बचपन में दिल का दर्द

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बचपन में दिल का दर्द
बचपन में दिल का दर्द
प्रियंका सौरभ
प्रियंका सौरभ

बचपन में दिल का दर्द : क्या हमारी जीवनशैली मासूम धड़कनों की दुश्मन बन गई है..?भारत में बच्चों में हार्ट अटैक की घटनाएं तेजी से बढ़ रही हैं। इसका संबंध बच्चों की बदलती जीवनशैली, खान-पान, मानसिक तनाव और स्क्रीन टाइम से है। स्कूलों में नियमित हेल्थ जांच, योग, पोषण शिक्षा और अभिभावकों की जागरूकता से ही इस खतरे को रोका जा सकता है। यह केवल स्वास्थ्य नहीं, बल्कि एक राष्ट्रीय चेतावनी है।  बचपन में दिल का दर्द

जब भी हम “हार्ट अटैक” शब्द सुनते हैं, हमारे ज़ेहन में पचास-पैंसठ साल का कोई अधेड़ उम्र का व्यक्ति सामने आता है—भागदौड़ भरी ज़िंदगी में उलझा, तनाव और थकान से लदा हुआ। पर आज हकीकत इससे कहीं अधिक डरावनी और चौंकाने वाली है। आज दिल के दौरे सिर्फ बड़ों का ही नहीं, बल्कि मासूम बच्चों का भी पीछा कर रहे हैं। देश के कई हिस्सों से ऐसी खबरें सामने आ रही हैं, जहां स्कूल जाते बच्चे अचानक गिर जाते हैं और डॉक्टर उसे “कार्डियक अरेस्ट” या “सडन हार्ट फेल्योर” बता देते हैं। क्या यह केवल संयोग है? या फिर हमारी जीवनशैली ने नन्हे दिलों पर हमला बोल दिया है?

पिछले कुछ महीनों में देशभर से कई ऐसी घटनाएं सामने आईं हैं, जो इस खतरे की गंभीरता की पुष्टि करती हैं। ताजा मामला मध्य प्रदेश के बड़वानी जिले का है, जहां आठ साल की मासूम बच्ची स्कूल गेट पर पहुंचते ही गिर पड़ी और उसकी मौत हो गई। इससे पहले गुजरात, उत्तर प्रदेश, हरियाणा, दिल्ली, महाराष्ट्र जैसे राज्यों से भी स्कूली बच्चों की हार्ट अटैक से हुई मौत की घटनाएं सामने आ चुकी हैं। इंडियन मेडिकल जर्नल्स के अनुसार, 2021 और 2022 के बीच 18 वर्ष से कम आयु के बच्चों में अचानक कार्डियक अरेस्ट से मौत के मामलों में 35% की वृद्धि दर्ज की गई है। वर्ष 2022 में अकेले भारत में 32,457 युवाओं की मौत हृदयाघात से हुई। इनमें बड़ी संख्या 10 से 18 वर्ष के बीच के किशोरों की थी।

सवाल यह है कि ऐसा हो क्यों रहा है? क्या यह सिर्फ अनुवांशिकता का मामला है? क्या बच्चों में जन्मजात हृदय रोग अचानक सक्रिय हो रहे हैं? या फिर इसके पीछे हमारी बदलती जीवनशैली, खान-पान, स्क्रीन टाइम, मोटापा, मानसिक तनाव और शारीरिक निष्क्रियता का कोई बड़ा योगदान है?

विशेषज्ञ कहते हैं कि इसका कारण “मल्टी फैक्टोरियल” है—अर्थात यह कई कारकों का मिश्रण है। आज के बच्चे ब्रेड-बर्गर, पिज़्ज़ा, कोल्ड ड्रिंक और पैकेज्ड स्नैक्स पर निर्भर हैं। पौष्टिक आहार, जैसे हरी सब्जियाँ, दालें, फल, दूध अब उनके भोजन का हिस्सा नहीं रह गया है। पहले बच्चे गली-मोहल्ले में दौड़ते-खेलते थे। अब मोबाइल और गेमिंग कंसोल्स ने उनका बचपन छीन लिया है। खेल के मैदानों की जगह टैबलेट ने ले ली है। स्कूलों में अत्यधिक होमवर्क, कोचिंग की दौड़, माता-पिता की अपेक्षाएं और हर क्षेत्र में ‘बेस्ट’ बनने का दबाव बच्चों में मानसिक तनाव पैदा कर रहा है। यह तनाव शरीर में कोर्टिसोल और अन्य हॉर्मोन को असंतुलित कर देता है, जिससे हृदय पर असर पड़ता है।

देर रात तक मोबाइल चलाना, रील्स देखना और ऑनलाइन गेम खेलना बच्चों की नींद को प्रभावित करता है। नींद की कमी सीधे दिल की सेहत से जुड़ी है। बाल हृदय रोग विशेषज्ञों का मानना है कि बच्चों में हार्ट अटैक आमतौर पर “कॉन्जेनिटल हार्ट डिजीज”, “कार्डियोमायोपैथी”, “इलेक्ट्रिकल डिसऑर्डर्स” या “मायोकार्डिटिस” के कारण होता है। लेकिन इनका समय पर पता न चलने के कारण बच्चे अचानक मौत का शिकार हो जाते हैं। दुर्भाग्यवश, हमारे देश में बाल स्वास्थ्य की जांच प्रणाली बहुत कमजोर है। अधिकतर स्कूलों में नियमित हेल्थ चेकअप नहीं होते, और माता-पिता भी बच्चों के थकान या सांस फूलने जैसे लक्षणों को नज़रअंदाज़ कर देते हैं।

इस संकट से निपटने के लिए हमें एक बहुआयामी रणनीति अपनानी होगी। सरकार को सभी निजी और सरकारी स्कूलों में हर 6 महीने में हृदय जांच, ईसीजी और सामान्य स्वास्थ्य परीक्षण अनिवार्य करना चाहिए। स्कूलों में ‘फिट इंडिया’ जैसे अभियानों को गंभीरता से लागू किया जाए। बच्चों को योग, प्राणायाम, ध्यान और नियमित शारीरिक व्यायाम के लिए प्रेरित किया जाए। माता-पिता को अपने बच्चों के खान-पान, नींद और स्क्रीन टाइम पर सतर्क निगरानी रखनी होगी। बच्चे की थकान, चिड़चिड़ापन या किसी भी असामान्य शारीरिक लक्षण को गंभीरता से लें।

विद्यालयी पाठ्यक्रम में ‘पोषण शिक्षा’ को शामिल किया जाए ताकि बच्चे कम उम्र से ही हेल्दी फूड और शरीर के महत्व को समझ सकें। टेलीविजन और डिजिटल मीडिया को केवल उत्पाद बेचने के बजाय समाज को स्वस्थ जीवनशैली के लिए शिक्षित करने की भूमिका निभानी चाहिए। यह विडंबना ही है कि जब भारत “विकसित राष्ट्र” बनने की दौड़ में है, तब उसका भविष्य यानी बच्चे हृदय रोगों से जूझ रहे हैं। नीति आयोग, स्वास्थ्य मंत्रालय और शिक्षा मंत्रालय को मिलकर एक समन्वित नीति बनानी चाहिए, ताकि बच्चों की स्क्रीनिंग, हेल्थ एजुकेशन और इमरजेंसी सुविधाएं हर स्कूल में सुनिश्चित हो सकें। यह केवल स्वास्थ्य का नहीं, बल्कि राष्ट्रीय सुरक्षा और मानव संसाधन विकास का मामला है।

बचपन धड़कनों का त्योहार होता है, न कि जीवन का अंतिम पड़ाव। जब कोई बच्चा दिल के दौरे से दम तोड़ता है, तो केवल एक जीवन नहीं जाता—एक भविष्य, एक सपना और एक परिवार उजड़ जाता है। हमें यह स्वीकारना होगा कि बच्चों का दिल अब पहले जैसा मजबूत नहीं रहा—क्योंकि हमने उसे कमजोर बना दिया है। अब समय आ गया है कि हम सिर्फ ‘हार्ट डे’ पर भाषण न दें, बल्कि हर दिन बच्चों के दिल की चिंता करें। नहीं तो वो दिन दूर नहीं जब स्कूल का बस्ता नहीं, स्ट्रेचर उठाना पड़ेगा। बचपन में दिल का दर्द