पिछड़ों,दलितों के लिए आरक्षित पद लगातार ख़ाली क्यों पड़े हैं….?
भारतीय जनता पार्टी से जुड़े लोग इन दिनों दावा करते हैं कि देश को पिछड़े,दलित व आदिवासी चला रहे हैं। इस दावे की एक वजह संवैधानिक पदों पर बैठे ओबीसी की तादाद और विधायिका में उनकी संख्या है। हालांकि इस बात का जवाब किसी के पास नहीं है कि दलित राष्ट्रपति के बाद अगली आदिवासी राष्ट्रपति और केंद्रीय मंत्रिमंडल में प्रधानमंत्री समेत तमाम ओबीसी नेता होने के बावजूद आरक्षण की व्यवस्था क्यों ग़ैर-प्रासंगिक होती जा रही है और क्यों रिक्त पड़े आरक्षित पद भरे नहीं जा रहे हैं? कहने को तो देश के प्रधानमंत्री ओबीसी हैं,पर आत्मिक रूप से वे पिछड़े की भावना नहीं रखते,यह उनके 8 वर्ष के प्रधानमंत्रित्व काल में पिछड़ों के संवैधानिक अधिकारों की हकमारी से स्पष्ट होती है।
कहने को केन्द्रीय मन्त्रिमण्डल में 27 ओबीसी मंत्री हैं,पर एकमात्र धर्मेंद्र प्रधान(कुर्मी) कैबिनेट मंत्री हैं,जो शिक्षामंत्री हैं।पिछड़े वर्ग के प्रधानमंत्री के रहते यूपीए-2 के कार्यकाल में 2011 कई जनगणना सोसिओ-इको-कास्ट सेन्सस की रिपोर्ट जब 31 अगस्त,2015 को घोषित की गई तो ओबीसी का आँकड़ा ही घोषित नहीं किया गया। 31 अगस्त,2018 को तत्कालीन गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने घोषणा किये थे कि 2021 में ओबीसी का कास्ट सेन्सस कराया जाएगा।लेकिन बाद में विगत वर्ष गृहराज्यमंत्री नित्यानन्द राय(यादव) ने सरकार की तरफ से ओबीसी का कास्ट सेन्सस न कराने सम्बंधित हलफनामा सुप्रीम कोर्ट में दाखिल कर दिए।
सरकारी आंकड़े कह रहे हैं कि केंद्रीय सेवाओं में अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, और पिछड़ों के लिए आरक्षित कुल पदों में आधे से अधिक ख़ाली पड़े हैं और उनपर वाजिब हक़दारों की नियुक्ति नहीं की जा रही है। यही हाल केंद्रीय विश्विविद्यालयों और उन स्वायत्त संस्थानों में हैं, जो केंद्रीय भर्ती नियमों का पालन करते हैं। वर्ष 2021 के आख़िर में सरकार ने माना था कि केंद्रीय विश्वविद्यालयो में कुल आरक्षित पदों में से लगभग पचास फीसद ख़ाली पड़े हैं। तब एक लिखित प्रश्न के जवाब में सरकार ने संसद में कहा कि देश के 45 केंद्रीय विश्वविद्यालयों में अनुसूचित जाति के कुल 5737 पद स्वीकृत हैं, जिनमें से 2389 पद ख़ाली पड़े हैं। इस तरह अनुसूचित जनजाति के स्वीकृत 3097 पदों में से 1199 पद ख़ाली हैं। अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) के लिए स्वीकृत 7815 पदों में से 4251 पर नियुक्तियां नहीं की गई हैं। इसके अलावा इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विवि दिल्ली में अनुसूचित जाति के 380 में से 157, अनुसूचित जनजाति के 180 में से 88 और ओबीसी के कुल 346 में से 231 पद ख़ाली हैं। अगर इन आंकड़ों को देखें तो आरक्षण व्यवस्था की न सिर्फ लगातार अनदेखी की जा रही है, बल्कि इसका तक़रीबन मखौल उड़ाया जा रहा है।
मार्च,2022 में कार्मिक, लोक शिकायत, कानून और न्याय मामलों से जुड़ी संसदीय स्थायी समिति ने अपनी 112वीं रिपोर्ट जारी की। इस रिपोर्ट के मुताबिक़ परेशानी न सिर्फ केंद्रीय विभागों में आरक्षित पदों के बैकलॉग की है, बल्कि दिक़्क़त यह है कि सरकार इस तरफ ध्यान भी नहीं दे रही है। सरकार के पास ख़ाली पड़े पदों का हिसाब रखने का कोई तंत्र या एजेंसी नहीं है।
इससे पहले, केंद्रीय कार्मिक मंत्री जितेंद्र सिंह ने 17 मार्च, 2022 को संसद में बताया कि देश भर में केंद्र सरकार के विभागों में ग्रुप ‘ए’ से लेकर ग्रुप ‘सी’ तक के क़रीब 5 लाख 12 हज़ार कर्मचारी हैं। इनमें सफाईकर्मी भी शामिल हैं। केंद्रीय मंत्री के मुताबिक़ फिलहाल केंद्रीय मंत्रालयों और विभागों में काम कर रहे तमाम लोगों में 17.70 फीसदी एससी, 6.72 फीसदी एसटी, 20.26 फीसदी ओबीसी और 0.02 फीसदी ईडब्लूएस श्रेणी के हैं। उल्लेखनीय तथ्य है कि ग्रुप ‘ए’ यानी वरिष्ठ पदों पर एससी की हिस्सेदारी महज़ 12.86 फीसदी है जबकि 27 फीसद आरक्षण के बावजूद ओबीसी की हिस्सेदारी इस वर्ग में महज़ 16.88 फीसद है। हालांकि केंद्रीय मंत्री ने जो आंकड़े दिए उनमें रेलवे और डाक जैसे बड़े केंद्रीय विभागों के आंकड़े शामिल नहीं थे।
केन्द्रीय सेवाओं में ओबीसी,एससी, एसटी का प्रतिनिधित्व-
कार्मिक व लोक शिकायत राज्यमंत्री जितेंद्र सिंह द्वारा संसद के पटल पर वर्गवार लोकसेवकों का प्रतिनिधित्व निम्नानुसार है-
ग्रुप ओबीसी एससी एसटी
ए 16.88% 12.86% 5.64%
बी 15.77% 16.66% 6.55%
सी 22.54% 18.22% 6.91%
डी 20.14% 32.72% 7.66%
———————- ——– —— —
योग 20.26% 17.70% 6.72%
—————————————-
कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि आरक्षण व्यवस्था को ठीक से लागू करने में सरकार दिलचस्पी नहीं दिखा रही है। हालांकि बीच-बीच में प्रधानमंत्री और कई अन्य मंत्री इस तरह के बयान देते हैं, जिनसे लगता है कि दलित और पिछड़ों को उनका वाजिब हक़ बस मिलने ही वाला है। इन बयानों से लोगों को उम्मीदें बंधती हैं, लेकिन यह उम्मीदें अभी तक पूरी नहीं हो पाई हैं। ऐसा तब है जबकि सरकार का दावा सभी तबक़ों को साथ लेकर चलने का है। और सरकार तथा संसद में न तो दलित और ओबीसी नेताओं की संख्या कम है औऱ ना ही इस मुद्दे पर विपक्ष की तरफ से कोई अड़चन है। फिर भी अगर आरक्षित पद भरे नहीं जा रहे हैं, तो ज़ाहिर है इसमें सरकार की कमज़ोर इच्छाशक्ति के अलावा दलित, ओबीसी नेताओँ के दलगत स्वार्थ और अधिकारों के प्रति उनकी उदासीनता भी ज़िम्मेदार है।
(लेखक सामाजिक न्याय चिन्तक व भारतीय पिछड़ा दलित महासभा के राष्ट्रीय महासचिव हैं)