हर मनुष्य को अपने धर्म अथवा कर्त्तव्य का पालन निष्ठा और ईमानदारी से करना चाहिए। उसमें उसे जरा-सी भी उपेक्षा नहीं करनी चाहिए। वह चाहे उच्चतम राज्याधिकारी, धर्मगुरु, नेता, अभिनेता, व्यवसायी, नौकरीपेशा, वैज्ञानिक आदि कोई भी हो। सबको अपने दायित्वों का निभाना चाहिए। जो भी व्यक्ति अपने कर्त्तव्य से मुँह मोड़ता है, वह भगवान श्रीकृष्ण के अनुसार अपयश का भागीदार बनता है। अपने द्वारा किए गए दुष्कृत्यों का फल सभी को भुगतना पड़ता है। किसी को रत्ती भर भी रियायत नहीं मिलती। अपने धर्म का पालन करने में उपेक्षा नहीं
चाहे कितनी भी मुसीबत क्यों न आए यानी आपात काल में भी मनुष्य को पापकर्म करने से बचना चाहिए। उसके फल का भुगतान करते समय बहुत ही कष्ट होता है। यही समय उसकी परीक्षा का होता है कि वह अपने विचारों पर कितना अडिग रह पाता है। मनुष्य जब वह समय अपने असूलों का पालन करते हुए व्यतीत कर लेता है तब वह ईश्वर उसे फलस्वरूप सुख, ऐश्वर्य और यश उसकी झोली में डालता है।
महाभारत काल में व्यास जी ने ‘आपद्धर्म पर्व’ में आपत्तिग्रस्त राजा के कर्त्तव्य का वर्णन करते हुए धर्मराज युधिष्ठिर को शंख-लिखित की निम्न कथा सुनाई।
व्यास जी ने कहा- “युधिष्ठिर! राजधर्म के विषय में लोग इस प्राचीन ऐतिहासिक घटना का उदाहरण दिया करते हैं।”
शंख और लिखित नामक दो भाई थे। दोनों ही कठोर व्रत का पालन करने वाले तपस्वी थे। बाहुदा नदी के तट पर उन दोनों के अलग-अलग बहुत सुन्दर आश्रम थे, जो सदा फल-फूलों से लदे रहने वाले वृक्षों से सुशोभित थे। एक दिन लिखित शंख के आश्रम में आए। दैवेच्छा से शंख उसी समय आश्रम से बाहर निकले थे। भाई की प्रतीक्षा करते हुए शंख को भूख लगने लगी। शंख के आश्रम में लिखित ने पके हुए बहुत से फल तोड़कर गिराए और उन्हें बड़ी निश्चिन्तता के साथ खाने लगे। वे खा ही रहे थे कि शंख आश्रम लौट आए। भाई को फल खाते देख शंख ने उनसे पूछा- “तुमने ये फल कहाँ से प्राप्त किये हैं और किसलिए तुम इन्हें खा रहे हो?”
लिखित ने निकट जाकर बड़े भाई को प्रणाम किया और हँसते हुए-से कहा- “भैया! मैंने ये फल यहीं से लिए हैं।”
तब शंख ने तीव्र रोष में भरकर कहा- “तुमने मुझसे पूछे बिना स्वयं ही फल लेकर चोरी की है। अतः तुम राजा के पास जाओ और अपनी करतूत उन्हें कह सुनाओ।”
उनसे कहना- “नृपश्रेष्ठ! मैंने इस प्रकार बिना पूछे फल लेकर खाए हैं, अतः मुझे चोर समझकर अपने धर्म का पालन कीजिये। हे नरेश्वर! चोर के लिये जो नियत दण्ड हो, वह शीघ्र ही मुझे प्रदान कीजिए।”
यह सुनकर राजा असमंजस में पड़ गया। उसने कहा- “भाई के बाग से ही फल तोड़कर खाए हैं, इसके लिए क्या सजा दूँ?”
लिखित ने राजा को कहा- “बेशक फल भाई के बाग के थे। मैंने बिना अनुमति फल तोड़कर खाए, इसलिए यह चोरी कहलाएगी। इस अपराध कर्म का फल मुझे भुगतना पड़ेगा, इस जन्म में नहीं तो फिर अगले जन्म में।इसलिए कृपया जो एक चोर को चोरी की सजा दी जाती है, वही सजा मुझे बिना हिचकिचाहट दीजिए।”
राजा और मुनि के बीच बहस हो गई। अन्त में मन्त्री मण्डल की सम्मति से तपस्वी लिखित को चोरी करने के अपराध में दोनों हाथ काट देने की सजा सुनाई गई। उन्हें बहुत प्रसन्नता हुई कि उनके पापकर्म की सजा उन्हें मिल गई। उसके उपरान्त वे नदी में स्नान करने गए। उनके प्रचण्ड तपोबल के फलस्वरूप उनके हाथ पुनः जुड़ गए।
इस कथा के माध्यम से यह बात समझ में आती है कि कर्मफल के विधान से ब्रह्माण्ड का कोई भी जीव नहीं बच सकता। चाहे वह राजा हो, साधु-सन्यासी हो या कोई भी साधारण व्यक्ति हो। अपने शुभाशुभ कर्मों का फल उसे भोगना ही पड़ता है। जिन्हें हम भगवान मानते हैं, जिनकी पूजा-अर्चना करते हैं, वे भी कर्मों के भोग से नहीं बच सके। कर्म के चक्र से किसी का बच निकलना असम्भव है।
इसी प्रकार यह आवश्यक है कि किसी भी देश के राजा एवं न्याय व्यवस्था को निष्पक्ष होकर अपराधी को सजा सुननी चाहिए। उन्हें किसी के दबाव में आकर कोई निर्णय नहीं लेना चाहिए। राजा को प्रजा पितातुल्य मानती है। उससे यही अपेक्षा की जाती है कि वह किसी की जाति, किसी का धर्म देखे बिना एक पिता की भाँति अपनी सारी प्रजा के साथ समान व्यवहार करें।
एवंविध देश के न्यायालय की ओर भी सभी लोग अपनी आँखें गढ़ाए रहते हैं। उससे निष्पक्ष न्याय की आशा करते हैं। सरकारें तो आती जाती रहती हैं, न्याय की नजर में सभी एक समान होने चाहिए। फिर चाहे समक्ष राजनेता हों, उच्च पदाधिकारी हों, धनवान हों या आम जनता हो। आपद्धर्म होने पर भी उन्हें अपने धर्म से डिगना नहीं चाहिए। अन्यथा ऐसा होने पर इसके दुष्परिणाम भयावह होते हैं। अपने धर्म का पालन करने में उपेक्षा नहीं