डॉ. विनोद बब्बर
दिये के अतिरिक्त दिवाली से जुड़ा दूसरा नाम है धूम-धड़ाके और पटाखें का। स्वागत बारात का हो या किसी नायक का। नाचने, गाने बैंड बाजा, ढ़ोल आदि की धूम सदा से रही है। जब कोई राक्षसराज महाबली रावण के आतंक को समाप्त कर लौट रहा हो तो नायकों के भी नायक के स्वागत में कितनी धूम होनी चाहिए, यह अनुमान लगाया जा सकता है। वह धूम कितनी जबरदस्त रही होगी कि उसकी गूंज त्रेतायुग से आज कलयुग तक सुनाई दे रही है। केवल भारत में ही नहीं, बाली, सुमात्रा, जावा, इंडोनेशिया, मॉरिशस, फिजी सहित न जाने कितने देशों में यह गूंज आज भी सुनाई, दिखाई दे रही है। आतिशबाजी प्रतिबंधित नहीं, प्रदूषण रहित हो
दिवाली पर पटाखे और आतिशबाजी की परंपरा कब से शुरू हुई पूरे प्रमाण और विश्वास के साथ कहना कठिन है लेकिन इसमें कोई संदेह नहीं कि धूम धड़ाका प्रथम दिवस से ही जारी है। हां, यह धूम धड़ाका कब बारूदी पटाखों में बदलता और कब जनून की सीमा पार कर गया यह शोध का विषय हो सकता है। प्रश्न यह भी है कि क्या यह जनून केवल हिन्दू में ही है? लेकिन क्रिसमस पर पटाखों हो या गुरु पर्व पर। किसी विवाह बारात में। चुनावी जीत पर, क्रिकेट या फुटबाल हर जीत की गूंज पटाखों से होती है।अंग्रेजी नव वर्ष पर लगभग सारी दुनिया मेंआधी रात में ही पटाखे का बजने लगते हैं। लेकिन न जाने क्यों उन्हें जनून, पागलपन, प्रदूषण की श्रेणी में नहीं रखा जाता है। उनके पटाखें प्रदूषण रहित लेकिन हमारे पटाखें प्रदूषण का मूल। रोगों का मूल। जबरदस्त भूल।
हमारा यह अभिप्राय हर्गिज नहीं कि हम कान फोडू वाले शोर, धुंए, जहरीली गैसे छोड़ने वाले पटाखें का समर्थन कर रहे है लेकिन भेदभाव का विरोध जरूर है। लेकिन लोगों की भावनाओं को भी समझना पड़ेगा। पिछले वर्ष
माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा पटाखे की बिक्री पर कड़े प्रतिबंध के आदेश के कारणदिल्ली एनसीआर में पटाखे तो उपलब्ध नहीं हो पा रहे थे लेकिन दिवाली की रात जिस तरह से कुछ रसायनों के सम्मिश्रण का उपयोग कर बड़े पैमाने पर आतिशबाजी की गई उससे जबरदस्त रासायनिक प्रदूषण हुआ। यह प्रदूषण बूढ़े बीमार और सांस के रोगियों के लिए अत्यंत हानिकारक था। मैं स्वयं सांस का रोगी हूं। दिवाली के आसपास का एक सप्ताह मेरे लिए बहुत कष्टकारी होता है । गत वर्ष पटाखों पर प्रतिबंध और रसायनों के प्रयोग से हुई आतिशबाजी के कारण मुझे लंबे समय तक कष्ट हुआ। इस तरह की आतिशबाजी हजारों स्थान पर हुई लेकिन कितने लोगों पर कार्रवाई की गई इसका कोई अधिकृत आंकड़ा उपलब्ध नहीं है। तो स्पष्ट है कि प्रशासन भी लोगों की भावनाओं को समझते हुए लगभग निष्क्रिय रहा।
समाज शास्त्रियों के मतानुसार समाज की मान्यताएं ही कालांतर में कानून बनती है। इस बात पर भी भला किस की असहमति हो सकती है कि कड़ी से कड़ी सजा दंड और जुर्माने का प्रावधान भी किसी अपराध को समाप्त नहीं कर सका है। यदि समाज हर खुशी के अवसर पर आतिशबाजी करता है तो उसे एकाएक रोका नहीं जा सकता। इस मानसिकता को बदलने के लिए कड़े कानून नहीं बल्कि जनजागरण है।
यह भी सर्व विदित है कि दुनिया का हर वाहन प्रदूषण फैलाता है लेकिन वाहनों पर प्रतिबंध नहीं लगा बल्कि उनके इंजन और ईंधन को बदला गया ताकि प्रदूषण कम से कम हो। इसी सिद्धांत पर चलते हुए प्रतिबंध की बजाय न्यूनतम प्रदूषण वाले पटाखों की अनुमति क्यों नहीं? यदि बिक्री पर प्रतिबंध के बावजूद इस बार भी पिछले वर्षों की तरह खतरनाक रसायनों के प्रयोग से आतिशबाजी होती है तो इसे जन भावनाओं को समझने में सरकार और माननीय उच्चतम न्यायालय की असफलता मानते हुए कम से कम प्रदूषण वाले पटाखे के अविष्कार और उत्पादन पर बल देना चाहिए।
अंत में सभी पाठकों को दीपावली की शुभकामनाएं देते हुए आशा करता हूँ कि हम सभी के मन मस्तिष्क हर प्रकार के अंधकार से मुक्त होकर ज्ञान स्नेह सद्भावना के दीपों से प्रकाशित हो। समाज में कहीं भी अज्ञानता असमानता अभाव रूपी अंधकार शेष न रहे ! आतिशबाजी प्रतिबंधित नहीं, प्रदूषण रहित हो