कॉरपोरेट जंगल और युवा मन: टूटते सपने, टूटते दिल। युवा वर्ग (20-34 वर्ष) इस संकट से सबसे अधिक प्रभावित है और कुल आत्महत्याओं का 53 प्रतिशत इसी आयु वर्ग में होता है। कॉरपोरेट जंगल और युवा मन टूटते सपने
गजेंद्र सिंह
भारत में मानसिक स्वास्थ्य का संकट गहराता जा रहा है जिसका प्रभाव विशेष रूप से युवा पीढ़ी पर पड़ रहा है। हाल ही में हुई दो दुखद घटनाओं – 23 फरवरी को मैकिन्से एंड कंपनी में कार्यरत एक 25 वर्षीय आईआईटी-आईआईएम स्नातक स्नातक ने मुंबई में अपने अपार्टमेंट की 9वीं मंजिल से छलांग लगाकर आत्महत्या कर ली और जुलाई मे अर्न्स्ट एंड यंग (ईवाई) की 26 वर्षीय चार्टर्ड अकाउंटेंट अन्ना सेबेस्टियन पेरायिल की अत्यधिक कार्य के दबाव के कारण मृत्यु ने इस समस्या को राष्ट्रीय चर्चा का विषय बना दिया है। ये मामले इस बात की याद दिलाते हैं कि कार्यस्थल पर तनाव और विषाक्त वातावरण भारत के युवाओं पर भारी पड़ रहे हैं।
द मैप्स डेली के अनुसार, जीवन के दुखद नुकसान के अलावा, भारत आत्महत्या के कारण सालाना 13.4 लाख करोड़ रुपये के चौंका देने वाले आर्थिक बोझ से भी जूझ रहा है। भारत में प्रति 1 लाख लोगों में से 14 लोग आत्महत्या कर रहे हैं जो कि 9 प्रतिशत के वैश्विक औसत से काफी अधिक है । यह संकट सिर्फ एक मानसिक स्वास्थ्य का मुद्दा नहीं है अपितु इसे राष्ट्रीय आपातकाल की श्रेणी में डाला जाना चाहिए. यह सामाजिक और आर्थिक समस्याओं को भी दर्शाता है। युवा वर्ग (20-34 वर्ष) इस संकट से सबसे अधिक प्रभावित है और कुल आत्महत्याओं का 53 प्रतिशत इसी आयु वर्ग में होता है।
इस समस्या के मूल में कई कारण हैं। पहला, भारत का मानसिक स्वास्थ्य बुनियादी ढांचा अपर्याप्त है जहां राष्ट्रीय स्वास्थ्य बजट का मात्र 1 प्रतिशत से भी कम हिस्सा मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं पर खर्च किया जाता है। दूसरा, आर्थिक संकट, जिसमें बेरोजगारी, गरीबी और कर्ज शामिल हैं, लोगों को अत्यधिक तनाव में डाल रहे हैं। तीसरा, उच्च दबाव वाले कॉर्पोरेट वातावरण में काम करने वाले पेशेवरों पर लगातार प्रदर्शन का दबाव बना रहता है।
इस गंभीर स्थिति से निपटने के लिए एक बहुआयामी दृष्टिकोण की आवश्यकता है। सबसे पहले, सरकार को मानसिक स्वास्थ्य के लिए आवंटित बजट में वृद्धि करनी चाहिए। इससे न केवल अधिक मानसिक स्वास्थ्य पेशेवरों को प्रशिक्षित किया जा सकेगा बल्कि समुदाय-आधारित कार्यक्रमों और आत्महत्या रोकथाम हॉटलाइन जैसी तत्काल सेवाओं का भी विस्तार किया जा सकेगा। दूसरा, शैक्षणिक संस्थानों और कार्यस्थलों को मानसिक स्वास्थ्य को प्राथमिकता देनी चाहिए। स्कूलों और कॉलेजों में नियमित मानसिक स्वास्थ्य जांच और परामर्श सेवाएं प्रदान की जानी चाहिए।
कॉर्पोरेट क्षेत्र में कंपनियों को अपने कर्मचारियों के लिए स्वस्थ “काम-जीवन” संतुलन सुनिश्चित करने वाली नीतियां लागू करनी चाहिए । इसमें लचीले काम के घंटे, नियमित अवकाश, और मानसिक स्वास्थ्य सहायता कार्यक्रम शामिल हो सकते हैं। तीसरा, सरकार को ग्रामीण और कृषि क्षेत्रों में आर्थिक सहायता बढ़ानी चाहिए। किसानों के लिए ऋण माफी योजनाएं, कृषि बीमा, और आधुनिक खेती तकनीकों का प्रशिक्षण इस दिशा में महत्वपूर्ण कदम हो सकते हैं। साथ ही, ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार के अवसर बढ़ाने के लिए लघु उद्योगों को प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए।
अंत में मानसिक स्वास्थ्य के प्रति सामाजिक दृष्टिकोण में बदलाव लाना आवश्यक है। मीडिया और सामाजिक संगठनों के माध्यम से व्यापक जागरूकता अभियान चलाए जाने चाहिए ताकि मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं से जुड़े कलंक को दूर किया जा सके और लोगों को सहायता मांगने के लिए प्रोत्साहित किया जा सके। भारत की राष्ट्रीय आत्महत्या रोकथाम रणनीति, जिसका लक्ष्य 2030 तक आत्महत्या दर को 10 प्रतिशत तक कम करना है, एक सकारात्मक कदम है लेकिन इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए सरकार, निजी क्षेत्र और नागरिक समाज के बीच समन्वित प्रयास की आवश्यकता होगी। यदि हम अपने युवाओं के मानसिक स्वास्थ्य की रक्षा करने में सफल होते हैं, तो हम न केवल अनगिनत जीवन बचा सकते हैं बल्कि एक स्वस्थ और समृद्ध भारत का निर्माण भी कर सकते हैं। कॉरपोरेट जंगल और युवा मन टूटते सपने
घोषणाः-यह लेख मौलिक है और इसे अभी तक किसी भी प्रकाशन संस्था को विचार के लिए प्रस्तुत नहीं किया गया है।
लेखक परिचय :- गजेंद्र सिंह एक सामाजिक विचारक और विकास विशेषज्ञ हैं, जो पिछले 15 वर्षों से व्यवस्था परिवर्तन के लिए सामाजिक संगठनों, सरकार और समाज को एकजुट करने के लिए प्रतिबद्ध हैं।