पैगंबर मुहम्मद को अपने जीवनकाल के दौरान विरोध और उपहास का सामना करना पड़ा लेकिन उन्होंने उसके प्रतिउत्तर में अनुग्रह और क्षमा का सहारा लिया। एक महापुरुष के सम्मान की रक्षा के नाम पर हिंसा इस्लामिक चिंतन में कितना जायज..? हिंसा इस्लामिक चिंतन में कितना जायज..?
गौतम चौधरी
स्लाम,शांति,सहिष्णुता और करुणा पर आधारित धर्म, सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम पैगंबर मुहम्मद के सम्मान की रक्षा के नाम पर भी हिंसा को कैसे बर्दाश्त कर सकता है। हिंसा का सहारा लेना पैगंबर की शिक्षाओं का खंडन करता है और इसके बजाय इस्लाम के बारे में नकारात्मक रूढ़िवादिता को कायम रखता है। मुसलमानों को अपमान या उकसावे का जवाब धैर्य, दयालुता और शिक्षा के साथ देने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है।
अभी हाल ही में नासिक जिले के शाह पंचाए गांव में एक हिन्दू संत रामगिन महाराज की हाल में की गई नकारात्मक टिप्पणी ने एक खास वर्ग विशेष के अनुयायियों को आन्दोलित कर दिया। इसके जवाब में संत पर कई थानों में मामले दर्ज किए गए। खुद को इस्लामी विद्वान बताने वाले समीउल्ला खान ने ‘एक्स’ पर एक पोस्ट में कहा, पैगंबर का अपमान करने को लेकर, नफरत फैलाने वाले व्यक्ति के खिलाफ महाराष्ट्र के जलगांव जामोद पुलिस थाने में प्राथमिकी दर्ज की गई है। उन्होंने हिंदू संत की तत्काल गिरफ्तारी की मांग भी की। खान ने कहा, हम अपने प्यारे पैगंबर मोहम्मद की गरिमा पर हो रहे हमले को लेकर चुप नहीं बैठेंगे। अगर उन्हें (रामगिरि महाराज) गिरफ्तार नहीं किया गया तो पूरे राज्य और देश में शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शन होंगे।
वैजापुर में एक स्थानीय निवासी की शिकायत के आधार पर भारतीय न्याय संहिता (बीएनएस) की धारा 302 के तहत एक प्राथमिकी दर्ज की गई थी। घटना के बाद, छत्रपति संभाजीनगर शहर के कुछ हिस्सों में सांप्रदायिक तनाव फैल गया हालांकि बड़े तनाव को टाल दिया गया है. यह दर्शाता है कि हिंसा से बचना और शांति और सद्भाव बनाए रखना संभव है।
मुसलमान स्वाभाविक रूप से किसी के ईशनिंदा करने के विचार से घृणा करते हैं हालाँकि, हिंसा में लिप्त होना निश्चित रूप से ऐसे कार्यों को संबोधित करने का तरीका नहीं है. एफआईआर दर्ज करना और अदालत में जाना, जैसा कि भारत भर में कई संगठनों और व्यक्तियों ने किया है, यह सही दृष्टकोण है। सच पूछिए तो हिंसा केवल हिंसा को जन्म देती है, और मुसलमान अंततः नफरत के हाथों में खेल सकते हैं. यदि वे आक्रामकता का सहारा लेते हैं तो उग्रवादी गतिविधि प्रारंभ होना स्वाभाविक होगा।
बता दें कि पैगंबर मुहम्मद को अपने जीवनकाल के दौरान विरोध और उपहास का सामना करना पड़ा लेकिन उन्होंने उसके प्रतिउत्तर में अनुग्रह और क्षमा का सहारा लिया। कभी हिंसा को प्रोत्साहित नहीं किया। मुसलमान वास्तव में उनकी शिक्षाओं का सम्मान कर सकते हैं और शांति और एकता के संदेश को बढ़ावा दे सकते हैं। हिंसा इस्लाम के चिंतन को कमजोर करता है और दूसरों को प्रेम और करुणा की इसकी गहन शिक्षाओं से दूर कर देती है। मुसलमानों के लिए यह याद रखना महत्वपूर्ण है कि उनके कार्यों का असर पूरे मुस्लिम समुदाय पर पड़ता है।
नफरत का जवाब नफरत से देने से हिंसा और गलतफहमी का चक्र ही कायम रहता है। करुणा और सहिष्णुता के मूल्यों को अपनाकर मुसलमान नकारात्मक रूढ़ियों का मुकाबला कर सकते हैं और इस्लाम की सुंदरता का प्रदर्शन कर सकते हैं। यह इस्लामोफोबिक टिप्पणियों या कार्यों का सामना करने में भी कारगर साबित होगा। गलतफहमियों को दूर करने और समझ को बढ़ावा देने के लिए मुसलमान शांत और जानकारीपूर्ण बातचीत में शामिल होना चुन सकते हैं। धैर्य और सहानुभूति का प्रदर्शन कर नकारात्मक रूढ़िवादिता को चुनौती दे सकता है और अपने समुदायों के भीतर और बाहर एकता और सम्मान को बढ़ावा दे सकता है।
नकारात्मक रूढ़िवादिता का मुकाबला करना केवल मुसलमानों की जिम्मेदारी नहीं है, गैर-मुसलमानों को भी खुद को संयमित रखना होगा। समावेशी समाज को बढ़ावा देने के लिए अपने पूर्वाग्रहों को चुनौती देनी होगी। इस्लामोफोबिया के सभी रूपों के खिलाफ खड़ा होना होगा। उदाहरण के लिए, ऐसे कार्यस्थल पर जहां एक सहकर्मी लगातार मुसलमानों के बारे में अपमानजनक टिप्पणियां करतें हैं, दूसरों के लिए बोलना और व्यवहार पर ध्यान देना महत्वपूर्ण है। व्यक्ति को उनके शब्दों के हानिकारक प्रभावों के बारे में शिक्षित करना और एक समावेशी वातावरण की वकालत करने से अच्छे और समावेशी समाज बनाने में हमें मदद मिलेगा। यही हम सब के लिए बढ़िया होगा क्योंकि इसी से एक समावेशी राष्ट्र का निर्माण हो सकता है। हिंसा इस्लामिक चिंतन में कितना जायज..?