रील्स का नशा या भ्रम..?

20
रील्स का नशा या भ्रम..?
रील्स का नशा या भ्रम..?
विजय गर्ग 
विजय गर्ग

यह बात आज से लगभग दो दशक पहले की है। हिंदी साहित्य जगत में उस समय मैत्रेयी पुष्पा का डंका बज रहा था। एक के बाद एक चर्चित उपन्यास लिखकर उन्होंने साहित्य जगत में अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज की थी। गोष्ठियों में भी उनकी मांग थी। लोग उन्हें सुनना चाहते थे। मैत्रेयी पुष्पा भी अपने ग्रामीण अनुभवों के आधार पर बात रखतीं तो महानगरीय परिवेश में रहनेवालों को वह बिल्कुल नया जैसा लगता। मुझे जहां तक याद पड़ता है कि दिल्ली के हिंदी भवन में एक गोष्ठी थी। उसमें मैत्रेयी पुष्पा भी वक्ता के रूप में उपस्थित थीं। विषय स्त्री विमर्श से जुड़ा हुआ था। मैत्रेयी पुष्पा के अलावा जो भी वक्ता थीं, वह सब वहां स्त्री विमर्श को लेकर सैद्धांतिक बातें कर रही थी। मंच से बार बार ‘सिमोन द बीउआर’ के उपन्यास ‘सेकेंड सेक्स’ का नाम लिया जा रहा था। वस्तुतः वहां सिमोन की स्थापनाओं पर बात हो रही थी और उसे भारतीय परिदृश्य से जोड़कर बातें रखी जा रही थीं। उनमें से अधिकतर ऐसी बातें थीं जो अमूमन स्त्री विमर्श की गोष्ठियों में सुनाई पड़ती ही थीं। रील्स का नशा या भ्रम..?

अब बारी मैत्रेयी पुष्पा के बोलने की थी। उन्होंने माइक संभाला और फिर बोलना आरंभ किया। स्त्री विमर्श पर आने के पहले उन्होंने एक ऐसी बात कही जो उस समय नितांत मौलिक और उनके स्वयं के अनुभवों पर आधारित थी। उन्होंने कहा कि जब से औरतों के हाथ में मोबाइल पहुंचा है, वह बहुत सशक्त हो गई हैं। उन्हें एक ऐसा सहारा या साथी मिल गया जो वक्त-बेवक्त उनके काम आता है, उनकी मदद करता है। गांव की महिलाएं भी घूंघट की आड़ से अपनी पीड़ा दूर बैठे अपने हितचिंतकों को या अपने रिश्तेदारों को बता सकती हैं। संकट के समय मदद मांग सकती हैं। इस संबंध मैं मैत्रेयी पुष्पा ने कई किस्से बताए जो उनकी भाभी से जुड़े हुए थे। मैत्रेयी पुष्पा ने अपने गंवई अंदाज में मोबाइल को स्त्री सशक्तीकरण से जोड़कर ऐसी बात कह दी जो उनके साथ मंच पर बैठी अन्य स्त्रियों ने शयद सेचा भी न होगा। जब मैत्रेयी बोल रही थीं तो सभागार में जिस प्रकार की चुप्पी थी, उससे ऐस प्रतीत हो रहा था कि अधिकतर लोग उनकी इस स्थापना से सहमत हों।

आज से दो दशक पहले मैत्रेयी पुष्पा ने जब ऐस बोला था, तब शायद ही सोचा होगा कि मोबाइल स्त्रियों और पुरुषों की दबी आकांक्षाओं के प्रदर्शन का कारक भी बनेगा। पिछले दिनों मित्रों के साथ डिजिटल स्क्रीन पर व्यतीत होनेवाले समय पर बातचीत हो रही थी। चर्चा में सभी यह बताने में लगे थे कि किन-किन प्लेटफार्म पर उनका अधिक समय व्यतीत होता है। ज्यादतर मित्रों का कहना था कि ‘इंस्टा’ और ‘एक्स’ की रील्स देखने समय अधिक जाता है। इस चर्चा में ही एक मित्र ने कहा कि वह जब घरेलू और अन्य महिलाओं के वीडियो देखते हैं तो आनंद दोगुना हो जाता है। जिनको डांस करना नहीं आता वे भी डांस करते हुए वीडियो डालती हैं। कई बार तो पति पत्नी के बीच के संवाद भी रील्स में नजर आते हैं। उसमें वह रितेश देशमुख और जेनेलिया की भौंडी नकल करने का प्रयास करते हैं। इस चर्चा के बीच एक बहुत मार्के की बात निकल कर आई। इंस्टा की रील्स एक ऐसा मंच बन गया है जो महिलाओं और पुरुषों के मन में दबी आकांक्षाओं को भी समने ला रही है। जिन महिलाओं को चर्चित होने का शौक था, जिनको पर्दे पर आने की इच्छा थी, जिनको डांस सीखने और मंच पर अपनी कला को प्रदर्शित करने की इच्छा थी, वो सारी इच्छाएं पूरी हो रही हैं।

रील्स और इंस्टा के पहले इस तरह की आकांक्षाएं मन में ही दबी रह जाती थीं। उनके अंदर कुंठा पैदा करती थीं। मोबाइल और इंटरनेट की सुविधा नहीं होने से जो महिलाएं पहले अपनी नृत्य कला का प्रदर्शन करना चाहती थीं, आवश्यक संसाधन उपलब्ध नहीं होने के कारण वो ऐसा कर नहीं पाती थीं। इसमें बहुत सी अधेड़ उम्र की महिलाओं को भी रील्स में देखा जा सकता है। कई तो अजीबोगरीब करतब करते हुए भी नजर आती हैं। लेकिन अपने मन का कर तो रही हैं। रील्स का यह एक सकारात्मक पक्ष माना जा सकता है जैसे मोबाइल फोन ने महिलाओं को सशक्त किया उसी तरह से इंटरनेट और इंटरनेट प्लेटफार्म्स ने महिलाओं की आकांक्षाओं को पंख लगा दिए। अब वो बगैर लज्जा, संकोच के अपने मन का कर रही हैं और समाज के सामने उसको प्रदर्शित भी कर रही हैं। वैसे रोल्स को लेकर पहले भी इस स्तंभ में चर्चा हो चुकी है जिसमें रोग से लेकर शेयर बाजार में निवेश करने से जुड़े टिप्स तक और धन कमाने से लेकर भाग्योदय तक के नुस्खों को केंद्र में रखा गया था। रील्स पर हो रही चर्चा में एक चिकित्सक मित्र ने एक मजेदार बात कही। उन्होंने कहा कि रोल्स ने डाक्टरों का फायदा करवाया है। रील्स देखकर स्वस्थ रहने के नुस्खे अपनाने वाले लोग बढ़ते जा रहे हैं।

स्वस्थ रहने के तरीकों को देखकर और बिना विशेषज्ञ की सलाह के उन तरीकों को अपनाने से समस्याएं भी पैदा होती जा रही हैं। जैसे रोल्स में सेंधा नमक को लेकर बहुत अच्छी बातें कही जाती हैं। सलाह देनेवाले सेंधा नमक को स्वास्थ्य के लिए उपयोगी बताते हैं। रील्स देखकर लोग सैंधा नमक खाने लग जाते हैं। बगैर यह सोचे समझे कि आयोडाइज्ड नमक खाने के क्या लाभ थे और छोड़ देने के क्या नुकसान हो सकते हैं? जब शरीर में सोडियम और पोटैशियम का संतुलन बिगड़ता है तो चिकित्सकों के पास भागते हैं। पता चलता है कि यह असंतुलन सैंधा नमक के निरंतर सेवन से हुआ। स्वस्थ रहने के इसी तरह के कई नुस्खे आपको इंस्टाग्राम पर भी मिल जाएंगे। सभी ऐसे बताए जाते हैं कि देखनेवालों का एक बार तो मन कर ही जाता है कि वह उसको अपना ले। चूंकि इस बात का उल्लेख रोल्स में नहीं होता है कि सलाह देनेवाले चिकित्सक या न्यूट्रिशनिस्ट है या नहीं, इसलिए इसे देखनेवाला यह मानकर चलता है कि रील्स बनाने वाला विशेषज्ञ होगा ही। रील की दुनिया बहुत ही मनोरंजक है। समय बहुत सोखती है। कई बार वहीं अच्छी सामग्री भी मिल जाती है, लेकिन एआइ के इस दौर में प्रामाणिकता को लेकर मन में एक प्रकार का संशय बना ही रहता है।

किसी का भी वीडियो बनाकर उसमें किसी दूसरे की आवाज पिरोकर बहुप्रसारित करने का चलन भी बढ़ रहा है। ऐसे में इस आभासी दुनिया को केवल और केवल मनोरंजन के लिए ही उपयोग किया जाना चाहिए। मन में दबी इच्छाओं को पूर्ण करने का मंच माना या बनाया जा सकता है। इस माध्यम को गंभीरता से लेने की आवश्यकता नहीं है। ऐसा प्रतीत होता है कि वह दिन दूर नहीं जब लोग इससे ऊबकर फिर से छपे हुए अक्षरों की और लौटेंगे। दरअसल जिस प्रकार की प्रामाणिकता प्रकाशित शब्दों या अक्षरों की होती है, वैसी इन आभासी माध्यमों में नहीं होती है। इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता है कि अभी इस माध्यम का समाज पर प्रभाव पड़ रहा है। लोग कई बार यहाँ सुझाई या कही गई बातों को सही मानकर अपनी राय बना लेते हैं। लेकिन जैसे-जैसे देश में शिक्षित लोगों की संख्या बढ़ेगी और इन सबके बारे में लोगों की समझ बढ़ेगी तो इसको विशुद्ध मनोरंजन के तौर पर ही देखा जाएगा, सूचना के माध्यम के तौर पर नहीं। रील्स का नशा या भ्रम..?