यूपी में जातीय रैलियों पर रोक से संगठित होता हिन्दुत्व

26
यूपी में जातीय रैलियों पर रोक से संगठित होता हिन्दुत्व
यूपी में जातीय रैलियों पर रोक से संगठित होता हिन्दुत्व
संजय सक्सेना
संजय सक्सेना

उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा जातीय रैलियों पर रोक लगाने का फैसला केवल प्रशासनिक आदेश नहीं, बल्कि बदलते राजनीतिक समीकरणों का संकेत भी है। वर्षों से जाति-आधारित लामबंदी यूपी की राजनीति की धुरी रही है, लेकिन इस प्रतिबंध ने सत्ता पक्ष के उस बड़े लक्ष्य की ओर इशारा कर दिया है, जिसमें व्यापक हिन्दुत्व की एकजुट पहचान को जातीय पहचान से ऊपर रखा जा रहा है। यह कदम सामाजिक ध्रुवीकरण को नए रूप में परिभाषित करने वाला साबित हो सकता है।

लखनऊ। देश में क्या विभाजनकारी राजनीति करने वाले नेताओं का अंत का समय करीब आ गया है। बिहार के नतीजों ने क्या बांटने और राज करने की राजनीति करने वाले नेताओं को सबक सिखा दिया है कि उन्हें अपनी भविष्य की राजनीति में बदलाव करना होगा। बिहार से जो संदेश निकला है, उसका प्रभाव अन्य राज्यों में भी देखने को मिल सकता है। खासकर उत्तर प्रदेश इससे सबसे अधिक प्रभावित हो सकता है। वैसे भी यूपी की योगी सरकार ने हाल ही में जातीय आधार पर होने वाली रैलियों पर प्रतिबंध लगाकर राजनीतिक दृश्य में एक बड़ा बदलाव ला दिया है। इस फैसले का भी सीधा असर अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी और मायावती की बहुजन समाज पार्टी जैसे दलों पर पड़ा है, जो लंबे समय से जाति आधारित राजनीति को अपनी रणनीति का हिस्सा बनाए हुए हैं।योगी सरकार का यह कदम न सिर्फ राज्य की राजनीतिक संस्कृति को बदलने की कोशिश है, बल्कि यह बीजेपी के लिए एक रणनीतिक फायदा भी बन सकता है। जातीय रैलियों पर रोक लगाकर योगी सरकार उन नेताओं और दलों के मंसूबे चकनाचूर करना चाहती है, जो हिंदू समाज को जाति और उपजाति के आधार पर बांटने की सियासत में लगे रहते हैं। इस फैसले के पीछे यह विश्वास है कि जातीय रैलियां समाज में विभाजन और तनाव पैदा करती हैं, जिससे राज्य की शांति और सद्भावना को खतरा होता है। यूपी में जातीय रैलियों पर रोक से संगठित होता हिन्दुत्व

योगी सरकार का तर्क है कि राजनीति को जाति और धर्म के आधार पर नहीं, बल्कि विकास, सुरक्षा और समानता के आधार पर होना चाहिए। इस निर्णय से अखिलेश यादव और मायावती जैसे नेताओं के लिए चुनौती बढ़ गई है, क्योंकि उनकी राजनीतिक रणनीति जाति आधारित वोट बैंक को जोड़ने पर टिकी हुई है। अब उन्हें नए तरीके से जनता को संबोधित करना होगा, जिसमें जाति की बजाय विकास और समानता के मुद्दे आगे आएंगे।यह फैसला बीजेपी के लिए एक बड़ा रणनीतिक फायदा भी है। बीजेपी लंबे समय से उत्तर प्रदेश में हिंदू एकता की राजनीति को बढ़ावा दे रही है। जातीय रैलियों पर प्रतिबंध लगाकर योगी सरकार ने बीजेपी की इस रणनीति को और मजबूत किया है। अब जाति आधारित रैलियों के बिना अखिलेश यादव और मायावती के लिए अपने वोट बैंक को जोड़ना मुश्किल होगा, जबकि बीजेपी के लिए यह एक अवसर है कि वह हिंदू समाज के विभिन्न वर्गों को एकजुट कर सके। इससे 2027 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी के पक्ष में वोट बैंक का विस्तार हो सकता है।

गौरतलब है, बिहार के चुनावों में भी इसी तरह की राजनीतिक दिशा देखने को मिली है। बिहार में हिंदू समाज के विभिन्न वर्गों ने एकजुट होकर बीजेपी और जनता दल यूनाइटेड के पक्ष में मतदान किया। इस एकजुटता का असर यह हुआ कि जाति आधारित राजनीति करने वाले दलों को बड़ा झटका लगा। बिहार के चुनाव ने यह संकेत दिया कि अब हिंदू समाज जाति और उपजाति के आधार पर नहीं, बल्कि विकास और सुरक्षा के मुद्दों पर वोट देने लगा है। यह रुझान उत्तर प्रदेश में भी देखने को मिल सकता है, खासकर जब जातीय रैलियों पर प्रतिबंध लग चुका है।योगी सरकार का यह कदम न सिर्फ राजनीतिक दलों के लिए चुनौती है, बल्कि यह समाज के लिए भी एक बड़ा संदेश है। यह संदेश है कि अब जाति और उपजाति के आधार पर विभाजन की राजनीति नहीं चलेगी। इस फैसले से यह स्पष्ट होता है कि राज्य सरकार चाहती है कि राजनीति विकास, सुरक्षा और समानता के मुद्दों पर आधारित हो। इससे न सिर्फ राजनीतिक दलों को अपनी रणनीति बदलनी होगी, बल्कि जनता को भी अपने वोट के आधार को बदलना होगा।

इस फैसले के बाद अखिलेश यादव और मायावती जैसे नेताओं के लिए यह जरूरी हो गया है कि वे अपने वोट बैंक को जाति के आधार पर नहीं, बल्कि विकास और समानता के मुद्दों पर जोड़ें। इससे उन्हें नए तरीके से जनता को संबोधित करना होगा, जिसमें जाति की बजाय विकास और समानता के मुद्दे आगे आएंगे। इस तरह की रणनीति अपनाने से उन्हें बीजेपी के खिलाफ एक नई राजनीतिक दिशा देनी होगी।योगी सरकार का यह कदम बीजेपी के लिए एक बड़ा रणनीतिक फायदा भी है। बीजेपी लंबे समय से उत्तर प्रदेश में हिंदू एकता की राजनीति को बढ़ावा दे रही है। जातीय रैलियों पर प्रतिबंध लगाकर योगी सरकार ने बीजेपी की इस रणनीति को और मजबूत किया है। अब जाति आधारित रैलियों के बिना अखिलेश यादव और मायावती के लिए अपने वोट बैंक को जोड़ना मुश्किल होगा, जबकि बीजेपी के लिए यह एक अवसर है कि वह हिंदू समाज के विभिन्न वर्गों को एकजुट कर सके। इससे 2027 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी के पक्ष में वोट बैंक का विस्तार हो सकता है।

बिहार के चुनावों में भी इसी तरह की राजनीतिक दिशा देखने को मिली है। बिहार में हिंदू समाज के विभिन्न वर्गों ने एकजुट होकर बीजेपी और जनता दल यूनाइटेड के पक्ष में मतदान किया। इस एकजुटता का असर यह हुआ कि जाति आधारित राजनीति करने वाले दलों को बड़ा झटका लगा। बिहार के चुनाव ने यह संकेत दिया कि अब हिंदू समाज जाति और उपजाति के आधार पर नहीं, बल्कि विकास और सुरक्षा के मुद्दों पर वोट देने लगा है। यह रुझान उत्तर प्रदेश में भी देखने को मिल सकता है, खासकर जब जातीय रैलियों पर प्रतिबंध लग चुका है।योगी सरकार का यह कदम न सिर्फ राजनीतिक दलों के लिए चुनौती है, बल्कि यह समाज के लिए भी एक बड़ा संदेश है। यह संदेश है कि अब जाति और उपजाति के आधार पर विभाजन की राजनीति नहीं चलेगी। इस फैसले से यह स्पष्ट होता है कि राज्य सरकार चाहती है कि राजनीति विकास, सुरक्षा और समानता के मुद्दों पर आधारित हो। इससे न सिर्फ राजनीतिक दलों को अपनी रणनीति बदलनी होगी, बल्कि जनता को भी अपने वोट के आधार को बदलना होगा। यूपी में जातीय रैलियों पर रोक से संगठित होता हिन्दुत्व