मंडल कमीशन आँकड़ों के आधार पर कहा जाता है कि भारत में ओबीसी आबादी 52 प्रतिशत है।
देश के 17.24 करोड़ ग्रामीण परिवारों में से 44.4 प्रतिशत अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) से हैं। जो कि उत्तर प्रदेश, तमिलनाडु, बिहार, तेलंगाना, कर्नाटक,केरल और छत्तीसगढ़, जैसे सात राज्यों से हैं। वहीं राजनीतिक भागीदारी की बात करें तो इन राज्यों से कुल मिलाकर 235 लोकसभा सदस्य संसद पहुंचते हैं।देश में जहां जातिगत जनगणना को लेकर बहस छिड़ी हुई है, वहीं केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में दिए एक हलफनामे में साफ कर दिया है कि वह जातीय जनगणना नहीं करवाएगी। ऐसे में खासकर उत्तर प्रदेश और बिहार में ओबीसी को लेकर राजनीति करने वाले दलों द्वारा लगातार की जा रही इस मांग के बीच सवाल उठता है कि आखिर जातीय जनगणना की जरूरत क्यों हैं? इसे समझने के लिए देश में ओबीसी और बाकी जातियों की संख्या और उनकी हालत पर गौर करना जरूरी है।
इसका जवाब जानने से पहले ये जान लेना ज़रूरी है कि साल 1931 तक भारत में जातिगत जनगणना होती थी । साल 1941 में जनगणना के समय जाति आधारित डेटा जुटाया ज़रूर गया था, लेकिन प्रकाशित नहीं किया गया । साल 1951 से 2011 तक की जनगणना में हर बार अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति का डेटा दिया गया, लेकिन ओबीसी और दूसरी जातियों का नहीं । इसी बीच साल 1990 में केंद्र की तत्कालीन विश्वनाथ प्रताप सिंह सरकार ने दूसरा पिछड़ा वर्ग आयोग, जिसे आमतौर पर मंडल आयोग के रूप में जाना जाता है, की एक सिफ़ारिश को लागू किया था। ये सिफारिश अन्य पिछड़ा वर्ग के उम्मीदवारों को सरकारी नौकरियों में सभी स्तर पर 27 प्रतिशत आरक्षण देने की थी। इस फ़ैसले ने भारत, खासकर उत्तर भारत की राजनीति को बदल कर रख दिया। जानकारों का मानना है कि भारत में ओबीसी आबादी कितनी प्रतिशत है, इसका कोई ठोस प्रमाण फ़िलहाल नहीं है।
मंडल कमीशन के आँकड़ों के आधार पर कहा जाता है कि भारत में ओबीसी आबादी 52 प्रतिशत है. हालाँकि मंडल कमीशन ने साल 1931 की जनगणना को ही आधार माना था। इसके अलावा अलग-अलग राजनीतिक पार्टियाँ अपने चुनावी सर्वे और अनुमान के आधार पर इस आँकड़े को कभी थोड़ा कम कभी थोड़ा ज़्यादा करके आँकती आई है। लेकिन केंद्र सरकार जाति के आधार पर कई नीतियाँ तैयार करती है।ताज़ा उदाहरण नीट परीक्षा का ही है, जिसके ऑल इंडिया कोटे में ओबीसी के लिए आरक्षण लागू करने की बात मोदी सरकार ने कही है।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने जाति जनगणना पर कोई हाल फिलहाल में बयान नहीं दिया है, लेकिन वो इस आइडिया का पहले विरोध कर चुका है। 24 मई 2010 में आरएसएस के सर कार्यवाह सुरेश भैयाजी जोशी ने नागपुर में एक बयान में कहा था, हम कैटेगरीज को पंजीकृत करने के खिलाफ नहीं हैं लेकिन जातियों को दर्ज करने के विरोध में हैं। उन्होंने कहा था कि जाति आधारित जनगणना उस विचार या योजना के खिलाफ जाता है जिसमें जातिविहीन समाज की कल्पना की गई है और ऐसा खुद बाबासाहेब अंबेडकर ने संविधान में लिखा है,अगर ऐसा कुछ किया गया तो वो सामाजिक सद्भाव के लिए अच्छा नहीं होगा।
जनगणना में आदिवासी और दलितों के बारे में पूछा जाता है, बस ग़ैर दलित और ग़ैर आदिवासियों की जाति नहीं पूछी जाती है। इस वजह से आर्थिक और सामाजिक पिछड़ेपन के हिसाब से जिन लोगों के लिए सरकार नीतियाँ बनाती है, उससे पहले सरकार को ये पता होना चाहिए कि आख़िर उनकी जनसंख्या कितनी है। जातिगत जनगणना के अभाव में ये पता लगाना मुश्किल है कि सरकार की नीति और योजनाओं का लाभ सही जाति तक ठीक से पहुँच भी रहा है या नहीं ।वो आगे कहते हैं,अनुसूचित जाति, भारत की जनसंख्या में 15 प्रतिशत है और अनुसूचित जनजाति 7.5 फ़ीसदी हैं। इसी आधार पर उनको सरकारी नौकरियों, स्कूल, कॉलेज़ में आरक्षण इसी अनुपात में मिलता है। लेकिन जनसंख्या में ओबीसी की हिस्सेदारी कितनी है, इसका कोई ठोस आकलन नहीं है । सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले के मुताबिक़ कुल मिला कर 50 फ़ीसदी से ज़्यादा आरक्षण नहीं दिया जा सकता, इस वजह से 50 फ़ीसदी में से अनुसूचित जाति और जनजाति के आरक्षण को निकाल कर बाक़ी का आरक्षण ओबीसी के खाते में डाल दिया, लेकिन इसके अलावा ओबीसी आरक्षण का कोई आधार नहीं है।यही वजह है कि कुछ विपक्षी पार्टियाँ जातिगत जनगणना के पक्ष में खुल कर बोल रही है । कोरोना महामारी की वजह से जनगणना का काम भी ठीक से शुरू नहीं हो पाया है।