

23 जून 1953 को भाजपा (जनसंघ) के संस्थापक श्यामा प्रसाद मुखर्जी को जेल मे ही जहर दे दिया गया था। उनका अपराध यह था कि वे कश्मीर मे तिरंगा फहरा रहे थे। आज वही भाजपा है, उसी का प्रधानमंत्री है और तिरंगा शान से लहरा रहा है। संघ के संस्कार, संगठन की शक्ति और रणनीतिक बदलावों के सहारे भाजपा का बदलता स्वरूप। भाजपा की अंतर्निहित यात्रा
भारतीय राजनीति में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की यात्रा केवल चुनावी जीतों या नेतृत्व परिवर्तन की कहानी नहीं है, बल्कि यह एक गहरे वैचारिक अनुशासन, संगठनात्मक विस्तार और समयानुकूल रणनीतिक मोड़ की जटिल प्रक्रिया भी है। भाजपा की राजनीति की अंतर्निहित धारा को समझना है तो उसके भीतर बहती संघ की वैचारिक निष्ठा, विकास और राष्ट्रवाद के नए विमर्श, तथा राजनीतिक प्रयोगों की श्रृंखला पर ध्यान देना होगा।
इस यात्रा में अटल-आडवाणी युग से लेकर नरेंद्र मोदी-अमित शाह युग तक का संक्रमण, न सिर्फ नेतृत्व परिवर्तन को दर्शाता है बल्कि यह बताता है कि कैसे पार्टी ने धार्मिक-सांस्कृतिक राष्ट्रवाद से लेकर विकास और सुरक्षा-केन्द्रित जनआकर्षण तक अपने चेहरे और चाल को समय के साथ ढाला है।
गांधीजी के बाद आज़ाद भारत में तीन ही वे यात्राएं है जिन्होंने राजनीति को बदल दिया। पहली वही जो श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने की थी और अपना बलिदान दिया था। इसी बलिदान की वजह से भाजपा आज भी “जहाँ हुए बलिदान मुखर्जी, वो कश्मीर हमारा है” का नारा देती है।
दूसरी यात्रा थी ज़ब लालकृष्ण आडवाणी ने सोमनाथ से अयोध्या रथयात्रा की. उस समय मोदीजी आडवाणी के सारथी थे। आख़िरकार बाबरी मस्जिद ध्वस्त हुई और प्राण प्रतिष्ठा भी हुई।
तीसरी सबसे जरूरी यात्रा ज़ब भाजपा ने श्रीनगर के लाल चौक पर तिरंगा फहराने की ठान ली, तब भी मोदीजी ही रैली मे तिरंगा उठाये चल रहे थे. सेना के बीच से बीजेपी कार्यकर्ता निकले थे।
तीन बार गोलिया चली लेकिन यात्रा लाल चौक पर तिरंगा फहरा कर ही सम्पन्न हुई। पहली यात्रा वह थी जिसने भाजपा को एक मुद्दा दिया और राजनीतिक लक्ष्य भी। दूसरी और तीसरी यात्रा ने भाजपा को लाल किले तक पहुँचाया।
एक समय था जब 3% वोट मिले थे और 3 ही सांसद दिल्ली पहुँचे थे. आज कुनबा 240 का है और वोट 35% के पार है. इसमें विपक्ष का ये कहना कि हमने कमजोर कर दिया, दर्शाता है कि हैसियत तो इससे भी कही ज्यादा है।
लेकिन सच कहिए तो ये होना था इसीलिए हुआ। मुखर्जी की मृत्यु के बाद भाजपा ने कश्मीर का नारा भले ही दिया था मगर उसे जन स्वीकृति मिलना शेष था। टैग था कि ये तो दक्षिणपंथी पार्टी है।
1960 और 1970 का वह दौर समाज़वाद का युग था जो तकरीबन 30-40 साल चला और हमें चीन से पीछे ले गया। हमें विकास नही, सम्मान चाहिए, जैसा घटिया नारा लगने वाले भी जननेता बन गए। हमारी जनता इतनी अशिक्षित थी।
खुद अटल बिहारी वाजपेयी ने भाजपा की स्थापना के दिन गांधीवादी समाज़वाद की बात कह दी थी। यदि आडवाणी और राजमाता सिंधिया ने विरोध ना किया होता तो आज भी कश्मीर मे पाकिस्तानी झंडे दिख रहे होते।
1984 के चुनाव मे भाजपा को दो सीटें मिली। आडवाणी ने प्रेस कॉन्फ्रेंस में कहा कि ये लोकसभा नहीं, शोकसभा की सीटें कांग्रेस को मिली है लेकिन भाजपा के अंदर ही अंदर वाजपेयी को जिम्मेदार ठहरा दिया गया था।
इसलिए आडवाणी अध्यक्ष बनाये गए। वाजपेयी को साइड में कर राम मंदिर का मुद्दा उठाया गया और अगले पाँच साल मे दो सीटों से 85 सीटों का सफर तय हुआ। राम मंदिर पर्याप्त मुद्दा नहीं था. ऐसे मे भाजपा ने राष्ट्रवाद का मुद्दा पुनः उठाया।
मुखर्जी की मृत्यु के 40 साल बाद कश्मीर के लिये भी आंदोलन हुआ। तब से राम मंदिर और धारा 370 लक्ष्य पर थे और बारी बारी दोनों मुद्दे समाप्त भी हुए। तब जाकर ये तस्वीर सामने आई है। इसलिए ये बस कैमरे का कमाल नहीं है. इस प्रसन्नता के पीछे एक जीवंत इतिहास है। भाजपा की अंतर्निहित यात्रा