आपातकाल के पांच दशक-लोकतंत्र और संविधान से सबक

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आपातकाल के पांच दशक-लोकतंत्र और संविधान से सबक
आपातकाल के पांच दशक-लोकतंत्र और संविधान से सबक

—– आपातकाल के पांच दशक-लोकतंत्र और संविधान से सबक —–


    25 जून 1975 की काली यादें आज 50वर्ष बाद भी पीछा नहीं छोड़ रही है। देश में तब आपातकाल की घोषणा के साथ आतंक का राज स्थापित हो गया था। रातो-रात गिरफ्तारियां, अखबारों पर सेंसरशिप। संवैधानिक संस्थाओं को निष्क्रिय करते हुए तमाम मौलिक अधिकार भी छीन लिए गए थे। न अपील, न वकील और नहीं दलील। पूरी तरह तानाशाही। आपातकाल लगते ही जयप्रकाश नारायण, मोरार जी देसाई, चौधरी चरण सिंह, मधु लिमए, राजनारायण, चंद्रशेखर और मुलायम सिंह यादव आदि नेता गिरफ्तार कर लिए गए। देश भर में 1,10,000 लोग जेल के सींखचों के पीछे डाल दिए गए। 1975-77 के बीच 1.07 करोड़ से अधिक लोगों की नसबंदी की गई थी। 548 शिकायतें अविवाहितों की नसबंदी से सम्बन्धित थी। नसबंदी से जुड़ी 1774 मौतों के मामले शाह आयोग की रिपोर्ट में दर्ज है। संसद में ये जानकारियां गृहमंत्रालय में राज्यमंत्री श्री नित्यानंद राय ने दी। दमन के दौर में तब न जाने कितने अपनी जान गंवा बैठे, कितने परिवार उजड़ गए और कितने ही निर्दोष यातनाओं के शिकार बना दिए गए।


    आखिर जनता कब तक सहती। हर जोर-जुल्म की इंतिहा होती है। आपातकाल के विरोध में तब भूमिगत कार्यवाहियां होने लगी। जनता को जागरूक करने और तानाशाही के विरोध में जहां जगह-जगह विरोध प्रदर्शन होने लगे वहीं तमाम पत्र-पत्रिकाएं तथा प्रकाशन भी चोरी छुपे सामने आने लगे जिनमें विरोध का आवाह्न था। जनवाणी, प्रतिरोध, युवा संघर्ष और रेजिस्टेंस जैसे प्रमुख प्रकाशन उस समय सरकार की नजर में खटक रहे थे। मेरठ विश्वविद्यालय के एक नौजवान छात्रनेता राजेन्द्र चौधरी लोकतंत्र पर हमले से अछूता कैसे रह सकते थे। तब वह चौधरी चरण सिंह जी के भारतीय लोक दल के युवा संगठन के राष्ट्रीय महासचिव थे। उन्होंने अपने साथियों के साथ मिलकर ‘प्रतिरोध‘ पत्रिका का प्रकाशन शुरू किया। इसका विवरण ‘आपरेशन इमरजेंसी‘ पुस्तक में दिया गया है।


    उन दिनों ऐसी पत्रिका का प्रकाशन भी संकट को खुद आमंत्रण देना था। पत्रिका को कार्यकर्ताओं तक पहुंचाना, जागरूक साथियों को उपलब्ध कराना आसान नहीं था। हर जगह खुफिया पुलिस की निगाहे रहती थी। पत्रिका का प्रसार दिल्ली, हरियाणा और पश्चिम उत्तर प्रदेश तक हो चला था। उन दिनों इन कामों में भी कितना जोखिम था इसकी एक बानगी। एक बार प्रतिरोध पत्रिका छपवाकर राजेन्द्र चौधरी और केसी त्यागी एक ऑटो से राष्ट्रपति भवन चौराहे तक पहुंचे ही थे कि प्रधानमंत्री का काफिला आ पहुंचा। चारों तरफ चौकस पुलिस पर गनीमत ऑटो की चेकिंग नहीं हुई। अगर उस दिन पुलिस को प्रतिरोध पत्रिका की कापियां मिल जाती तो पुलिस की हिरासत में जो प्रताड़ना मिलती उसकी कहानी भी वे नही बता पाते। प्रतिरोध पत्रिका के कुछ अंश निकलने के बाद इस पर प्रतिबंध लगा दिया गया। अंक जब्त हो गए।


    राजेन्द्र चौधरी भूमिगत प्रकाशन तक ही नहीं रूके। संपूर्ण क्रांति आंदोलन के दौरान लोकतंत्र के संघर्ष में वे छात्रों नौजवानों के अधिकारों के लिए विरोध प्रदर्शनों में सक्रिय रहे। 23 दिसम्बर 1975 को गाजियाबाद के घंटाघर पर सैकड़ों लोगों की भीड़ के साथ चौधरी चरण सिंह जिंदाबाद के नारे लगाते राजेन्द्र चौधरी जब सड़क पर उतरे तो हलचल मच गई। पुलिस हक्काबक्का। तभी गाजियाबाद थानाध्यक्ष ओपी उपाध्याय राजेन्द्र चौधरी और केसी त्यागी सहित 12 लोगों की गिरफ्तारी दिखाकर थाने लाए और उन पर ‘इंदिरा गांधी का तख्ता पलट दो‘ का नारा लगाने के जुर्म पर मुकदमा दर्ज कर मेरठ जेल भेज दिया। गिरफ्तार लोगों के नाम जो एफआईआर में दर्ज है क्रमशः राजेन्द्र चौधरी, अतर सिंह, जयप्रकाश, खचेडू सिंह, किरन सिंह, ज्ञान सिंह, महेन्द्र सिंह, तुलसी राम, अनूप सिंह, लइक अहमद, जयसिंह, कृष्णचंद्र त्यागी।


    राजेन्द्र चौधरी को पुलिस हथकड़ी लगाकर 50 किलोमीटर दूर मेरठ जेल ले गई जबकि चौधरी तब एमए एलएलबी कर चुके थे। मेरठ विश्वविद्यालय के छात्र नेता पूर्व राज्यपाल सत्यपाल मलिक और राजेन्द्र चौधरी दोनों युवा नेताओं को चौधरी चरण सिंह जी ने भारतीय क्रांति दल से विधानसभा का 1974 में प्रत्याशी बनाया था। सत्यपाल मलिक बागपत से विधायक रहे और राजेन्द्र चौधरी गाजियाबाद से विधायक बने आखिर तत्कालीन केन्द्र सरकार को जनप्रतिरोध के सामने झुकना पड़ा और 1977 में आपात काल हटाने की घोषणा और लोक सभा के चुनाव हुए। देश में लोकतांत्रिक व्यवस्था की पुनः स्थापना हुई। देश को दूसरी आजादी तो मिली पर देश में वैसी ही स्थितियां आज फिर उभरती हुई नज़र क्यों आती है? यदि राजनीति के हाल के घटनाक्रम को देखे तो पुराने काले अध्याय के दुहराव की आशंका को टाला नहीं जा सकता। स्वतंत्रता आंदोलन के मूल्यों से खिलवाड़ से क्या संदेश मिलता है?


    आज की सत्तारूढ़ सरकार जनभावनाओं के प्रति संवेदनशून्य है। जनता के मौलिक अधिकारों का जिस तेजी से हनन किया जा रहा है वह लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत नहीं है। अभिव्यक्ति की आजादी पर सबसे ज्यादा हमला है। असहिष्णुता चरम पर है। संवैधानिक संस्थाएं कमजोर की जा रही है। नौजवानों का भविष्य अंधकार में है। चौथे स्तंभ पर लगातार चोट हो रही है। हर तरफ असुरक्षा का वातावरण जानबूझकर पैदा किया जा रहा है। यह तो ऐतिहासिक तथ्य है कि भाजपा सरकार स्वतंत्रता आंदोलन के मूल्यों और आदर्शों से अपरिचित है। वह त्याग, बलिदान और स्वतंत्रता के मूल्यों की उपेक्षा करती है। राष्ट्रीय सम्प्रभुता और नागरिक आजादी के लिए 1942 की लड़ाई हो या 1975 की उसके लिए समाजवादियों की प्रतिबद्धता रही है।


    लोकतंत्र के प्रति अपनी सोच और सकारात्मक जनसरोकार की दृष्टि के साथ, जब श्री अखिलेश यादव उत्तर प्रदेश के 2012 से 2017 तक मुख्यमंत्री रहे, उन्हांेने कई महत्वपूर्ण फैसले किए जिनका संदेश दूर-दूर तक जाता है। लोकनायक जयप्रकाश नारायण की जयंती पर जेपीएनआईसी गोमतीनगर लखनऊ स्थित उनकी मूर्तिपर माल्यार्पण के लिए तमाम सरकारी बाधाएं खड़ी करने के बावजूद भी तत्कालीन मुख्यमंत्री श्री अखिलेश यादव को गेट फांदकर जेपी की मूर्ति पर माल्यार्पण करना पड़ा। क्या भाजपा का यही लोकतंत्र है..?

2012 में उत्तर प्रदेश में श्री अखिलेश यादव के नेतृत्व में समाजवादी सरकार बनने पर लोकतंत्र को बचाने के संघर्ष में, जिनकी भागीदारी थी, उनको सम्मानित करने का काम प्राथमिकता से हुआ। तत्कालीन श्री अखिलेश यादव के मंत्रिमंडल में खाद्य रसद एवं जेल मंत्रालय के अतिरिक्त, राजनीतिक पेंशन विभागों के कैबिनेट मंत्री की जिम्मेदारी राजेन्द्र चौधरी को मिली। कैबिनेट मंत्री राजेन्द्र चौधरी ने मुख्यमंत्री जी की सलाह पर लोकतंत्र सेनानियों को सम्मान सुविधा देने के लिए “उत्तर प्रदेश लोकतंत्र सेनानी सम्मान अधिनियम 2016“ बनाया।लोकतंत्र सेनानी, जिन्होंने आपातकालीन अवधि, (दिनांक 25.06.1975 से दिनांक 21.03.1977 तक) में लोकतंत्र की रक्षा के लिए सक्रिय रूप से संघर्ष किया एवं जो मीसा, डी०आई०आर० के अधीन कारागार में निरुद्ध रहे हों, को सम्मान राशि, एक सहयोगी के साथ निःशुल्क परिवहन से यात्रा की सुविधा, निःशुल्क चिकित्सा सुविधा प्रदान करने की व्यवस्था के लिए अधिनियम बनाया गया।  

लोकतंत्र सेनानियों को केवल सम्मानजनक सम्मान राशि ही नहीं, मरणोपरांत उनकी राजकीय सम्मान के साथ अंत्येष्टि की भी व्यवस्था की गई। लोकतंत्र सेनानी की मृत्यु के पश्चात उनके आश्रित को भी पेंशन का लाभ मिलेगा। आजकल लोकतंत्र सेनानियों को प्रतिमाह 20 हजार रुपये की सम्मान राशि मिल रही है। इससे उनके सम्मानपूर्ण जीवन निर्वहन का संवेदनशील कार्य हुआ है।

  आपातकाल का अनुभव समेटे राजेंद्र चौधरी बीते 50 वर्षों की राजनीतिक यात्रा के निष्कर्ष स्वरूप कहते हैं कि मौजूदा समय में समाज के अंतिम व्यक्ति की मानवीय गरिमा को सुरक्षित रखने के साथ समतामूलक, शोषणविहीन लोकतंत्र बनाए रखने में पीडीए की भूमिका प्रभावी हो सकती है। पूरे देश में अधिनायकशाही के खिलाफ सबसे प्रखर आवाज उत्तर प्रदेश से ही दिखाई और सुनाई दे रही है। बीते कुछ वर्षों से जिस प्रकार संविधान निर्माता बाबा साहब डॉ. भीमराव अंबेडकर द्वारा निर्मित भारतीय संविधान को कमजोर करने, आरक्षण समाप्त करने और नागरिक अधिकार छीनने का दुष्चक्र रचा जा रहा है, उसके खिलाफ पुरजोर प्रतिरोध भी उठ रहा है। चुनाव आयोग की निष्पक्षता पर संदेह की उंगलियां उठ रही है। लोकतंत्र की सुरक्षा और संविधान को बचाने के लिए यह स्थिति चुनौतीपूर्ण है। आपातकाल के पांच दशक-लोकतंत्र और संविधान से सबक

इमरजेंसी में ’प्रतिरोध पत्रिका’ शीर्षक के अनर्गत लेख में लोकतंत्र रक्षक सेनानी, यूपी के पूर्व कैबिनेट मंत्री राजेन्द्र चौधरी के आपातकाल के पूर्व और उस दौरान के घटनाक्रम एवं अनुभवों का सिलसिलेवार ढंग से वर्णन है।