

जब-जब जून आता है, भारत का हर लोकतंत्र प्रेमी लोकतंत्र को कलंकित करने वालों के काले कारनामों को स्मरण कर सहम उठता है। उसे भुलाये नहीं भूलता, 23 जून, 1953 का वह दिन जब श्रीनगर जेल में राष्ट्र की एकता और अखंडता के लिए डॉ. मुकर्जी का बलिदान हुआ था। दूसरी घटना है 12 जून 1975 को एक ओर गुजरात विधानसभा के चुनावों में कांग्रेस को भारी पराजय का मुह देखना पड़ा था तो उसी दिन इलाहबाद हाईकोर्ट ने प्रधानमंत्री श्रीमती इन्दिरा गांधी के चुनाव को अवैध घोषित कर दिया था। उन्हें छह साल तक चुनाव लड़ने के अयोग्य करार दिया था। उस समय लोकनायक जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में छात्र आंदोलन चरम पर था। 25 जून, 1975 दिल्ली के रामलीला मैदान की रैली को असफल बनाने के लिए सरकार ने उस रविवार टीवी पर एक बहुचर्चित फिल्म प्रदर्शित करने की घोषणा भी की। लेकिन रैली अभूतपूर्व रही जो जबरदस्त जनाक्रोश का प्रकटीकरण था। विपक्ष एकजुट हो इंदिराजी से त्यागपत्र की मांग कर रहा था। लेकिन सत्तारूढ़ दल के अध्यक्ष और अन्य चाटुकार ‘इंडिया इज इंदिरा, इंदिरा इज इंडिया’ का नारा बुलंद कर रहे थे। इसीलिए लोकतंत्र की रक्षा का ढ़ोंग करते हुए इंदिराजी ने अपनी कुर्सी बचाने के लिए 25 जून, 1975 की आधी रात को मंत्रिमंडल की मंजूरी के बिना देश में आपातकाल घोषित करा दिया। हर नियम, मर्यादा को ताक पर रखकर विपक्ष के सभी बड़े नेता जेलों में डाल दिये गये। देश भर के असंख्य राजनैतिक कार्यकर्ता मीसा के तहत जेल भेज दिये गये। प्रेस पर सेंसर लागू कर दिया गया यानि विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र को बंधक बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी गई। लोकतंत्र का काला अध्याय है आपातकाल
आज जो लोग दिनभर मीडिया से सोशल मीडिया तक सरकार और उसके नेता के बारे में कुछ भी कहते हुए अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर प्रतिबंध तथा अघोषित आपातकाल का राग अलापते हैं, उन्हें लोकतंत्र की कथित देवी द्वारा प्रेस पर लादे सेंसरशिप से आंखें मूंदना अभिनय है या अज्ञानता? तब सेंसर अधिकारी की अनुमति के बाद ही कोई समाचार छप सकता था। सरकार विरोधी समाचार छापने पर गिरफ्तारी होती थी। पंजाब केसरी से इंडियन एक्सप्रेस तक कई समाचार पत्रों का प्रकाशन रोकने के लिए बिजली के कनैक्शन काट दिए गए। पुणे के ‘साधना’ और अहमदाबाद के ‘भूमिपुत्र’ पर मुकदमे लादे गये तो बड़ोदरा के ‘भूमिपुत्र’ के संपादक को गिरफ्तार कर लिया गया। कई अन्य पत्रकारों को भी मीसा और डीआईआर के तहत गिरफ्तार किया गया था।
आपातकाल में प्रशासन और पुलिस केे उत्पीड़न की असंख्य कहानियां है। पार्क में प्रातः व्यायाम करने वालों को संघी घोषित कर जेल भेजा गया तो देश की राजधानी में बस स्टैंड पर बससेवा के बारे में अपनी राय व्यक्त करने वाले को उनके घर से उठाकर जेल भेज दिया गया। जिस क्षेत्र में माननीया का पोस्टर बेशक हवा से ही हट जाता, क्षेत्र के अधिकारी की जान सांसत में आ जाती थी।
लोकतंत्र के उस प्रहसन में अव्यस्क किशोर तक जेल की चारदिवारी की शोभा बढ़ाते नजर आये। गिरफ्तारी और उन्हें कहां रखा गया है, इसकी सूचना उनके रिश्तेदारों, मित्रों और सहयोगियों को नहीं दी जाती थी। यपुर की महारानी गायत्री देवी और ग्वालियर की राजमाता विजयाराजे सिंधिया को असामाजिक और बीमार बंदियों के साथ रखा। मृणाल गोरे, दुर्गा भागवत को पागलों के बीच रखा। राजनैतिक महिला बंदियों के साथ दुर्व्यवहार और गंदे मजाक किये जाते थे। बंदियों को तंग करने, उनको कोठरी में अकेले रखने, इलाज न कराने आदि के हजाऱों मामले बाद में शाह आयोग के सामने आये। आपातकाल के उस काले दौर में केवल राजनीतिक असहमति के कारण मीसा के अंतर्गत जेल में बंदी बनाया गया तो उन्होंने अपनी प्रथम पुत्री का नाम ही मीसा रखा। आश्चर्य यह कि आज मीसा और उनके पिताही नहीं, बंधु भी आपातकाल के खलनायकों के वंशजों से बलगहिया कर रहे है।
जोे कार्यकर्ता प्रचार सामग्री तैयार करते, बांटते अथवा अकारण बंदी बनाए निर्दोष कार्यकर्ताओं के परिवारों से सम्पर्क करते उनपर पुलिस अत्याचार आम बात थी। उनसे सत्याग्रहियों और भूमिगत कार्यकर्ताओं के ठिकानें और उनकी गतिविधियों के बारे में जानकारी हासिल करने के लिए उन्हें अमानवीय यातनाएं दी जाती थी। किसी को भी संघी घोषित कर थाने में घंटों खड़ा रखना, डराना-धमकाना, हफ्तों पूछताछ आम बात थी। पिटाई, हड्डियों तक तोड़ना जैसे हंसी खेल था। दिल्ली के जसवीर सिंह को उल्टा लटकाकर उसके बाल नोंचे गए। बेंगलुरू में जॉर्ज फर्नांडिस के भाई लारेंस फर्नांडिस को इतना पिटा गया कि वे कई वर्षों तक सीधे खड़े नहीं हो पाते थे। अनेक लोगों को क्रूरता से गुप्त चोटें तक दी गईं।
लोकतंत्र का मुुखौटा लगाये तानाशाही का दमनचक्र छात्रों से मजदूरों तक सभी पर चला। अनुशासित करने के नाम पर नागरिक अधिकारों का हनन किया। हर तरफ एक खास किस्म के आतंक का वातावरण बना ‘लोकतंत्र की देवी और उनके युवराज’ की जय जयकार का चलन आरंभ किया गया। बिना किसी संवैधानिक दायित्व के युवराज का शासन पर नियंत्रण था। आपातकाल में जहां संवैधानिक मर्यादाओं को तार-तार किया गया वहीं युवराज के इशारे पर परिवार नियोजन अभियान को बदनाम कर उसे गहरी चोट पहुंचाई। उस काल में अनेक स्थानों पर वृद्धों तथा अविवाहित युवकों की जबरन नसबंदी का परिणाम है कि बाद की किसी सरकार में जनसंख्या वृद्धि रोकने के तरीकों पर विचार तक नहीं किया।
हमारी किसी भी दल से सहमति, सहानुभूति अथवा विरोध हो सकता है लेकिन उस दौर के कथित नायकों द्वारा अपनी कुर्सी बचाने के लिए लोकतंत्र के साथ किए गए खिलवाड़ को न केवल याद रखना चाहिए अपितु उस मानसिकता का विरोध करना चाहिए। होना तो यह चाहिए था कि यदि कोर्ट ने इन्दिराजी को किसी मामले में दोषी ठहरा दिया था तो उन्हें शालीनता से निर्णय को स्वीकार कर पद त्याग देना चाहिए था। लेकिन उन्होंने संविधान में मनमाने परिवर्तन किए तथा लोकतंत्र को धता बताते हुए विपक्षी ही नहीं अपने दल के लोकतंत्र समर्थक नेताओं को भी सींखचों के पीछे पहुंचा दिया। उस काल में जेल में बंद अटल जी ने ‘कैदी कविराय’ के नाम से लिखी अपनी एक कविता में उस काल के माहौल की चर्चा करते हुए लिखा है-
सब कुछ देखा भाला है, इन्दिरा ने राज संभाला है मुंह खोलो तो जय-जय बोलो, वर्ना तिहाड़ का ताला है।
आश्चर्य यह कि जनता द्वारा दंडित किए जाने के बावजूद आपातकाल के दोषियों के उत्तराधिकारियों को आज भी किसी योग्य को वास्तविक नेतृत्व सौंपने की सदबुद्धि नहीं आई। उनके लिए नेतृत्व का अधिकार केवल उनके परिवार के सदस्य को ही है। देशहित में आवाज बुलंद करने पर वे अपने राष्ट्रीय नेताओं तक को बाहर का रास्ता दिखा सकते हैं। यदि ये व्यवहार संकेत है कि आपातकाल के लिए जिम्मेवार परिवार की अधिनायकवादी सोच आज भी बदली नहीं है। क्या यह उचित नहीं होगा कि उस काल की परिस्थितियों की तुलना आज सहित हर काल में ईमानदारी से हो ताकि यह स्पष्ट हो सके कि दिन भर राष्ट्रवादी विचार को गरियाना और देश के प्रधानमंत्री के बारे में अशालीन टिप्पणी तक करने को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता बताना कितना उचित है। आज टीवी चैनलों पर अनाप शनाप चर्चा, मनमाने विश्लेषण, एजेंडा पत्रकारिता चलाने की छूट प्रेस की आजादी है या नहीं? भ्रष्टाचार के आरोपियों का संसद तक पहुंचना कानून का शासन है या नहीं..? लोकतंत्र का काला अध्याय है आपातकाल