, हटी तमस की रेत।।

रत्नाकर से ऋषि हुए, तप से बदला भाव। 

शब्दों में करुणा बही, ज्यों सागर में नाव।। 

राम नाम की साधना, सुमिरन बना प्रकाश,

भटका मन पथ पा गया, नभ में सूरज-वास।

गुरु दिया उपदेश जो, सच्चा था वह ज्ञान,

शिष्य ने अपना लिया, तो जगा अमृत-गान।

वन में बैठा मौन हो, जपता था वो नाम,

शब्दों से निकली कथा, “रामायण” जप राम।। 

जाति नहीं पहचान है, और कर्म आधार। 

कहे वाल्मीकि है यही, यही मनुज का सार।

डाकू भी तब कवि बने, खिलती भीतर धूप। 

मन साधे जब सत्य को, खुले तब आत्म रूप।

ग्रंथ नहीं रामायणा , जीवन का आभास। 

चरित्र में झलके वहाँ, नीति, प्रेम, सुवास।। 

महर्षि का संदेश है, भीतर देखो आप। 

राम वही जो जागता, अंतर के आलाप।। 

रत्नाकर था लूटिया, मन पापी अंजान। 

नारद वाणी लग गई, जाग उठा इंसान।

गुरु सिखाए ज्ञान को, पर अपनाए कौन। 

जो भी अंतर झाँक लें, साधे पवित्र मौन।। 

डाकू भी कवि बन गया, हुआ राम का ध्यान। 

मन के भीतर सो गया, सारा पाप, अभिमान।

रामायण लिख दी उसने, जो था पहले चोर,

ज्ञान बदल दे भाग्य भी, यदि जागे मन-डोर।

हर मन में वाल्मीकि है, हर तन में है चोर। 

राम वही जो जान ले, खुद के भीतर शोर।। 

वाल्मीकि का संदेश है, कर ले अंतर साफ। 

राह नई तू चल पकड़, खुद को कर के माफ।।